मानसिकता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मानसिकता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

मानसिकता


     

      संजना ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी, बस इंटर पास थी ।पर आत्म विश्वास बिलकुल कम न था ।शादी से पहले उसने भी वही सपने देखे थे जो हर आम लड़की देखा करती है। मनीष से शादी करके जब अपने ससुराल आई तो उसने सोचा भी न था कि उसके ससुराल वाले इतने दकियानुसी विचारों वाले होंगे कि बहू का खिड़की से बाहर झाँकना भी उनको गँवारा नहीं।
   
 संजना ने स्वयं को घर के रीति - रिवाजों के मुताबिक ढालने की पुरजोर कोशिश की ।वह हर कोशिश करती कि कोई ऐसी-वैसी बात न हो जाए जो उसके सास - ससुर को अच्छी न लगे। उन्हें कोई बात बुरी लगे।पर अपनी हर कोशिश में वह नाकामयाब होती। घर से बाहर जाने पर रोक ।मायके जाने के नाम पर घर में सास -ससुर की झिकझिक। बर्तन अच्छे से नहीं माँजे। आज सब्जी अच्छी नहीं बनी। माँ बाप ने कुछ सिखाया नहीं। अनपढ़ है। किसी बात का शऊर नहीं आदि आदि।
 
यदा - कदा संजना बीमार पड़ जाती तो भी इल्जाम यही लगता कि घर के कामों से बचने के लिए बीमार होने का बहाना कर रही है। मनीष की उस घर में एक न चलती थी। ननद का ससुराल भी पास में ही था इसलिये घर में उसका आना- जाना भी लगा ही रहता था ।इकलौती और लाड़ली बेटी होने के कारण घर में उसका काफी दबदबा था। मम्मी- पापा उसकी हर बात मानते थे।उसकी हर बात मानों पत्थर की लकीर हो। यहाँ तक कि देवर के लिये जब भी लड़की देखी गई उसने नापसन्द कर दी ।इसलिये सास - ससुर और देवर ने भी मना कर दिया। उसकी इन दखलंदाजियों के कारण घर का वातावरण बहुत ज्यादा बिगड़ गया था ।

संजना के बारे में भी उल्टी -सीधी बातें बोलकर अक्सर वह अपने माँ-पिता  के कान भरती रहती थी जिससे घर में दरार पैदा हो रही थी। यहाँ तक कि मनीष भी अपनी छोटी बहन मिहिका की बढती दखलंदाजियों से परेशान हो गया था। वह उसके खिलाफ कुछ भी बोल न पाता क्योंकि मिहीका मम्मी पापा को जान से ज्यादा प्यारी थी। उसके खिलाफ एक शब्द भी वे किसी के मुँह से नहीं सुन सकते थे। एक दो बार मनीष ने मिहीका को समझाने की कोशिश भी की। पर वही ढ़ाक के तीन पात ।कोई हल न निकला।

उस दिन व्हाटसैप  पर ननद की डीपी  देखकर संजना पूरी तरह से हिल गई थी। आधी टाँग की जींस,बिना आस्तीन का टॉप  और बाएँ हाथ की कलाई पर चार इंच का लंबा सा टैटू।
"अब मम्मी पापा को नहीं दिखता कि उनकी बेटी क्या -क्या कर रही है. सारी वर्जनाएँ केवल मुझपर ही क्यों लागू होती है. मैं उनकी बहू हूँ इसलिए?"

उसे बहुत क्रोध आ रहा था. कितने शौक से उसने जीन्स खरीदी थी कि किसी अच्छे मौके पर उसे पहनेंगी। आखिर जीन्स पहनने में बुराई ही क्या है। कमर के नीचे तक का कोई अच्छा से टॉप पहन लो तो पूरा अंग ढका रहता है।

उस दिन संजना को जींस पहनने का मौका भी मिल गया । सुबह 6 बजे ही घर से निकलना था ताकि ठंडे -ठंडे में ही दर्शन मिल जाए और ज्यादा देर तक कतार में खड़े न रहना पड़े। नहा -धोकर सब लोग तैयार हो गए थे। वह भी अपनी मन पसंद जीन्स और टॉप पहनकर, अच्छे से सज- धज कर अपने कमरे से बाहर आई।उसके जेहन में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि उसका जीन्स पहनना घर में इतने बड़े कलह का, इतने बड़े झगड़े का कारण बन सकता है।

