शनिवार, 29 दिसंबर 2018

रात की थाली.( लघुकथा)

रात की थाली

बीस वर्षीया रागिनी को नहीं पता था कि सिंक में रखी वह एक थाली उसके ऊपर इतनी भारी पड़ेगी। 
भोजन समाप्त होने के पश्चात रागिनी, विकास, और उनका बेटा आरव जाने कब के सो चुके थे। तभी अचानक से कमरे के दरवाजे पर जोर - जोर से ठक - ठक हुई। इस ठक- ठक से सबकी नींद उचट गई।  दो वर्ष का मासूम आरव भी नींद टूट जाने के कारण रोने लगा था। घड़ी में तकरीबन ढाई बजे रहे थे। आँखों को मीचते हुए विकास ने दरवाजा खोला तो पाया कि पिताजी भन्नाए स्वर में शराब के नशे में जोर- जोर से चिल्ला रहे थे - "कहाँ है रागिनी, उठाओ उसे। समझ में नहीं आता उसे, रात में जूठे बर्तन सिंक में नहीं छोड़ते। रसोई जूठी हो तो देवी- देवता नाराज हो जाते हैं।"

रात को 11 से 12 बजे के दरमियान सबको खाना खिलाकर रागिनी ने एक थाली में अपने लिए भोजन निकाल कर रख दिया था कि बाद में खा लेगी।

बहू होने के नाते वह सबके साथ नहीं खा सकती थी। मजबूरीवश विकास को भी घरवालों के साथ ही खाना पड़ता था। विवाह के बाद विकास को भी कई बार ताने सुनने पड़े थे कि रागिनी के आने के बाद अधिक से अधिक समय उसके साथ ही बिताता है। उसके साथ ही खाना भी खाने लगा है।  हम अब अच्छा नहीं लगते आदि आदि ।

इन तानों से बचने के लिए ही उसने भी रागिनी के साथ भोजन करना छोड़ दिया था। अब रागिनी को रसोई में बैठकर अकेले ही भोजन करने की आदत हो गई थी । भोजन करना भी मात्र उसके लिए एक ड्यूटी बन कर रह गया था । घर के अन्य कार्यों की तरह वह भी एक ऐसा ही कार्य था जिसके बगैर नहीं चल सकता था। 

आज भी उसने यही सोचा था कि रसोई के सारे काम निबट जाने के बाद वह भी खाना खाकर सो जाएगी।
सास- ससुर को छोड़ कर घर के सभी सदस्य सो चुके थे परंतु ससुर जी शराब के नशे में धुत होकर अपने कमरे में रोज की तरह बडबड़ा रहे थे। 

ससुराल में नियम था कि रात में जूठे बर्तन रसोई में नहीं होने चाहिए, गैस चूल्हे को साफ करके ही सोना है।
काम समाप्त होते - होते रोज की तरह रात के एक बज चुके थे।जैसे तैसे उसने अपना भोजन भी ख़त्म किया। पर उस रात्रि वह बहुत अधिक थकावट महसूस कर रही थी इसलिए उसने सोचा कि बस एक थाली ही तो है। क्या फर्क पड़ता है। सुबह उठते ही साफ कर लेगी। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। यही सब विचार कर के वह भी सोने चली गई।पर शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था।

इस दौरान ससुर जी न जाने किस काम से  रसोई घर में आये।सिंक में पड़ी उस जूठी थाली पर उनकी नजर पड़ गई।फिर क्या था, उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। गालियाँ बकते - बकते रागिनी से उन्होंने उसी समय वह थाली धुलवाई और तमतमाते हुए अपने कमरे की ओर चले दिए।रागिनी की आँख से भर - भर आँसू बहते रहे।सास और पति चुपचाप खड़े यह सब देखते रह गए।
सुधा सिंह 🖋 

शनिवार, 24 नवंबर 2018

जी चाहता है...



जी चाहता है.. 
फिर से जी लूँ

उन लम्हों को
बने थे साखी 
जो हमारे पवित्र प्रेम के,
गुजर गए जो 
बरसों पहले ,
कर लूँ जीवंत उन्हें ,
फिर एक बार ....
जी चाहता है 

अलौकिकता से 

परिपूर्ण वो क्षण 
जब दो अजनबी 
बंध गए थे
प्रेम पाश में... 
ऐहिक पीड़ाओं से 
अनभिज्ञ, 
हुए थे सराबोर 
ईश्वरीय सुख की 
अनुभूतियों से! 
एक स्वप्निले भव का
अभिन्न अंग बन 
आसक्त हो, 
प्रेम के रसपान से मुग्ध, 
दिव्यता से आलोकित 
प्रकाश पुंज का वह बिखराव.. 
मेरे चित्त को 
दैहिक बन्धनो से 
मुक्त करने को 
लालयित थे जो 
उस अबाध प्रवाह में 
बहने को 
आतुर थे हम 
कर लूँ 
उन क्षणों को 
फिर से आत्मसात 
जी चाहता है

पूर्णतया तुम में ही 
डूब जाने की बेकरारी, 
इस संसार को भुलाने को 
विवश करती,
तुम्हारी वह कर्णप्रिय
प्रेम पगी वाणी. 
फिर से जी लूँ 
वो पलछीन
जी चाहता है... 





 
 

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

कुछ द्वीपदियाँ

कुछ द्वीपदियाँ

1 : फितरत

छीन लूँ हक किसी का,
 ऐसी फितरत नहीं.
आईना जब भी देखा,
 खुशी ही हुई.**

2: नियति

नियत तो अच्छी थी,
पर नियति की नीयत बिगड़ गई *
जीवन के थपेड़े खाते- खाते
वह महलों से वृद्धाश्रम पहुंच गई *

3: इंसानियत

बाजार सज गए हैं...
चलो इंसानियत खरीद लाएँ ***

4: सामंजस्य
सामंजस्य नहीं था बिल्कुल
फिर भी जिन्दगी काट दी **
यह सोचकर कि
दुनिया क्या कहेगी.....**

5: जिन्दगी

कैसे कह दूँ कि जिन्दगी
कठिन से सरल हो गई है.
वक्त का असर तो देखो यारों...
अब तो 'सुधा' भी गरल हो गई है...

शनिवार, 17 नवंबर 2018

एक और वनवास


~एक नया वनवास~

ढूँढ रही थी अपने पिता की छवि
उस घर के  सबसे बड़े पुरुष में
एक स्त्री को माँ भी समझ लिया था
प्रेम की गंगा बह रही थी हृदय से मेरे
लगा था बाबुल का घर छूटा तो क्या हुआ
एक स्वर्ग जैसा घर फिर से ईश्वर ने मुझे भेट में दे दिया
एक बहन भी मिल गई है सुख दुख बाँटने को
सब कुछ यूटोपिया सा
फिर अचानक से मानो ख्वाब टूटा
शायद मेरा भाग्य था फूटा
एक खौफ सा मंडराता था शाम - ओ-  सहर
मेरे सामने था मेरे सुनहरे सपनों का खंडहर
संत का वेश धरे थे
कुछ आततायी मेरे सामने खड़े थे
और उन सबका विकृत रूप
छीः कितना घिनौना और कितना कुरूप...

सपनों के राजमहल में
कैकेयी और मंथरा ने
फिर अपना रूप दिखाया था.
सीता की झोली में
 फिर से वनवास आया था.
फर्क इतना था कि इस बार
मंथरा दासी नहीं, पुत्री रूप में थी
और दशरथ थे  कैकेयी और
मंथरा के मोहपाश में..
हुआ फिर से वही जो
हमेशा से होता आया था
राम और सीता ने इस बार मात्र चौदह वर्ष नहीं,
अपितु जीवनभर का वनवास पाया था.
राम और सीता ने इस बार
आजीवन वनवास पाया था.

