रे अभिमानी..
काश.. तुम समझ पाते स्त्री का हृदय.
पढ़ पाते उसकी भावऩाओं को,
उसके मनसरिता की पावन जलधारा को,
जिसमें बहते हुए वह अपना सम्पूर्ण जीवन
समर्पित कर देती है तुम जैसों पुरुषों लिए.
दमन कर देती है अपनी इच्छाओं का,
और जरूरतों का ताकि तुम्हें खुश देख सके.
रे अभिमानी..
क्या तुम उसके मन की वेदना, व्यथा को जान सके.
क्या कभी अपने अहम को परे रख सके.
क्यों तुम्हारी मनुष्यता
तुम्हारे पुरुषत्व के आगे धराशाई हो गई.
अपने मिथ्या दंभ में तुम केवल
उसे प्रताड़ऩा का पात्र समझते रहे.
और माटी की यह गूँगी गुड़िया
स्वाहा होती रही सदियों सदियों तक
मात्र तुम्हारी आत्म संतुष्टि के लिए.