ससुर जी ने जोर -जोर से मेहमानों के सामने चिल्लाना शुरू किया, "मेरी बेइज्जती करवाती है, जानती है घर में मेहमान आये हैं फिर भी जीन्स पहनकर आ गई. जीन्स पहनकर कोई मंदिर जाता है क्या? बहू है बहू की तरह रहना सीख। ये सब चोंचले यहां नहीं चलेंगे। इस घर में रहना है तो मेरे मुताबिक ही रहना होगा।"

पर यह सिलसिला यहीं नहीं रुका. आदत के अनुसार मायके वालों की बुराई। गंदी- गंदी गालियाँ,अपशब्द। ये कोई नई बात नहीं थी उसके ससुर के लिए। शुरू - शुरू में तो सुन भी लेती थी पर कितना दिन सुनती अपने मायके की बुराई और गाली -गलौज। उसकी  सहनशक्ति भी जवाब दे चुकी थी अब वह भी चुप नहीं बैठती कभी -कभार वह भी उन्हें उल्टे  जवाब दे देती। लेकिन उसका जवाब देना उसके देवर, ननद और उसकी सास सबको अखरता. सब एक हो जाते और वह  अकेली पड़ जाती। हफ्तों-हफ्तों तक संजना से  कोई बात न करता।

फिर बच्चों की वजह से बात शुरू भी हो जाती पर उनका रवैया न बदलता।

अक्सर लोग दहेज को लेकर अपनी बहू पर तंज कसते हैं अत्याचार करते हैं पर शुक्र है कि कम से कम दहेज को लेकर उसपर कभी ताने नहीं कसे गए बनिस्बत उसके ससुराल वालों ने हमेशा उसपर यही आरोप लगाया कि उसके भाई संजय ने पैसे दे -देकर मनीष को बिगाड़ दिया है, उसे खरीद लिया है। इसलिए मनीष कभी संजना के खिलाफ नहीं जाता।

संजना की  बुराई न सुननी पड़े और घर की रोज की झिकझिक से दूर रहने के लिए मनीष ने भी रात में काफी देर से आना शुरू कर दिया ।वह अक्सर तभी घर लौटता जब घर के सभी लोग सो चुके होते और सुबह किसी न किसी बहाने से जल्दी निकल जाया करता ।

उन दिनों मनीष का काम भी छूट गया था । तकरीबन छह महीनों से वह काम पर नहीं गया था। इसलिए संजना अपने बड़े भाई संजय की मदद से घर का राशन भरवाती थी।और घर की अन्य सभी जरुरतों को भी पूरा करती।  घर में इसके अलावा पैसों की आमद का कोई जरिया नहीं था। इस बात की जानकारी घर के सभी लोगों को थी कि मनीष नौकरी पर नहीं जा रहा है। फिर भी घर के खर्चे चलाने की जिम्मेदारी मनीष पर ही थी। देवर की कमाई भी कुछ ज्यादा नहीं थी और अविवाहित होने के कारण उनके ऊपर कोई और भार भी नहीं थी परंतु संजना के  दो बच्चों और संजना की जिम्मेदारी मनीष पर होने के कारण वह बहुत मजबूर था ।
बड़े शहरों में अपना घर होना कोई मामूली बात नहीं होती। इसलिए बार -बार उन्हें पिताजी की  धमकियाँ  मिलती कि ये मेरा घर है यहां रहना है तो हमारे मुताबिक ही रहना पड़ेगा। नहीं तो अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर अपना अलग घर बसाओ।"

सैंकड़ों हजारों बार यह सुन- सुनकर मनीष और संजना का धैर्य जवाब दे चुका था । पर उनके पास उस घर में ही रहने के अलावा कोई और चारा न था। मनीष के पास कोई नौकरी भी न थी कि कहीं और किराये का घर लेकर रह लें इसलिये वे दोनों बस मन ही मन घुटते रहते।स्थिति यह हो गई कि अधिक  चिंता के कारण मनीष अवसाद में चला गया ।