©®सुधा सिंह 🖋

सोमवार, 5 नवंबर 2018

मेरी प्रेयसी.... 💖हाइकू


मेरी प्रेयसी... 💖 हाइकू

1:
मन मंदिर
प्रेयसी का हमारी
प्रेम अमर

2:
उजला रंग
सुन्दर चितवन
छेड़े तरंग

3:
अपनापन
गोरी तू जताती
न सकुचाती

4:
मनभावन
लबों पर मुस्कान
तू मेरी जान

5:
चाँद सा मुख
आवाज़ में मिठास
हो सुखाभास

6:
गीतमाला तू
जीवन उजाला तू
प्रेमवर्षा तू

7:
 पास हो तुम
अहसास हो तुम
होश हैं गुम.

8:
मन की बात
प्यार भरी सौगात
रहा हूँ बाँट


सुधा सिंह 🦋 03.01.16

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

ढल जा ऐ रात....




ढल जा ऐ रात...
मुझे सूरज को मनाना है
बहुत दिन हुए
न जाने क्यूँ...
मुझसे रूठा हुआ है...

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

बुधवार, 19 सितंबर 2018

मना है...


न  दौड़ना मना है,   उड़ना मना है
न गिरना मना है , न चलना मना है!
जो बादल घनेरे, करें शक्ति प्रदर्शन
तो भयभीत होना, सहमना मना है!

पत्थर मिलेंगे, और कंकड़ भी होंगे.
राहों में कंटक, सहस्त्रों चुभेंगे!
कछुए की भाँति निरन्तर चलो तुम,
खरगोश बन कर, ठहरना मना है!

भानु, शशि को भी लगते ग्रहण हैं..
विपदाओं को वे भी, करते सहन हैं!
विधाता ने गिनती की साँसे हैं बख्शी..
उन साँसों का दुरुपयोग करना मना है!

गिरा जो पसीना, तो उपजेगा सोना.
लहू भी गिरे तो, न हैरां ही होना .
निकलेगा सूरज, अंधेरा छटेगा.
नया हो सवेरा , तो सोना मना है!!!

📝 सुधा सिंह 🦋 

शनिवार, 1 सितंबर 2018

प्यारी मैं....



प्यारी मैं,
मेरी प्यारी प्यारी... मैं....

अरे.!अरे... !मुझे पता है तुम क्या सोच रही हो?
तुम सोच रही हो .. कि आज मुझे क्या हो गया है??
कैसी बहकी - बहकी बातें कर रही हूँ ??
आज तक तो मैंने तुम्हें कभी प्यारी नहीं कहा!!
कभी प्यार से पुकारा नहीं!!
हमेशा तुम्हारी अनदेखा करती रही!!!
फिर अचानक से मुझे क्या सूझी???
यही न???

मैं....

मांगती हूँ आज तुमसे हृदयतल से क्षमा..
अहसास हुआ है मुझे अपनी गलती का ...

मैंने की है तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी ..
तुम थी मेरे प्यार के लिए सदा से तरसी
मैं.. कैसे भूल गई कि..
तुम मेरी हो....
मेरी अपनी हो ..
मेरा ही तो फर्ज था कि मैं तुम्हें प्यार करूँ...
तुम्हें तुम्हारा हक दूँ!

अगर मैं ही तुमसे प्यार न करूंगी....
तो भला कोई और भी क्यों करेगा???

ज्ञात है मुझे ...
मैंने भी वही भूल की ...
जो लोग अक्सर किया करते हैं...
अपनी अनदेखी... अपनों की अनदेखी!!!!

किंतु जब  होता है अहसास!!!!
तब तक हो जाता है बहुत कुछ ह्रास!!!

निकल चुका होता है बहुत कुछ हाथ से
बिल्कुल मुट्ठी की रेत की भाँति!
अंत में रह जाता है खाली हाथ... बेबस,
निरीह.. असहाय ... हतबुद्धि!

तुम चाहो तो उठक बैठक कर लूँ....
अपने कान मैं पकड़ लूँ ....
यह गलती दोबारा न होगी ...
क्या, बस एक बार मुझे माफी दोगी??

कैसे भूल गई .. तुम मेरे बिना और...
मैं तुम्हारे बिना अधूरी हूँ!!!
अब से .. मेरा पहला लक्ष्य है तुम्हें पाना..
पहले तुम्हें पा लूँ, फिर निकलूं..
अपने अगले गन्तव्य की राह तय करने !!!!
एक बेहतरीन इंसान बनने !!!

परंतु, इस बार अकेली नहीं....मैं जाऊँगी तुम्हारे साथ !
 कहो ...  दोगी न सदैव............. तुम मेरा साथ???


📝सुधा सिंह 🖋

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

कहना तो था पर..

कहना तो था पर
 कभी कह न पाई!!!

सोचकर ये कि,
पड़ोसी क्या कहेंगे...
समाज क्या कहेगा....
दुनिया क्या कहेगी....
मैं कुछ कह न पाई!!!!

बांध दी किसी ने बेड़ियाँ जो पैरों में,
तो छुड़ाने की कोशिश भी न की.
उसे अपना नसीब समझ लिया!
नसीब से कभी लड़  न पाई! 
कहना तो था पर....

सदियों से लड़कियां चुप ही रही थी.
गाय की तरह चारदीवारी में खूंटे से बंधी थी.
आदत भी तो इसी परंपरा की थी.
फिर मैं कैसे ये परंपरा तोड़ देती!!
कैसे अपना मुँह खोल देती!!
मैं ये परंपराएं तोड़ भी न पाई.
मैं कुछ कह न पाई. 
कहना तो था पर....

चंचलता, कभी मेरी प्रकृति न थी.
कूप के मंडूक सी वृत्ति जो थी.
नदी की धार, बन बहने की प्रवृत्ति न थी.
अपने सागर में मिल न पाई!
मैं कभी कुछ कह न पाई! 
कहना तो था पर....

शनिवार, 4 अगस्त 2018

अन्तरद्वन्द्व


अंतरद्वन्द्व

मेरी पेशानी , लंबी लकीरों से सजाते,
वक्त से पहले ही, जो मुझे बूढ़ा बनाते,

मेरे भीतर , ईर्ष्या - द्वेष  जगाते,
मुझे अक्सर, गलत पथ पर दौड़ाते,

रचते  साजिश सदा,
मेरे स्वजनों को, मुझसे दूर करने की
मेरे उसूलों से, मुझे डगमगा देने की

 दिन का चैन, रात का सुकून छीन लेने की
अष्टप्रहर कोल्हू का बैल समझ, मुझे जोते रहने की

मेरे सुनहरे पलों को, बड़ी बेदर्दी से मुझसे छीन लेने की
 बन अग्निशिखा अविराम, मेरे अंतर को सुलगाने की

आख़िर कौन है वो?????

वो लोभ है ..मृगतृष्णा वो ...
दिल चीख चीख़ है कहता ये ..

मस्तिष्क पर अभियोग चला
दिल देता उसको दोष सदा
नित अंतस... आर्तनाद करता
मेरा अंतस... आर्तनाद करता

मस्तिष्क भी, किंतु कम नहीं
नित प्रति दलीलें है देता  -
संभ्रांत शब्दों में है कहता ....

मंजिल अपनी पानी हो तो
की जाए जो ..है  साधना वो
वही पूजा... है अराधना वो

हूँ किंकर्तव्य विमूढ़ मैं ...
 है गलत कौन
और कौन सही!!!!!!
आपस में क्यूँ फूट है इतनी...
क्यूँ इनमें सौहार्द्र नहीं!!!!!!

कैसे एक की बात को मानूँ ?
कैसे किसी से रार मैं ठानूं?

किस पक्ष को विजयी कह दूँ मैं
औ... किसे कहूँ- वह हुआ पराजित
यह द्वंद्व सदा से जारी है.........!!!!

