उठो सपूतों...
देख दुर्दशा भारत माँ की,
शोणित धारा बहती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का
उठो सपूतों कहती है।।
इस स्वतंत्रता की खातिर,
वीरों ने जानें खोई हैं।
फिर भी भारतवर्ष की जनता,
चादर तान के सोई है ।।
भूली वाणी भी मर्यादा,
घात वक्ष पर सहती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का,
उठो सपूतों कहती है।।
स्वार्थ व्यस्त नेतृत्व में अपने
स्वप्न हिन्द के चूर हुए।
सत्ता और कुर्सी ने नीचे
दबने को मजबूर हुए।।
रच दो फिर से संविधान नव
पाँव तुम्हारे गहती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का
उठो सपूतों कहती है।।
कभी फाँकते रेती तपती,
गहन ठंड से ठरते हैं।
हम गद्दारों की खातिर ही,
वे सीमांत पे लड़ते हैं।।
हैं उनको यह ज्ञात देश की,
रज- रज कितनी महती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का,
उठो सपूतों कहती है।।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 27 दिसंबर 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 27 दिसंबर 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 27 दिसंबर 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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जी, अवश्य पम्मी जी. नमस्ते.
हटाएंपांच लिंकों का आनंद पर मुझे स्थान देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. मेरे ब्राउजर में कुछ सेटिंग्स की समस्या के कारण कमेन्ट करने में कुछ परेशानियां आ रही थीं। मेरा विचार है कि कदाचित अब दूर हो गई हैं। पुनश्च आपका आभार।
हटाएंसुन्दर
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