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रविवार, 10 दिसंबर 2017

पुरवाई



अब स्वप्न हो गए.... 
वो मेड़ों के बीच से कलकल बहता जल 
वो पुरवाई, वो शीतल मंद बहता अनिल ,
गालों को चूमती वो मीठी बयार
वो फगुआ के गीतों की भीनी फुहार 
वो खेत, वो खलिहान
अब स्वप्न हो गए.... 

वो चने खोटना, नून मिरची लगाना,
औ चटखारे लेकर मजे से खाना, 
जाड़े में सुबह की कुनकुनी धूप सेकना 
वो 'रेखवा की माई' से घंटन बतियाना 
अब स्वप्न हो गए...... 

वो पकड़ी की फुनगी,  करेमुआ का साग
सुतली के फूलों की सब्जी का स्वाद  
वो चना, चबैना , और झंपियों का दौर 
रहट की आवाजे और ट्यूबवेल का शोर 
अब स्वप्न हो गए..... 

पानी जो भरते थे महरिन - महार 
वो डोली,वो बैना, वो नाई - कहार
वो निमिया की डारी पे झूला लगाना, 
सावन के गीतों को सखियों  संग गाना
अब स्वप्न हो गए..... 

बल्टी में भर- भरके आम चूसना 
अमिया पकाने को 'अड़से के पत्ते' जुटाना 
खेते खेतारी चलके पगडण्डी  बनाना
दशहरे में सूखे - सूखे पत्ते जुटाना
अब स्वप्न हो गए..... 

ओसारे में गौरैयों के मीठे से बोल 
'निबोली' चुगती मैना के सुनते किलोल 
दलाने में दुपहर को खटिया बिछाना
वो 'बेना' डोलाना और 'मउनी' बनाना
अब स्वप्न हो गए..... 

वो दूद्धी, वो पटरी,
वो बैटरी की राख 
मुंडेरों पे बैठा, 
वो काला काला काग 
अब स्वप्न हो गए..... 

खेतों में झूमती धान की  वो बाली 
पेड़ों पर कूकती, कोकिल मतवाली 
मोर की वो बानी, वो किस्से कहानी 
अब स्वप्न हो गए...... 

मेरी इच्छाओं, आकांक्षाओं और चाहतों तले 
मेरे सबसे सुनहरे पल दफ्न हो गए  
ये सबकुछ 
अब मेरे लिए स्वप्न हो गए..... 

सुधा सिंह ✒️


Pic credit :Google