सोमवार, 28 मई 2018

Quote - लम्हें जिन्दगी के

माँ भारती



1:गरिमा गान
माँ भारती महान
हमारी शान

2:खूबसूरत
जननी जन्म भूमि
तेरी मूरत

3:सारे जहाँ में 
सदा झंडा लहरे
तेरी शान में 

4: आग भरी हो 
भारतीय रगों में 
गद्दारी न हो

5:चाह है यही 
हो भारत से दूर 
भूख गरीबी 

6:माथे पे मेरे 
 तेरी माटी चमके 
 संझा सबेरे 

7:गाँधी बनूँ या 
सुभाष बन जाऊँ 
तो मोक्ष पाऊँ 

8:कर दे हम 
निछावर तुझी पे 
जान सनम 

9:जज्बा हमारा 
तिरंगे के नीचे हो 
संसार सारा 








शनिवार, 19 मई 2018

संभल जाओ..

 वत्स,आज तुम फिर आ गए मेरे पास
विनाश की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने.
अपने ही हाथों से अपना सर्व नाश कराने.
कब समझोगे मेरे ही अस्तित्व में निहित है
तुम्हारा भविष्य सुनहरा.
फिर भी चोट कर - करके धरा को तुमने कर दिया है अधमरा.

कैसे हो सकते हो तुम इतने कृतघ्न!
क्या तुम्हें बिल्कुल भी नहीं स्मरण!
कि मेरे ही फलों से तुममें होता है ऊर्जा का स्फूरण.
मेरी प्रक्षेपित वायु से होता है तुम्हारे प्राणों में स्पंदन .
मेरे रंगीं पुष्पों को देख तुम्हारे चेहरों पर आती है मुस्कान.
फिर भी क्यों हो तुम अपने भयावह भविष्य से अनजान.

संग मेरे जब खेलती है गिलहरियां
तो क्या वो तुम्हें चिढ़ाती हैं.
मेरी ओट में कोयल जब पंचम सुर लगाती है
तो क्या तुम्हें डराती हैं.
मेरी बाहों में झूला डाल झूलती हैं जब ललनाएँ
तो क्या तुम्हें नहीं भाता है.
नन्हें मुन्ने जब खेलते हैं चढ़के मुझपर
तो क्या वह भी तुम्हें खलता है.

इस वसुधा का हरा रंग तो तुम्हें खूब लुभाता है
मेरी छाँव तले विश्राम भी तुम्हें खूब भाता है
आज से नहीं युगयुगांतर से मेरा तुम्हारा नाता है .
फिर भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आता है.

मैं ही तो बादलों को बुलाकर वर्षा  करवाती हूँ.
मैं ही तो तुम्हें सूर्य के भीषण ताप से बचाती हूँ
बिन मेरे तुम कितने क्षण बिता पाओगे
बिन श्वास के क्या तुम जी पाओगे

विकास के इस अंध प्रवाह में
फिर क्यों तुम दौड़ लगा रहे हो!
भावी पीढ़ी के लिए आखिर
कौनसा उपहार छोड़े जा रहे हो!

समय है अब भी संभाल जाओ!
मुझपर कुल्हाड़ी न चलाओ!

याद रहे सामने तुम्हारे चुनौती बड़ी है.
अब मेरी निस्वार्थ सेवा का फल देने की घड़ी है

अपनी भावी पीढ़ी के शत्रु तुम न बनो.
उनके अच्छे भविष्य की नीव धरो.
कम से कम अपने जन्मदिन
पर ही वृक्षारोपण करो.

गुरुवार, 17 मई 2018

विलुप्त की खोज


संवेदनाओं के भँवर में तैरते - तैरते
जाना मैंने कि मूरख हूँ मैं.
समझदारों की इस भीड़ में
इंसानों की खोज में हूँ मैं.

हाँ! इंसान की ,
जो कभी 'हुआ' करते थे
कब हुए वो लुप्त, अज्ञात है ये बात.
डायनासोर, डोडो पक्षी
या जैसे लुप्त हुई
कई अन्य प्राणियों की जात .

शायद भगवान से
खो गया है वह सांचा
जिसमें बनते थे इन्सां.
या फिर टूट गई है
वो सीढी जिससे
नीचे उतरते थे इन्सां.

छानी पुस्तकें कई ,
दिया गूगल बाबा को भी काम.
पर अफसोस... अपनी इस खोज में
सदा रहा नाकाम.

नहीं मिली कोई भी जानकारी
कि कब हुआ वह ग़ायब.
न जाने ईश्वर की वह नायाब रचना
फिर जन्म लेगी कब.

हाँ, इंसान के समरूप मुखड़े,
वैसी ही काठी और कद वाले
पुतले देखती हूँ मैं रोज.
जब करते हैं बातें भी वे समझदारी वाली
तब लगता है यूरेका.......
सफल हुई मेरी खोज.

पर मेरी समझ से
परे हैं ये समझदार.
गच्चा देने में सचमुच
माहिर हैं ये कलाकार.

पता ही नहीं लगता
कि हर एक को समझते हैं
वो अपना प्रतिद्वंद्वी.
लेकिन मैं किसी भी अंधी दौड़ में
शामिल नहीं ,
मैं हूँ एकदम फिसड्डी.

उन जैसी बातें भी
कभी मैं कर नहीं पाता हूँ .
इसलिए समझदारों की दुनिया में
मैं खुद को मूरख ही पाता हूँ.







रविवार, 13 मई 2018

प्यारी माँ





 अदृश्य सी वह शक्ति जो सदैव मेरे साथ है
 पता है मुझे माँ, कि वह तेरा ही आशीर्वाद है

तेरा प्यार,तेरी ममता, तेरा स्नेह माँ निर्विवाद है 
तू मेरी संगी,मेरी साथी ,मेरी ईश्वर प्रदत्त मुराद है

तू मेरा बल, संबल, मेरे जीवन का आल्हाद है 
तू गीत है, संगीत है , मेरे जीवन का नाद है 

मेरा घर, परिवार, मेरा संसार तुझसे आबाद है
तू पूजा ,अराधना, तू ईश्वर से साधा मेरा संवाद है 

माँ, तू है तो जीवन में खुशी है, हर्ष है,उन्माद है 
तू मेरे चेतन, अचेतन, मेरे अस्तित्व की बुनियाद है 




शनिवार, 12 मई 2018

बेदाम मोहब्बत


तमाम कोशिशें उन्हें पाने की गोया नाकाम हुई
रातें कटती हैं करवटों में मेरी नींदें भी हराम हुई

न वो इकरार करते हैं न ही इनकार करते हैं
उल्फत में क्यू जफा ही मेरे नाम हुई

दिल की तड़प भी उन्हें दिखी नहीं या - खुदा
उनकी बेवफ़ाईयां ही क्यों मेरा ईनाम हुई

किस सिम्त उन्हें ढूंढे, वो चार सू नजर आते हैं
तलाश में उनकी मेरी मोहब्बत बदनाम हुई

दीदार से जिनके, मेरी रूह सुकूं पाती थी
महफिल से गए वो ऐसे कि कोई दुआ न सलाम हुई

देखके जिन्हें बज उठती थी सरगम दिल की
दिल की वो तारें भी अब गुमनाम हुई

इंतजार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब, वफ़ा, नशा
जुनून-ए -इश्क में  बेकार सरेआम हुई

ऐसे तड़पना छोड़ दे तू ऎ दिल - ए - नादान
अब ये बेशकीमती मुहब्बत भी बेदाम हुई. 

शुक्रवार, 4 मई 2018

वक्त हूँ मैं



वक्त हूँ मैं
मेरा इंतजार न करना
लौटता नहीं मैं कभी किसी के लिए
देखता हूँ समदृष्टि से सभी को
ज्ञात है तुम्हें भी
उगता है सूरज समय से और
निकलता है चांद समय पर
समय से होते हैं परिवर्तित मौसम
नियत समय पर वर्षा,गर्मी और सर्दी
सब सुनते हैं केवल मेरी ही
उन्हें पता है कि मैं कितना अनुशासनप्रिय हूं
अवसर सबको देता हूँ

मैं ही नियति भी हूँ
मैं ही बनाता हूं और बिगड़ता भी मैं ही हूँ
चाहो तो तुम भी
भविष्य देख सकते हो अपना
अपनी मां में,अपने पिता में
अपनी सास में, अपने ससुर में,
तुम सीख सकते हो
अपने परिवेश से, अपने आसपास के वातावरण से
अपने समाज से कि जिसने मेरी कद्र की
उसे मैंने हमेशा ऊंचा उठाया

जिसने मुझे जाया किया
उसका क्या हश्र हुआ
कौन जानता है उसका पता,
 वह किस गर्त में गिरा
मैं भी नहीं जानता,
कि वह किस शून्य में विलीन हुआ

कैसा कल चाहते हो तुम अपने लिए
यह निर्भर है पूर्णतया तुम पर ही
बस इतना भर कहना है कि..
गंवाओं न मुझे
न करो इंतजार  मेरा
मैं लौटूंगा नहीं....
हूँ मैं भविष्य सुनहरा
या अंधकार से गहरा...


