संवेदनाओं के भँवर में तैरते - तैरते
जाना मैंने कि मूरख हूँ मैं.
समझदारों की इस भीड़ में
इंसानों की खोज में हूँ मैं.
हाँ! इंसान की ,
जो कभी 'हुआ' करते थे
कब हुए वो लुप्त, अज्ञात है ये बात.
डायनासोर, डोडो पक्षी
या जैसे लुप्त हुई
कई अन्य प्राणियों की जात .
शायद भगवान से
खो गया है वह सांचा
जिसमें बनते थे इन्सां.
या फिर टूट गई है
वो सीढी जिससे
नीचे उतरते थे इन्सां.
छानी पुस्तकें कई ,
दिया गूगल बाबा को भी काम.
पर अफसोस... अपनी इस खोज में
सदा रहा नाकाम.
नहीं मिली कोई भी जानकारी
कि कब हुआ वह ग़ायब.
न जाने ईश्वर की वह नायाब रचना
फिर जन्म लेगी कब.
हाँ, इंसान के समरूप मुखड़े,
वैसी ही काठी और कद वाले
पुतले देखती हूँ मैं रोज.
जब करते हैं बातें भी वे समझदारी वाली
तब लगता है यूरेका.......
सफल हुई मेरी खोज.
पर मेरी समझ से
परे हैं ये समझदार.
गच्चा देने में सचमुच
माहिर हैं ये कलाकार.
पता ही नहीं लगता
कि हर एक को समझते हैं
वो अपना प्रतिद्वंद्वी.
लेकिन मैं किसी भी अंधी दौड़ में
शामिल नहीं ,
मैं हूँ एकदम फिसड्डी.
उन जैसी बातें भी
कभी मैं कर नहीं पाता हूँ .
इसलिए समझदारों की दुनिया में
मैं खुद को मूरख ही पाता हूँ.