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सोमवार, 18 सितंबर 2017

मैं और मेरी सौतन

डरती हूँ अपनी सौतन से
उसकी चलाकियों के आगे मैं मजबूर हूँ
कहती है वह बड़े प्यार से - "तुम जननी बनो.
गर्भ धारण करो.
अपने जेहन में एक सुंदर से बालक की तस्वीर गढ़ो.
उसका पोषण करो.
आनेवाले नौ माह की तकलीफें सहो.
प्रसव में पीड़ा हो तो घबराना नहीं.
कोई चिंता फिकर करना नहीं.
मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी.
तुम्हें कुछ भी होने न दूंगी.

प्रसूति के बाद
जब एक ह्रिश्ट पुष्ट  बालक गोद में आ जाएगा.
तो मुझे सौंप देना,
मै उसकी परवरिश करूंगी
क्योंकि...
तुम्हें तो पता है कि मैं तुमसे बेहतर हूँ.
मैं उसमे अपने संस्कार डालूंगी,
मुझे पता है कि
तुममें मेरे जैसी रचनात्मकता नहीं है "

हर बार ऐसा ही तो हुआ है- मेरा अंश मुझसे छीनकर अपना बताया गया है.
और मुझे साबित किया गया है कि मैं नकारा हूँ.
क्योंकि मेरे पति अक्सर दूरदेश रहते हैं
मुझसे ज्यादा मेरी सौतन से मोहब्बत करते हैं l

उस जैसी व्यवहारकुशलता मुझमे नहीं
इसलिए उसके आगे, मैं सदा हारती रही.
तकदीर से लड़ती रही, झगड़ती रही,

पर अब सहा जाता नहीं है ,
लेकिन क्या करूँ?
झूठ का नक़ाब भी तो ओढ़ा जाता नहीं.

मना लेती हूँ खुद को
कि झूठ की इस दुनिया में
सच हमेशा ही परास्त हुआ है!
मासूमों से छल कपट और विश्वासघात हुआ है.

मेरे सिद्धांत, मेरे संस्कार मुझे धृष्टता करने से रोकते हैं.
विवश हूँ
मैं उसकी शतरंजी चाल के आगे
और इंतज़ार में हूँ
शायद कभी तो उसका अंतःकरण जागे.
वो मेरा अंश, मेरा बालक  मुझे लौटाए.
मेरे हिस्से का श्रेय मुझे मिल जाए.


चित्र गूगल साभार