चमगादड़

   रात के साढ़े दस बज रहे थे. महीना अप्रैल का था पर तपन ज्येष्ठ मास से कम न थी. खूब गर्मी पड़ रही थी इसलिए आशीष, सिया और उनके दोनों बच्चे घर के बाहर का दरवाजा खोलकर हॉल में बैठ कर भोजन कर रहे थे. तभी सिया को कुछ अजीब - सा महसूस हुआ. उस की नजर ऊपर उठी. अचानक से अपने सिर के ऊपर चमगादड़ को उड़ता देख वह थोड़ी घबरा गई. वह चमगादड़ पंखे के आसपास यहां से वहां बड़ी तेजी से उड़ रहा था.  टीवी भी चल रहा था और सभी अपने रात के भोजन में व्यस्त थे. इसलिए शायद किसी का ध्यान उस चमगादड़ की ओर नहीं गया पर अचानक उसके मुँह से निकला, "आशीष, चमगादड़!
चमगादड़ को सहसा यूँ अपने ऊपर उड़ता देख सभी डर गए और अपना- अपना भोजन छोड़कर सभी छिपने की जगह ढूंढने लगे.
बेटी श्रेया भी तुरंत घर के मुख्य दरवाजे के पीछे जाकर छुप गई. आशीष और पृथ्वीज ने भी झट से जाकर पर्दे की ओट ली.
तभी सिया ने जाकर धीरे से लाइट और पंखा बंद कर दिया ताकि वह घर से बाहर निकल जाए और यह भी डर था कि पंखे से टकरा कर कहीं वह घायल न हो जाए और घाव लगाने पर घर में उसका रक्त यहां वहां बिखर जाए तो इन्फेक्शन का खतरा भी था.
अचानक हुई इस घटना में उसके दिमाग मे यह बात ही नहीं आई कि चमगादड़ रोशनी में अच्छे से नहीं देख पाते. इसलिए उसने बचते बचाते किसी तरह से जाकर लाइट जला दी ताकि वह घर से बाहर निकल सके .
"आख़िर घर में चमगादड़ आया कहाँ से?, "
यह बात किसी को समझ नहीं आ रही थी . घर की दोनों बालकनी में तो जाली लगी थी. केवल रसोईघर की एक खिड़की ही थी जिससे होकर चमगादड़ घर के भीतर आ सकता था और दूसरा रास्ता था घर का मुख्य दरवाजा. खैर थोड़ी देर बाद वह चमगादड़ किसी तरह अपने आप घर के मुख्य दरवाजे से होते हुए बाहर निकल गया. उसके निकलते ही सिया ने तुरंत दरवाजा बंद कर दिया और सबने राहत की साँस ली. वह चमगादड़ बिल्डिंग के पैसेज में काफी देर तक उड़ता रहा. इस बीच सभी पड़ोसियों ने भी अपने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए ताकि उस चमगादड़ की वजह से किसी को कोई नुकसान न पहुंचे.
ख़ैर बिल्डिंग के पैसेज से वह कब, कहाँ गया यह पता नहीं.

अभी छह महीने भी तो नहीं गुजरे, एक मामूली से चमगादड़ के कारण सिया और उसके पूरे परिवार को, खासतौर से श्रेया को कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा था. व‍ह इतनी ज्यादा बीमार पड़ी कि डाक्टरों ने उसे तीन महीनों तक बेड रेस्ट की सलाह दी. बारहवीं की छमाही परीक्षा तक वह दे न  पाई.   डेंगू टेस्ट, मलेरिया टेस्ट, टाईफोइड टेस्ट और और भी न जाने कितने ही अनगिनत टेस्ट हुए उसके. एम. आर. आई. टेस्ट भी किया गया। एक के बाद एक कई बीमारियों ने उसे घेर  लिया  था. वजन घटता जा रहा था.
वह लगातार कमजोर होती गई. अस्पताल के अनवरत चक्कर लग रहे थे. उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी कम हो गई थी कि बुखार उतरने का नाम ही नहीं लेता था. एक सौ पाँच डिग्री बुखार!
कभी किसी के मुँह से सुना न था कि किसी को एक सौ पांच डिग्री का बुखार हुआ हो. सिया रात रात भर श्रेया के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखती पर बुखार न जाता. अंत में उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था .कुछ दस एक दिन बाद अस्पताल से श्रेया को छुट्टी  मिल गई .
Latest news on bats 🦇

पर एक हफ्ता अभी बीतने भी न पाया था कि  ऑफिस जाते समय आशीष की मोटर साइकिल एक ट्रक से टकराई.  टक्कर भी ऐसी जोरदार थी कि  मोटर साइकिल सड़क के दूसरी तरफ जा गिरी. उसके पुर्जे - पुर्जे बिखर गए. शुक्र है आशीष को ज्यादा चोट नहीं आई. घटना स्थल पर मौजूद कुछ लोगों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया.
इस दुर्घटना के कारण आशीष का पैर फ्रेक्चर हो गया था ,
दर्द और बंधे प्लास्टर के कारण वह एक महीने तक दफ्तर न जा सका. इस कारण उसका कामकाज और घर की आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई और रुपया तो पानी की तरह बह रहा था. श्रेया के इलाज में भी लाखों रुपए स्वाहा हो चुके थे. घर की माली हालत,
बेटी और पति की ऐसी स्थिति देखकर उसका दिल बैठ जाता पर किसी तरह वह अपने मन को समझा लेती.

बातों - बातों में एक दिन उसने अपनी सहेली ऋचा को बताया था कि उसके घर की बालकनी में एक चमगादड़ ने अपना निवास स्थान बनाया है तब ऋचा ने उसे सावधान भी किया था कि चमगादड़ का घर में आना अशुभ माना जाता है और किसी तरह वह उस चमगादड़ को अपने घर से निकाल दे. पर  सिया को इस बात में कोई सच्चाई नहीं लगी. उसे लगा कि इतना छोटा - सा मूक प्राणी किसी को क्या नुकसान पहुंचा सकता है और वैसे भी वह बालकनी में रहता है! उसे यह सब बातें दकियानूसी लगती थी. उसे लगता था यह महज अंधविश्वास है. इसलिए उसने ऋचा की  इस बात पर गौर नहीं किया. ऋचा ने कई बार सिया से चमगादड़ के बारे में पूछ कर किसी तरह से उसे बालकनी से भगाने की बात कही लेकिन हर बार वह अपना तर्क देकर इस बात को टाल जाती. ऋचा ने भी इस विषय पर ज्यादा चर्चा करना ठीक नहीं समझा और इस पर बात करना बंद ही कर दिया . यह बात अब आई गई हो गई थी .

किन्तु चमगादड़ की अशुभता अब अपना प्रमाण देने लगी थी . लगातार घर में बढ़ती परेशानियों , श्रेया की बीमारी और आशीष की
दुर्घटना ने ऋचा की बात याद दिला दी. इसलिए मौका निकालकर उसने सबसे पहले बालकनी में जाली लगवाई ताकि किसी तरह वे लोग चमगादड़ से छुटकारा पा सकें .

सच है कि कई बार जो बातें हमें अंधविश्वास भरी लगती हैं उनमें एक सच्चाई छिपी होती है.