उसकी रातें करवटों में कटती लेकिन मम्मी पापा ने कभी अपने बेटे की तकलीफ समझने की कोशिश भी न की। उन्हें तो बस यही लगता कि मनीष नौकरी छूटने का बहाना कर रहा है और जानबूझकर घर में पैसे नहीं देता। "सारी कमाई बीवी की महँगी -महँगी साड़ियों और बच्चों को महँगे कपड़े जूते, खिलौने खरीदने में खर्च कर देता है।

ननद का कहना था - "उनके शौक पूरे हो पाने के बाद पैसे बचेंगे तभी तो घर खर्च के लिए जेब से निकलेंगे न और वो तो पूरे होने से रहे।"

इन सबके चलते ही संजना को अपने भाई से मदद लेनी पड़ी थी।संजय भी संजना के ससुराल वालों की सोच से वाकिफ था इसलिये उसने मदद में कोई कोताही नहीं की। संजना जब भी सहायता मांगती वह बेझिझक उसकी सहायता करता आखिर वह भी इकलौती बहन थी पर अपनी ननद से बिल्कुल अलग थी। वह रिश्तों के मायने जानती थी। इसलिए तो उसने जैसे तैसे कईयों साल बिता दिये थे ।पर अब तो हद ही हो गयी थी एक दिन ससुर जी ने बालकनी से अपने पड़ोसी विक्रम और संजना को  हँस- हँस कर बातें करते हुए देख लिया । बस फिर क्या था हुआ वह जिसके बारे में संजना कभी अपने सपने में भी नहीं सोच सकती थी।
शाम को मनीष के लौटने का इंतज़ार भी नहीं किया गया । मनीष को तत्काल फ़ोन करके बुलाया गया । मनीष भी घर पहुँचा लेकिन मन ही मन घबरा रहा था। पर उसने सोच लिया था कि अब वह और नहीं सहेगा। इस बार वह  बड़ी दृढ़ता से अपनी बात रखेगा और स्थिति- परिस्थिति जैसी भी होगी उसी के अनुसार निर्णय करेगा।

घर का वातावरण तनाव से भरा था। मानो अदालत में किसी  बहुत बड़े मुकदमे का आज फ़ैसला होना था ।संजना अपने कमरे में बैठकर रो रही थी। एक तरफ़ सोफे पर मिहीका भी बैठी थी।ससुर जी ने क्रोध भरे लहजे में कहा ,"आज संजना ने अपनी सारी हदे पार कर दी। पूछो उससे कि वह  विक्रम से हँस -हँस कर क्या बात कर रही थी!घर की बहू बेटियों का इस तरह पराये मर्दों से बात करना शोभा नहीं देता। लोक -लिहाज कुछ बचा भी है या नहीं! समझा दो उसे कि यह सब इस घर में नहीं चलेगा।"

"पर पापा संजना ऐसी नहीं है ।आप भी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं ।"
"तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ। अब तुम मुझे सिखाओगे।" 
"नहीं पापा। लेकिन....."
"लेकिन क्या? हाँ ....बोलो?"
"अरे..अब तो तुम भी मुझसे जुबान लडाने लगे हो।"
"नहीं ।आप मुझे गलत समझ रहे हैं।"
"अच्छा तो  मैं गलत समझ रहा हूँ और जो तुम्हारी पत्नी कर रही है वह सही है।"
"बहुत हो चुका पापा। अब मैं और यह सब नहीं झेल सकता। और न ही सही और गलत का फ़ैसला करना चाहता हूँ ।"
"मतलब।"
मतलब अब मैं इस घर में और नहीं रह सकता। हम लोग जल्द ही आपका यह घर खाली कर देंगे।"
" ठीक है,जैसी तुम्हारी मर्जी।"

आवेश में आकर मनीष ने जो कुछ कहा, उसे सुनकर संजना के सास -ससुर के पैरों तले जमीन खिसक  गयी। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मनीष इतना बड़ा कदम उठा लेगा।

उन्हें लगा कि कुछ दिनों में जब मनीष का क्रोध शांत हो जाएगा तो अपने आप घर छोड़ने का विचार छोड देगा। परन्तु शायद उन्होने कभी नहीं सोचा था कि उनका बरताव  धीरे-धीरे उन्हें अपने बेटे से दूर कर रहा था।

आज संजना भले ही अपने सास ससुर से अलग दूसरे मकान में रहती है पर उसके मन में यह टीस हमेशा रहती है कि वह अपने परिवार से दूर है।

मिहीका जैसी लड़कियाँ अपने मायके में दखलंदाजी न करें तो शायद उनका मायका भी सुखी रहे।


'सबरंग क्षितिज :विधा संगम ' से उद्धृत कहानी 




गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

मृत हूँ मैं!




