साथ रहते -रहते दशकों बीत गए
पर न् मैंने तुम्हे जाना,
न् तुम् मुझे जान पाए।
फिर भी एक साथ एक छत के नीचे
जीए जा रहे है।
क्या इसी को कहते हैं परिणय सूत्र ?
नही यह केवल मजबूरी है...
तुम्हे भले नही , पर मुझे मेरा एकाकीपन नजर आता है।
यह एकाकीपन मुझे
सर्प की मानिंद डसता है!
जीवन् में तुमने क्या खोया क्या पाया
ये तुम्हे ही पता है ।
मुझे तुमने अपने जीवन का अंग नही बनाया ये मुझे पता है।
तुम्हारे काम का फल तुम्हे क्या मिलता है ये तुम्हे पता है।
पर तुमने मुझे क्या दिया है
ये मुझे पता है।
यह मजबूरी नहीं तो और क्या है
तुमने तो केवल डराया है, धमकियां दी है।
और मैंने उन धमकियों को जहर की घूँट की तरह पिया है।
अपना कर्म करते करते तुम्हारे साथ एक अरसा जिया है।
अरे ओ संगदिल कभी तो सोचो ,
क्या लाये था क्या ले जाओगे ?
जब् किसी को प्यार दोगे ,
तभी तो प्यार पाओगे !
मुझे जानने का एक बार प्रयास तो करो
मैं संगीनी हूँ तुम्हारी ,
घर की सजावट का कोई सामान नहीं।
गर्व और घमंड हूँ तुम्हारा
कोई गाली या अपमान नही।
मजबूरी नहीं, एक स्वछंद जीवन की चाह है मुझे
साथी बनना है तुम्हारा
क्योंकि प्यार तुमसे अथाह है मुझे....
( हमारे देश में बहुत से परम्पराये ऐसी है जो सदियों से समाज को अपने मायाजाल में जकड़े हुए हैं।उनमे से एक यह भी है -जब् पति पत्नी में प्यार न् हो और वे समाज के रीती रिवाजो और बंधनो में उलझकर मजबूरी में एक दूसरे के साथ जीवन बिताने को विवश होते हैं।जहाँ घर का मालिक और कर्ता धर्ता पति होता है और पत्नी केवल घर में सजाने की वास्तु मानी जाती है अथवा वह घर सँभालती है। उसे निर्णय लेने का कोई हक़ नही दिया जाता। इन पंक्तियों में उस स्त्री की दशा को दर्शाने का प्रयास किया है मैंने। )
©सुधा सिंह
चित्र :गूगल साभार