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रविवार, 21 अप्रैल 2019

कीरचें...




वो समझ नहीं पाए, मैं समझाती रह गई।
उनके अहम में, मैं खुद को मिटाती रह गई।

उजाड़ी थी बागबां ने ही, बगिया हरी - भरी
गुलाब सी मैं, काँटों में छटपटाती रह गई।

महफिल ने यारों की, भेंट कर दी तन्हाइया
मैं तन्हाइयों में खुद से, बतलाती रह गई ।

मखमली सेज, तड़पती रही बेकस होकर
मोहब्बत रात भर तकिया भिगाती रह गई ।

दिल के जख्मों को भर न पाई 'सुधा'
अपनी पलकों से ही कीरचें उठाती रह गई ।

सुधा सिंह ✍️