हमेशा से ऐसा ही तो था

हाँ.. हमेशा से ऐसा ही था
जैसा आज हूँ मैं
न कभी बदला था मैं
और ना ही कभी बदलूंगा
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मेरे पास...
आत्मा तो कभी थी ही नहीं
भीड़ के साथ चलता हुआ
एक आदमी हूँ मैं
हाँ.. आदमी ही हूँ
पर विवेक शून्य हूँ मैं
क्योंकि... मृत हूँ मैं!

देखता हूँ  शराबी पति को
बड़ी बेरहमी से,  पत्नी को
मारते हुए, दुत्कारते हुए
पर.. मैं कुछ नहीं करता
'ये उनका आपसी मसला है!'
कहकर पल्ला झाड़ लेता हूँ मैं
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

मेरी आँखों के सामने
किसी मासूम की आबरू लुटती है
और मैं.. निरीह सा खड़ा होकर देखता हूँ..
न जाने क्या सोचता हूँ
मेरे अंतस का धृतराष्ट्र
कुछ नहीं करता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

पर जब बारी आती है
कैंडल मार्च की
तो मैं भी.. कभी - कभार,
हाँ.. कभी- कभार अपनी उपस्थिति
दर्ज करवाने से पीछे नहीं हटता
और कभी - कभार तो
दूसरों से प्रभावित होकर
उनकी राय को
एक सुंदर - सा
लबादा पहनाकर
उसे अपनी राय बना देता हूँ..
मेरी अपनी कोई राय नहीं..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

आठ बजे से छह बजे की नौकरी
में ही तो मेरा अस्तित्व  है
मैं किसी और के लिए
जी ही नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

कोई अम्बुलंस
बगल से जा रही हो
तो मैं.. उसे जाने का रास्ता नहीं देता
अरे.. उसी जैसा तो मैं भी हूँ न
अचेतन..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मेरे ही आँखों के सामने
सरेआम.. कोई शहीद हो जाता है..
कोई गोलियों से भून दिया जाता है..
और मैं कुछ नहीं कर पाता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

देश के लिए मर मिटने की जिम्मेदारी
मेरे कंधों पर थोड़े ही है
वो काम तो सिपाहियों का है
आखिर.. इस देश से मुझे मिला ही क्या है
नहीं भाई...यह सब तो
मैं सोच भी नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

नेताओं को गाली देना
तो जन्म सिद्ध अधिकार है मेरा
पर एक अच्छा नेता बनकर
देश की कमान संभालना..
उसे ऊंचाई पर ले जाना..
मेरा काम नहीं है
चुनाव के दिन छुट्टी
समझ में आती है मुझे
पर वोट करना नहीं समझता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मैं ,मेरा के आगे..
मुझे दुनिया दिखाई नहीं देती
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

और शायद..हमेशा
ऐसा ही रहूँगा मैं
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

हाँ.. मृत हूँ मैं!

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

कुलदीपक




कितना अच्छा है
कि मैं लड़का नहीं हूँ.

भले ही मेरे पापा,
मेरे भाई से
सबसे अधिक प्यार करते हैं
और हमें बोझ समझते हैं .
भले ही उनका सारा लाड - प्यार
सिर्फ उसे ही मिलता है .
और वह पापा से बिलकुल नहीं डरता
उसे बताया गया है कि
वह उनके कुल का दीपक है.
उसे गर्व है इस बात का.

उसकी गलती पर जब माँ,
उसे डाँटती है तो वह पापा से
उनकी शिकायत करता है.
उसकी हर जिद पूरी होती है.
घर में सिर्फ उसकी ही तो चलती है.
वह जो  कुछ चाहता है
उसे झट से मिल जाता है.
उसकी सभी उचित- अनुचित
मांगें पूरी हो जाती हैं.
बाइक, कार सबकी चाबियां
उसी के पास तो होतीं हैं.

अगर मम्मी या दीदी
उसे किसी बात पर
रोकती - टोकती हैं तो
वह उनको पापा की
डाँट खिलवाता है.
वह फ़ेल होता है तब भी,
उसे प्यार से समझाया जाता है.

