अंतरद्वन्द्व
मेरी पेशानी , लंबी लकीरों से सजाते,
वक्त से पहले ही, जो मुझे बूढ़ा बनाते,
मेरे भीतर , ईर्ष्या - द्वेष जगाते,
मुझे अक्सर, गलत पथ पर दौड़ाते,
रचते साजिश सदा,
मेरे स्वजनों को, मुझसे दूर करने की
मेरे उसूलों से, मुझे डगमगा देने की
दिन का चैन, रात का सुकून छीन लेने की
अष्टप्रहर कोल्हू का बैल समझ, मुझे जोते रहने की
मेरे सुनहरे पलों को, बड़ी बेदर्दी से मुझसे छीन लेने की
बन अग्निशिखा अविराम, मेरे अंतर को सुलगाने की
आख़िर कौन है वो?????
वो लोभ है ..मृगतृष्णा वो ...
दिल चीख चीख़ है कहता ये ..
मस्तिष्क पर अभियोग चला
दिल देता उसको दोष सदा
नित अंतस... आर्तनाद करता
मेरा अंतस... आर्तनाद करता
मस्तिष्क भी, किंतु कम नहीं
नित प्रति दलीलें है देता -
संभ्रांत शब्दों में है कहता ....
मंजिल अपनी पानी हो तो
की जाए जो ..है साधना वो
वही पूजा... है अराधना वो
हूँ किंकर्तव्य विमूढ़ मैं ...
है गलत कौन
और कौन सही!!!!!!
आपस में क्यूँ फूट है इतनी...
क्यूँ इनमें सौहार्द्र नहीं!!!!!!
कैसे एक की बात को मानूँ ?
कैसे किसी से रार मैं ठानूं?
किस पक्ष को विजयी कह दूँ मैं
औ... किसे कहूँ- वह हुआ पराजित
यह द्वंद्व सदा से जारी है.........!!!!