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शनिवार, 9 मई 2020

जिजीविषा

 

गिरी थी, संभली थी,उठी थी ,चली थी।
चुभे थे कंकड़, और ठोकरें लगी थी।1।

शिथिल क्लांत सी, एकाकी डगर पर।
सुरसाओं से, मेरी जंगें छिड़ी थी।2।

आँखें की कोरों का सैलाब था शुष्क ।
फिर भी अकेले ही मैं चल पड़ी थी।3।

जिजीविषा कभी छोड़ी गई ना।
विधाता की लेखनी से मेरी ठनी थी।4।

कर्म पथ पर ही थी निगाहें मेरी ।
मंजिल ही एक ध्येय, मेरी बनी थी।5।

बड़ी हसरतों से, पुकारा जो उनको ।
चीत्कारों की मेरी,अनुगूंज लौटी थी ।6।

छेड़ा फिर एक युद्ध, नियति से मैंने।
कभी ऊपर थी वो,और मैं नीचे पड़ी थी।7।

हूँ मनु सुता, मैं अपराजित सदा थी।
ललकारा था मैंने ,और तनकर खड़ी थी।8।

जोश था उर मेें मेरे, नतमस्तक हुई वो।
हार थी उसने मानी,मेरे जय की घड़ी थी।9।