अपना भारी - भरकम
लबादा उतारकर
मेरे फ़ुरसत के पलों में
जब तब बेकल- सा
मेरे अंतस की
रिसती पीर लिए
आ धमकता है मेरा किरदार
और प्रत्यक्ष हो मुझसे
टोकता है मुझे
कि तुझे तलाश रहा हूँ
एक अन्तराल से,
मानो बीते हो युग कई
कि कभी मिल जा
मुझे भी तू,
तू बनकर
वरना खो जाएगा
उस भीड़ में जो
जो तेरे लिए नहीं बनी...
और
वर्षों से जिसे मैं हर क्षण
दुत्कारता आया हूँ
कि दुनिया को भाता नहीं
तेरा सत्य स्वरूप
तू ओढ़े रह वह लबादा वरना
खो जाएगी तेरी पहचान
स्मरण रहे कि
तुझे लोग उसी आडंबर में
देखने के आदी हैं
अनभिज्ञ है तू
कि असत्य ही तो सदा
बलशाली रहा है
फिर तू क्यों
मुझे दुर्बल बनाने को आतुर है
यह विभ्रम है,
यह मरीचिका है
ज्ञात है मुझे
किन्तु यही तो
उनके और मेरे
सौख्य का पोषण है
और यही जीवनपर्यंत उन्हें
मेरी ओर लालायित करता है
चल ओढ़ ले पुनः
अपना यह सुनहरा लबादा
कि तेरा विकृत रूप कहीं
परिलक्षित न हो जाए।