दरअसल वास्तु के अनुसार घर में इनके प्रवेश के साथ ही नकारात्मक शक्ति का भी प्रवेश होता है.. यहां तक की ये मृत और बुरी आत्माओं के साए का भी वाहक होते हैं ।
नकारात्मक उर्जा से परिजनों में झगड़े और विवाद की परिस्थितियां बनने लगती हैं और दूसरे अनिष्ट की सम्भावनाएं बढ जाती हैं।
वास्तु के अनुसार जिस घर में चमगादड़ प्रवेश होता है वह जल्द ही खाली मकान बन जाता है.. घर के सदस्य वहां से जाने लगते हैं और वहां सन्नाटा छा जाता है।
इन के वास के साथ ही घर के परिजनों पर मौत का साया छा जाता है।
चमगादड़ का घर में आना मौत का संकेत होता है|
चमगादड़ के घर में आने से मौत को आमन्त्रण मिलता है इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी हैं। असल में इनके पंखों में बेहद घातक बैक्टीरिया होते हैं। इनके इन्फेक्शन से इन्सान की मौत हो सकती है। दुनिया में इनके हमले से मौत के कई मामले सामने आ चुके हैं। आज के समय में इबोला जैसे घातक बिमारी भी इन्हीं की वज़ह से फैल रही है। इबोला से जुड़े ताजा शोध में इस बात की पुष्टी हुई है कि चमगादड़, बन्दर और गोरिल्ला इस बीमारी के वाहक हैं। इस तरह की लालइलाज बिमारियों के वाहक होने का कारण ही यह कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति पर यह हमला कर दे तो समझों उसकी मौत हो गई।
(साथियों, यह  कोई अंधविश्वास नहीं है. यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है .)



बुधवार, 2 मई 2018

दरमियाँ




कह दो हवाओं से कि दरमियाँ न आएँ 
      दूरिया उनसे अब और सही जाती नहीं
            उनके रुखसारों को जब चूमती हैं वो
                   तो रकीब सी लगती हैं





                        सुधा सिंह 🦋 02.05.18

जिन्दगी - 3



नही छोड़ती कोई कसर, जिन्दगी हमें आजमाने में
एक मजदूर ही तो हैं हम, जीवन के इस कारखाने में

गिर्द बांध दिया है इसने, इक ऐसा मोह बंधन
 जकड़े हुए हैं सब, इसके तहखाने में

दुख देखकर हमारा, हो जाती है मुदित ये
सुख मिलता है इसे, हमें मरीचिका दिखाने में

जिद्दी है ये बड़ी ,ज्यों रूठी हो माशूका  ,
बीत जाती है उम्र पूरी, अपना इसे बनाने में

कब साथ छोड़ दे ये, नहीं इसका जरा भरोसा
इस जैसा बेवफा भी, नहीं कोई जमाने में

रहती है सब पर हावी, चलती है इसकी मर्जी
सौगात उलझनों की, है इसके खजाने में

क्रूर शासक सदृश ,प्रतिपल परीक्षा लेती
रहती सदा ही व्यस्त, मकड़जाल बनाने में

सुधा सिंह 🦋  01.05.18

गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

अस्तित्व है क्या....




अस्तित्व है क्या?
क्या रूप नया!

क्या जीवित रहना अस्तित्व है?
या कुछ पा लेना अस्तित्व है?

ये अस्तित्व है प्रश्नवाचक क्यों?
और सब है उसके याचक क्यों?

आख़िर
क्या है ये??

सत्ता... अधिकार...या प्रकृति...
वजूद... या फिर.. उपस्थिति ???
अजी कब तक और किसकी????

आए कितने ही, गए कितने,
पर अस्तित्व कहो टिके कितने!

जो जिए मात्र अपने लिए,
तो अस्तित्व अहो किसके लिए!

यदि सत्ता का एहसास है,
तो दंभ सदैव ही पास है!

अहसास है अधिकार का,
तो अस्तित्व है अहंकार का!

हो दया धर्म, मानवता हीन,
तो अस्तित्व हो गया सबसे दीन!

जो बात प्रेम से हो जाए,
वो लड़के कहाँ कोई पाए?

कर नेकी, दरिया में डाल!
फिर होगा उत्थान कमाल!

बस कर्म करें और धीर धरें ,
यूँ निज भीतर अस्तित्व गढ़े

छोड़कर सब दंभ, अभिमान!
करें निज प्रकृति का संधान!

केवल मानव हम बन जाएँ
तो अस्तित्व हमें मिल जाएगा
जीवन में अच्छे कर्म किए
तो भाग कहाँ फिर जाएगा
वह पीछे दौड़ लगाएगा
हाँ.. पीछे दौड़ लगाएगा

सुधा सिंह 🦋 26.04.8




उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है- Amarujala

उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है- Amarujala: चाहत तो ऊँची उड़ान भरने की थी। पर पंखों में जान ही कहाँ थी! उस कुकुर ने मेरे कोमल डैने जो तोड़ दिए थे। मेरी चाहतों

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

ये कैसी उकूबत थी उनकी

 ये कैसी उकूबत थी उनकी


ये कैसी उकूबत थी उनकी,
 हमें चोटिल ज़रर कर गए
हमने लिखी इबारतें सदा उनके नाम की
बिन पढे ही उन्हें वो बेकदर कर गए

उनसे पूछे कोई उनकी बेवफ़ाई का अस्बाब
हम तो अपनी ही कफ़स में जीते जी मर गए

बह के आँखों से अश्कों ने लिखी तहरीर ऐसी
कि बज्‍म में जाने अनजाने ही हमें रुसवा कर गए

बनके मुन्तजीर राह उनकी हम तकते रहे
वो हमें अनदेखा कर बगल से यूँ ही गुजर गए

दर रोज वो बढ़ाते रहे रौनक-ए - महफिल 
शाम-ओ-सुबह हमारी तो तीरगी में ठहर गये

हर साँस में हम करते रहे इबादत जिसकी
देखा एक नजर जब उन्होंने,हम तरकर उबर गए

सुधा सिंह 🦋


उकूबत= दंड, सजा,
ज़रर= घाव, क्षति, शोक, विनाश, बरबादी
अस्बाब= कारण, वजह, साधन


मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

तफ़ावत



उनकी कुरबत भले ही मेरे
रकीब के नसीब हो 
जो चेहरे पर तबस्सुम खिले उनके, 
तो तफ़ावत भी उनकी 
मंजूर है हमें





सुधा सिंह 🦋

तफ़ावत: दूरी, फासला
कुरबत :निकटता


मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

यक्ष प्रश्न



यक्ष प्रश्न

जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,
और बढ़ जाती हूँ एक कदम
आगे की ओर
सोचती हूँ कदाचित
इस पथ पर कोई वाजिब जवाब
जरूर मिल जायेगा।
पर न जाने किस शून्य में
विचरण करके एक नए प्रश्न के साथ
वह तीर मेरे सामने दोबारा
उपस्थित हो जाता है
एक यक्ष प्रश्न-सा..
जो भटक रहा है अपने युधिष्ठिर की तलाश में
और तलाश रहा है मुझमें ही
अपने उत्तरों को..

और मैं नकुल, सहदेव, भीम आदि की भाँति
खड़ी हूँ अचेत, निशब्द,
किंकर्तव्य विमूढ़,
सभी उत्तरों से अनभिज्ञ.
'यक्षप्रश्नों' की यह लड़ी
कड़ी दर कड़ी जुड़ती चली जा रही है.
कब होगा इसका अंत, अनजान हूँ
"कब बना पाऊँगी स्वयं को युधिष्ठिर"
यह भी अनुत्तरित है.

