भागती रही जिससे मैं हमेशा!
जिससे हमेशा लड़ती रही!
वही झूठ न जाने क्यूँ मुझे अपनी ओर खींच रहा है!
क्यूँ अब मुझे वही सच लगने लगा है!
क्यूँ यह झूठ चीख चीख कर मुझसे कहता है कि
हर ओर आज उसी का बोलबाला है!
वही आज की सच्चाई है!
क्यूँ वह पूछता है मुझसे...
कि आखिर..
इस सच से तुझे मिला ही क्या है?
सच ने तुझे दिया ही क्या है?
इस प्रश्न ने मुझे मूक कर दिया!
और सोचने पर मजबूर कर दिया!
ये कलयुग है या झूठ युग है!
क्या सचमुच ..
सच आज दुर्बल हो गया है!
क्या सच का साथ छोड़ दूँ और
झूठ का दामन थाम लूँ
आखिर.. दुनिया यू ही तो दीवानी नहीं झूठ के पीछे!
ठीक ही तो है...
सोच रही हू कि.. झूठ ही कहूँ और झूठ ही लिखूं ..
लिखूं
कि शिक्षक हूँ.. फिर भी खूब अमीर हूँ!
अपने लिए समय ही समय है मेरे पास!
लिखूं कि एक बहुत अच्छी जिन्दगी जी रही हूँ
लिखूं कि सच का साथ देकर..
मैंने बहुत कुछ पाया है!
लिखूं की शिक्षक हूँ कोई गुलाम नहीं!
लिखूं कि इस युग मे भी विद्यार्थी अपने शिक्षको को मान-सम्मान देते हैं!
लिखूं कि मैंने अपने बच्चो को वो सब दिया है जो धनाढ्य घरों के बच्चों को आसानी से मिल जाता है!
लिखूं कि मेरे बच्चे किसी मामूली सी वस्तु के लिए तरसते नहीं है!
लिखूं की मेरा परिवार मेरे पेशे से खुश हैं!सोच रही हूँ कि आखिर क्या क्या लिखूं और क्या क्या कहूँ क्या क्या छोड़ूं?
क्या सचमुच दिल से यह सब कभी लिख पाऊँगी!
क्या सचमुच झूठ को अपना पाऊँगी!
नहीं..
यह मुझसे नहीं हो पाएगा!
कभी नहीं हो पाएगा!
सुधा सिंह