हर क्षण, यक्ष, एक नया प्रश्न शर,
छोड़ता है मेरे लिए.
पर प्रश्नों की इस लंबी कड़ी को
बींधना अब असंभव- सा
क्यों प्रतीत हो रहा है मुझे .
न जाने, मैं किस सरोवर का
जल ग्रहण कर रही हूँ
जो मेरे भीतर के युधिष्ठिर को
सुप्तावस्था में जाने की
आवश्यकता पड़ गई !
क्यों युधिष्ठिर ने भी
चारों पाण्डवों की भांति
गहन निद्रा का वरण कर लिया है!
कब करेगा व‍ह अपनी
इस चिर निद्रा का परित्याग!
और करेगा भी कि नहीं!
कहीं यह प्रश्न भी
अनुत्तरित ही न रह जाए!

सुधा सिंह 🦋
    

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

जरूरी है थोड़ा डर भी


जरूरी है थोड़ा डर भी
 मर्यादित अरु सुघड़ भी. 
 इसी से चलती है जिंदगी,
 और चलता है इंसान भी. 

जो डर नही
तो मस्जिद नहीं ,मंदिर नहीं. 
 गुरुद्वारा नहीं और गिरिजाघर नहीं.
और खुदा की कदर भी नहीं. 

 ना हो डर,
रिश्ते में खटास का, 
 तो मुंह में मिठास भी नहीं. 
 डर न हो असफलता का, 
 तो हाथ में किताब भी नहीं. 

डर नही जो गुरु का, 
तो विद्या ज्ञान नहीं. 
डर ना हो इज्जत का, 
तो मर्यादा का भान नहीं

डर न हो कुछ खोने का, 
तो कुछ पाने का जज्बा नहीं. 
जो डर नहीं जमीन जायदाद का, 
तो कोई अम्मा नहीं, कोई बब्बा नहीं. 


डर नहीं तो, सभी नाते बड़े ही सस्ते हैं. 
डर नहीं तो, सब अपने - अपने रस्ते हैं.

ये डर है, तो रिश्ते हैं. 
ये डर है, तो प्यार की किश्तें हैं

तो जरूरी है थोड़ा डर भी. 
मर्यादित अरु सुघड़ भी. 
इसी से चलती है जिंदगी,
और चलता है इंसान भी. 


    

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

मृत हूँ मैं!




हमेशा से ऐसा ही तो था

हाँ.. हमेशा से ऐसा ही था
जैसा आज हूँ मैं
न कभी बदला था मैं
और ना ही कभी बदलूंगा
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मेरे पास...
आत्मा तो कभी थी ही नहीं
भीड़ के साथ चलता हुआ
एक आदमी हूँ मैं
हाँ.. आदमी ही हूँ
पर विवेक शून्य हूँ मैं
क्योंकि... मृत हूँ मैं!

देखता हूँ  शराबी पति को
बड़ी बेरहमी से,  पत्नी को
मारते हुए, दुत्कारते हुए
पर.. मैं कुछ नहीं करता
'ये उनका आपसी मसला है!'
कहकर पल्ला झाड़ लेता हूँ मैं
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

मेरी आँखों के सामने
किसी मासूम की आबरू लुटती है
और मैं.. निरीह सा खड़ा होकर देखता हूँ..
न जाने क्या सोचता हूँ
मेरे अंतस का धृतराष्ट्र
कुछ नहीं करता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

पर जब बारी आती है
कैंडल मार्च की
तो मैं भी.. कभी - कभार,
हाँ.. कभी- कभार अपनी उपस्थिति
दर्ज करवाने से पीछे नहीं हटता
और कभी - कभार तो
दूसरों से प्रभावित होकर
उनकी राय को
एक सुंदर - सा
लबादा पहनाकर
उसे अपनी राय बना देता हूँ..
मेरी अपनी कोई राय नहीं..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

आठ बजे से छह बजे की नौकरी
में ही तो मेरा अस्तित्व  है
मैं किसी और के लिए
जी ही नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

कोई अम्बुलंस
बगल से जा रही हो
तो मैं.. उसे जाने का रास्ता नहीं देता
अरे.. उसी जैसा तो मैं भी हूँ न
अचेतन..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मेरे ही आँखों के सामने
सरेआम.. कोई शहीद हो जाता है..
कोई गोलियों से भून दिया जाता है..
और मैं कुछ नहीं कर पाता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

देश के लिए मर मिटने की जिम्मेदारी
मेरे कंधों पर थोड़े ही है
वो काम तो सिपाहियों का है
आखिर.. इस देश से मुझे मिला ही क्या है
नहीं भाई...यह सब तो
मैं सोच भी नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

नेताओं को गाली देना
तो जन्म सिद्ध अधिकार है मेरा
पर एक अच्छा नेता बनकर
देश की कमान संभालना..
उसे ऊंचाई पर ले जाना..
मेरा काम नहीं है
चुनाव के दिन छुट्टी
समझ में आती है मुझे
पर वोट करना नहीं समझता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मैं ,मेरा के आगे..
मुझे दुनिया दिखाई नहीं देती
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

और शायद..हमेशा
ऐसा ही रहूँगा मैं
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

हाँ.. मृत हूँ मैं!

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

छूना है मुझे चाँद को


छूना है मुझे चाँद को


सोचती हूँ कि कर लूँ, मैं भी
कुछ मनमानियाँ , थोड़ी नदानियां
उतार फेंकू, पैरों में पड़ी जंजीरे
बदल दूँ, अपने हाथों की अनचाही लकीरें
तोड़ दूँ, दकियानूसी दीवारों को
उन रिवाजों , उन रवायतों को
जो मेरे पथ में चुभते है कंटकों की तरह
क्यों हैं सारी वर्जनाएँ केवल मुझपर लादी
चाहती हूं मैं , बस थोड़ी- सी आजादी
मैं एक स्त्री हूँ, भक्षण-भोग का कोई सामान नहीं
हूँ, उन जैसी ही एक इंसान,कोई पायदान नहीं

सोचती हूँ भर लूँ, मैं भी अपनी उड़ान
और पा लूँ अपना मनचाहा आसमान
छूना है मुझे चाँद को, तारों को,
ऊँची - ऊँची मीनारों को
चाहिए मुझे भी मेरी  एक आकाशगंगा
चमकीला, दूधिया, रंगबिरंगा
दे दो मुझे! मेरे वो पर
जो कतर दिए तुमने बेरहमी से
लोक - लाज के डर से
बचाने के लिए मुझे
उस गंदी नजर से
जो तैयार बैठे हैं मुझे नोच खाने के लिए
अपनी हवस मिटाने के लिए
समझकर मुझे केवल जिस्‍म का एक टुकड़ा
गिद्ध के सदृश पल -पल ताक लगाए
बैठे हैं वो नजरें  गड़ाए कि
एक शिकार,  बस हाथ लग जाए....

सुधा   🦋 

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

तन्हाई....






ये सिंदूरी, सुरमई शाम का बहकता आँचल
फलक से झरती ये अलमस्त चाँदनी
रूह तक पहुँचता एहसास ये रूमानी
नदिया की बहती ये नीरव रवानी
हौले से कुछ कह जाए..

ये कशिश, ये खुमारी और ये दयार
कानों में चुपके से कुछ कहती फिर
सर्रर् ... से बह जाती ये मतवाली बयार
तुम्हारी गर्म साँसों की ये मदमस्त खुशबू
मुझे बेखुद- सी किए जाए..

मेरी जुल्फों से खेलती ये उंगलियाँ तुम्हारी
तुम्हारी मोहब्बत में दरकती ये साँसे हमारी
बस.. मैं, और तुम, और उफ्फ...
इस खूबसूरत तन्हाई का ये आलम
डर है कहीं हमारी जान ही न ले जाए...


तनहाई मतलब
[सं-स्त्री.] - 1. तनहा होने की अवस्था; अकेलापन; एकाकीपन 2. निर्जन या एकांत स्थान।

शनिवार, 24 मार्च 2018

बेवफा मोहब्बत



न मालूम था कि तुम भी निकलोगे उन जैसे ही ..
खोल दी थी अपने दिल की किताब मैंने तुम्हारे सामने
उसके हर सफहे पर लिखी हर बात को गौर से पढ़ा था तुमने..
जिसमें लिखे थे मेरे सारे जज्बात, सारे एहसास...

वो स्याह, बदरँग, मैला - सा पन्ना भी तो तुमने देखा था जिसे मैंने सबसे छुपा कर रखा था...
पर बेहिचक तुम्हारे सामने मैंने उसे भी तो रखा था
और तुमने मुझे तसल्ली दी थी कि
तुम मेरे हो, कद्र है तुम्हें मेरी, मेरे एहसासों की, मेरी भावनाओं की...

फिर ऐसा क्या हुआ..
फिर ऐसा क्या हुआ कि..
तुमने मुझे रुसवा करने में जरा भी कसर न छोड़ी.
मखौल उड़ाया मेरा , मेरे अहसासों का ..
शर्मिंदा किया , उनके ही सामने जिसने मुझे जख्म दिए थे और कई बार उन जख्मों को कुरेद कर हरा भी किया था.. .
फिर मलहम भी लगाया था....
मलहम लगने से मुझे आत्मीयता का एहसास तो होता....
पर.. फिर भी न जाने क्यों घाव और गहरा होता जाता और पककर मवाद निकलने लगता ...

मलहम मिलावटी था बड़ी देर से अहसास हुआ
अमृत में जहर होगा कहाँ जानती थी मैं ...
मैं टूट रही थी भीतर ही भीतर..
ढूँढ रही थी एक सहारा और फिर मिल गए थे तुम
मैंने पाया था तुममें
वो अपनापन , वो हमसफर, वो राजदार .
पर मेरे अगाध प्रेम का ये सिला मिलेगा
नहीं जानती थी मैं ..
नहीं जानती थी मैं कि तुम भी खेलोगे
उनकी ही तरह
उनकी ही तरह वेदनाओं से उपहृत करोगे मुझे
तुम्हें खेलना ही था तो कह देते..
मैं ही ला देती कोई खिलौना
जी भर के खेल लेते...
तुमने मेरे जज्बात ही क्यों चुने ,
क्यूँ मेरे प्रेम से विश्वासघात किया
तुमने भी वही दिया जो बाकियों से मिला था मुझे .
फिर क्या अंतर है उनमें और तुममें.
आख़िर तुम निकले उनमें से ही एक... क्यों????
क्या है कोई उत्तर..???



रविवार, 18 मार्च 2018

माना पतझड़ का मौसम है.




घनघोर तिमिर आतंक करे
वायु भी वेग प्रचंड करे
हो सघन बादलों का फेरा
या अति वृष्टि का हो घेरा
तू हृदय घट में भरले उजास
मत पीछे हट, तू कर प्रयास

है पथिक तू, न ये भूलना
करने तुझे कई काज हैं
वो मानव ही तो मानव हैं
जिसमें उम्मीद और आस है

माना पतझड़ का मौसम है
 पर ये मौसम भी बीतेगा
तूफान तेरे पुरुषार्थ से
फिर दुबकेगा,  तू जीतेगा
और आसमान के आँचल से
फिर धुंध कुहासा छिटकेगा

बासंती लहरें आएँगी
कलियाँ कलियाँ मुस्काएँगी
कूकेगी प्यारी कोयलिया
जीवन के गीत सुनाएँगी
         
माना कि सफर आसान नहीं
है कौन जो परेशान नहीं
हर मेहनतकश, हर अभीत से
आँधियाँ भी दहला करती है

प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो तो भी
निर्वेद न हो, न शिथिल पड़ो
उम्मीद का दामन थाम कर
यलगार करो और आगे बढ़ो
रोशन होगी,  दिल की मशाल
 फिर देखना होगा कमाल
 फिर  देखना होगा कमाल......



बुधवार, 7 मार्च 2018

परिक्रमा





परिक्रमा

कौन नहीं करता परिक्रमा?
सब करते हैं
और जरूरी भी है परिक्रमा
परंतु अपनी ही धुरी से
जैसे चांद करता है धरती की परिक्रमा.
धरती करती है सूर्य की परिक्रमा.
और अनेकों ग्रह करते हैं सूर्य की परिक्रमा
ताकि वह अपनी धुरी से भटक ना जाएं.
दिग्भ्रमित न हो जाएं.
सब की सीमाएं होती हैं
सीमाओं के परे जाने से,
अतिक्रमण करने से
होता है सब को कष्ट
इसलिए जरूरी है परिक्रमा
पर अपनी ही धुरी में रहते हुए
ताकि न हो पथभ्रष्ट.

हम भी करते हैं परिक्रमा
पर अपनी लालसाओ की
अपनी चाहतों, इच्छाओं की,
अपनी जरूरतों की, चिंताओं की,
अपनी सांसारिक परेशानियों की,
यही नहीं वरन्
लोगों की सोच की,
उनकी कही बातों की

पर नहीं करते परिक्रमा
अपनी स्वयं की ,
अपने आत्मन की
नहीं करते परिक्रमा
अत्मचिंतन की, आत्ममंथन की

मिटाते हैं भूख अपने खूबसूरत से तन की,
अपनी अनवरत कार्यरत जेहन की,
पर भूल जाते हैं कि
भूख लगती है आत्मा को भी,
अंतःकरण को भी
उसकी भूख को कौन मिटाएगा?
क्या कोई दूसरा आएगा?
क्या कोई और आकर
हमें खुद से मुखातिब करवाएगा
या फिर कोई शुभ मुहुर्त निकलेगा....
यह नहीं होगा ...
हाँ
परिक्रमा जरूरी है
पर.. सबसे पहले स्वयं की
ताकि कुछ और पाने से पहले
पा सकें ख़ुद को ...
जान सके खुद को..
और पहचान सकें ख़ुद को!



सोमवार, 5 मार्च 2018

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है...... प्रेम गीत


धुन:
तुम्हें प्यार करते हैं, करते रहेंगे।
कि दिल बनके दिल में.......


चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।
छाई है मदहोशी चारों तरफ,
सुर्ख फूलों पे भँवरा दिवाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

बागों में चिड़िया चहकने लगी है,
कलियाँ भी खिलकर महकने लगी है।
कि गुम है मेरे होश चाहत में तेरी ,
मेरा होश मुझसे बेगाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

फिजाओं में बिखरी है खुशबू रूमानी,
हवाये भी कहती हमारी कहानी ।
है बिछी चांदनी देखो चारों तरफ़,
कि शमा में मगन परवाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

आँचल मेरा अब ढलकने लगा है,
पपीहा पीहू पीहू बोलन लगा है ।
उठती हैं दिल में तरंगे कई ,
उन तरंगों में दिल शायराना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

टिप - टिप बरसता है बारिश का पानी,
नीर तन में, अगन अब लगाने लगा है ।
तुम बिन मुझे अब तो भाए न कोई,
क्यूँ ये सारा जमाना बेगाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

फाग कहीं यो बीत न जाए!





मैं बिरहन हूँ प्रेम की प्यासी
न रँग, न कोई रास है!
बदन संदली सूल सम लागे
कैसा ये एहसास है!

तुम जब से परदेस गए प्रिय
ये मन बड़ा उदास है!

बिना तुम्हारे रंग लगाए,
फाग कहीं यो बीत न जाए!
सखिया मोहे रोज छेड़ती
कहती क्यो तोरे पिया न आए!

टेसू पलाश के रंग न भाए,
गुलमोहर भी बिछ - बिछ जाए !
कस्तुरी सांसो की खुशबू,,
तुमको अपने पास बुलाए!

बिंदिया में अब चिलक न कोई,
झांझर भी मेरी रूठ गई है!
मेहँदी अब न सजन को राजी,
पाँव महावर छूट गई है!

काहे तुम परदेस गए प्रिय,
यह दूरी अब सही नहीं जाए!
पुरवईय्या तन अगिन लगाए,
तुम बिन हिय को कुछ नहीं भाए!

उर का द्रव बनकर निर्झरणी 
झर- झर झर- झर बहता जाए!
तेरे दरस को अंखियाँ तरसी,
पल - पल नयन नीर बरसाए!

न होली की उमंग कोई है,
न कोई उल्लास है!
तुम जब से परदेस गए प्रिय,
ये मन बड़ा उदास है!






मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

तन्हाई





तन्हाई...नहीं होती मूक!
होती है मुखर ,
अत्यंत प्रखर!
उसकी अपनी भाषा है
अपनी बोली है!
जन्मती है जिसके भी भीतर
ललकारती है उसे!
करती है आर्तनाद
चीखती है चिल्लाती है!
करती है यलगार
शोर मचाती ,लाती है झंझावात
अंतरद्वंद करती
रहती झिंझोड़ती हर पल !
और करती है उपहृत
व्याकुलता, वेदना, लाचारी और तड़प !
बनाती है धीरे -धीरे उसे अपना ग्रास!
ज्यों लीलता है सर्प,
अपने शिकार को शनै शनै!
ओढाती है मुस्कुराहट का आन्चल
लोगों को वह रूप दिखाने को!
जो उसका अपना नहीं,
बल्कि छीना गया है
अपने ही पोषक से!

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

रुसवाई




 आंसुओं को कैद
कर लो मेरे 
 कहीं बहकर ये
फिर कोई राज न खोल दे
 मेरी रुसवाई  में इनका भी बड़ा हाथ है. 


शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

प्रेम रस




तुम कान्हा बन आओ तो नवनीत खिलाएँ
भोले शंकर बन जाओ तो भंग - धतूर चढ़ाएं 
 पर
दिल तो प्रियवर के प्रेम से परिपूरित है.
थोड़ा भक्ति रस ले आओ तो कुछ बात बने.

सुधा सिंह 🦋 

क्षणिकाएं





1:पहचान

यूँ तो उनसे हमारी जान पहचान
बरसों की है पर....
फिर लगता है कि क्या
उन्हें सचमुच जानते हैं हम

**************
2:जिन्दगी

जिन्दगी जीने की चाह में
जिन्दगी कट गयी
पर जिन्दगी जीई न गई

*********

3:पल

हमने पल - पल
बेसब्री से जिनकी
राह तकी
वो पल तो
हमसे बिना मिले
ही चले गए

*********
4:ऊँचाई

ऊँचाई से डर लगता है
शायद इसीलिये
आज तक मेरे पाँव
जमीं पर हैं

*********
5:कलयुग...

यूँ तो हीरे  की परख,
केवल एक जौहरी  ही कर सकता है
पर
आजकल  तो जौहरी  भी,
नकली की चमक पर फिदा हैं
कलयुग इसे  यूँ ही तो नहीं कहते...

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

प्रश्न

उग आते हैं कुछ प्रश्न ऐसे
जेहन की जमीन पर
जैसे कुकुरमुत्ते
और खींच लेते हैं
सारी उर्वरता उस भूमि की
जो थी बहुत शक्तिशाली
जिसकी उपज थी एकदम आला
पर जब उग आते हैं
ऐसे कुकुरमुत्ते
जिनकी जरुरत नहीं थी किसी को भी
जो सूरज की थोडी सी उष्मा में
दम तोड देते हैं।
पर होते हैं शातिर परजीवी
खुद फलते हैं फूलते हैं
पर जिसपर और जहाँ पर भी पलते हैं ये
कर देते हैं उसे ही शक्तिहीन
न थी जिसकी आवश्यक्ता उस भूमि को
और न ही किसी और को
फिर भी उग आते हैं ये प्रश्न
खर पतवार की तरह
अपना अस्तित्व साबित करने
कुछ कुकुरमुत्ते होते हैं जहरीले
इन्हें  महत्व दिया जरा भी
तो हाथ लगती है
मात्र निराशा
होता है अफसोस
धकेल देता है ये
असमंजस के भंवर में उसे
जिसके ऊपर
 इसने पाया था आसरा
बढ़ाई थी अपनी शक्ति
और काबू पा लेता है उस पर
जो फँसा इनके कुचक्र में
घेर लेते हैं जिसे ये प्रश्न
छीन लेते हैं चैन और सुकून
छोड़ देते हैं उसे
बनाके शक्तिहीन ...
आखिर क्यों उगते हैं ये प्रश्न?

सुधा सिंह🦋

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

आलोक बन बिखरना



कोई बढ़ रहा हो आगे, मंजिल की ओर अपने
रस्ता बड़ा कठिन हो, पर हो सुनहरे सपने
देखो खलल पड़े न , यह ध्यान देना तुम
कंटक विहीन मार्ग, उसका कर देना तुम

माँगे कोई सहारा, यदि हो वो बेसहारा
मेहनत तलब हो इन्सां, न हो अगर नकारा
बन जाना उसके संबल, दे देना उसको प्रश्रय
गर हो तुम्हारे बस में , बन जाना उसके शह तुम

भटका हुआ हो कोई या खो गया हो तम में
हो मद में चूर या फिर, डूबा हो किसी गम में
हो चाहता सुधरना, आलोक बन बिखरना
बन सोता रोशनी का, सूरज उगाना तुम
                                             पढ़िए :रैट रेस

दुर्बल बड़ा हो कोई, या हो घिरा अवसाद से
हो नियति से भीड़ा वो, या लड़ रहा उन्माद से 
हास और परिहास उसका, कदापि करना न तुम
यदि हो सके मुस्कान बन,अधरों पे फैलना तुम

न डालना कोई खलल,न किसी से बैर रखना
हर राग, द्वेष, ईर्ष्या से, दिल को मुक्त रखना
हर मार्ग है कंटीला, ये मत भूलना तुम
बस राह  पकड़ सत्य की, चलते ही जाना तुम

सुधा सिंह 🦋 

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

जीवनदायिनी है नदिया




कल कल - संगीत मधुर, सुनाती है नदिया.
चाल लिए सर्पिणी- सी , बलखाती नदिया

ऊसर मरुओं को उर्वर बनाती है नदिया
तृष्णा को सबकी पल में मिटाती है नदिया

प्रक्षेपित पहाड़ों से होती है नदिया
वनों बियाबनों से गुजरती है नदिया

राह की हर बाधा से लड़ती है नदिया
सबके मैल धोके पतित होती है नदिया

मीन मकर जलचरों को पोषती है नदिया
अपने रव में बहते रहो, कहती है नदिया

तप्त हुई धरा को भिगाती है नदिया
अगणित रहस्यों को छुपाती है नदिया

शुष्क पड़े खेतों को सींचती है नदिया
क्षुधितों की क्षुधा को मिटाती है नदिया

क्रोध आए, प्रचंड रूप दिखाती है नदिया
फिर अपना बाँध तोड़ बिखर जाती है नदिया

कभी सौम्य है, तो कभी तूफानी है नदिया
कल्याण करे सबका जीवन दायिनी है नदिया

कई सभ्यताओं की जननी है नदिया.
खारे- खारे सागर की मीठी संगिनी है नदिया

सुधा  सिंह 🦋

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

बुलबुला पानी का






 मेरे ख्वाबों का वो  जहान
प्रतिदिन प्रतिपल टूटता है, फूटता है
और फिर बिखर जाता है ...
हो जाता है विलीन
एक अनंत में
एक असीम में...
तुच्छता, अनवस्था,
व्यर्थता का एहसास लिए ...
खोजना चाहता है
अपने अस्तित्व को..
पर सारे प्रयास, सारे जतन
हो जाते हैं नाकाम
तब... जब अगले ही पल में
अचानक से परिलक्षित
होने लगता है वही बदरंग परिदृश्य..
और शुरू हो जाती है
जद्दोजहद ख़ुद को पाने की
खुद को तलाशने की
और तलाश के उस दौर में
अंततः भीड़ का हिस्सा
बनकर रह जाने की अवस्था में ..
जैसे कोई बुलबुला पानी का
सतरंगी आभा का वह गोल घेरा....
जो एक पल सम्पूर्णता का एहसास कराता है
और फिर दूसरे ही पल,
 फूटते ही फैल जाती है शून्यता.....

सुधा सिंह 🦋