उसे समझाया जाता है कि...
"उनकी सारी जायदाद
उसकी ही तो है फिर भी
थोडी - बहुत पढ़ाई
उसे कर ही लेनी चाहिए.
बहनें तो एक- न - एक दिन
अपने ससुराल चली जाएँगी."
यह सुनते ही
उसकी खुशी का
कोई ठिकाना नहीं होता है.
बचपन से लेकर बड़े होने तक
बार - बार और न जाने
कितनी ही बार तो
उसके कानों ने यह सुना था.
पर
बहुत अच्छा है कि
मैं लड़का नहीं हूँ.
मैं उस जैसा लड़का
नहीं बनना चाहती.
वह जब चाहे रुपए
जुए में उड़ा देता है.
अच्छा है कि मैं लड़की हूँ
अपने पिता की कमाई
जुए में उड़ाने का विचार
मेरे मन में कदापि नहीं आता.
मैं उसकी तरह घर में
शराब पीकर नहीं आ सकती.
वह कभी- कभार
माँ के साथ- साथ पापा को भी
गालियाँ बक देता है.
उन्हें बुरा - भला कहता है.
उन्हें नीचा दिखाने में
कोई कसर नहीं छोड़ता
पर मैं ऐसा न कर पाती. .

उसके बिगड़ने का दोष
माँ पर ही तो लगता है सदा
अगर मैं लड़का होती
तो कतई नहीं चाहती कि
मेरे बिगड़ने का इल्जाम
मेरी माँ पर आए.
अच्छा है कि मैं लड़का
नहीं हूँ क्योंकि
पापा कि डाँट
जब माँ को मिलती है
तो उसे बहुत मजा आता है.
मुझे बिलकुल न अच्छा लगता
कि मेरी गलती की सजा
मेरी माँ को मिले.

ख़ुश हूँ मैं कि
मैं लड़का नहीं हूँ.
अच्छा है कि मैं
अपने पापा के कुल का
दीपक नहीं हूँ.
नहीं बनना मुझे
ऐसा कुलदीपक
जो अपनी घृणित मानसिकता
के चलते अपने ही
घर में आग लगा दे.
अपने आगे किसी को
कुछ न समझे
छोटे - बड़े का लिहाज भूल जाए.

अच्छा है कि लड़की हूँ मैं .
मुझपर कुछ पाबंदियां हैं.
शायद इसलिए
मुझे अपनी सीमाएँ पता है
जिन्हे मैंने कभी नहीं लांघा.
अपने दायरे में रहकर
जीने की कला सीखी पर.......

दुख होता है कि...
माँ डरती है
अपनी ही कोख की औलाद से
और तो और अब पापा भी
डरने लगे हैं उससे.





शनिवार, 15 अगस्त 2015

हक़ीकत (व्यंग्य )

समाज की कड़वी हकीकत का एक पहलू जहाँ लड़कियों को कोख में ही मार दिया जाता है वहीँ कुछ घरो में बेटी को पालना मजबूरी बन जाती है। बेटे को घर का चिराग मानकर उसकी हर गलती और हर गुनाह को नादानी समझकर छोड़ दिया जाता है। उसे व्यंग्य रूप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है  -

एक दिन एक जवान बेटे ने अपने पिता से कहा, " पिताजी !मुझे मेरी बहन का कलेजा चाहिए।"

पिताजी ,"बेटा !कुछ  दिन रुक जा।  अभी उसे अपने ससुराल से आ जाने दे।"

बेटा,"ठीक है पिताजी! तो अपना कालेजा ही दे दो।

पिताजी,"मैं अपना कलेजा दे दूँ ।बेटा! ऐसा मजाक नहीं करते ।तू चिंता क्यों करता है? मेरे मरने के बाद सब कुछ तेरा ही तो है।

बेटा,"और अगर मेरी बहन ने कुछ माँगा तो। "

पिताजी," वो कैसे मांगेगी? मैं सबकुछ तुझे ही दूँगा। वो तो पराई थी ।अपने घर चली गई ।जान छूटी।"

बेटा," हा पिताजी! वो मुझे अच्छी  नहीं लगती।

पिताजी,"क्या करे । तू अगर पहले पैदा होता तो  तेरी बहन को  मैं संसार में आने ही नहीं देता।
मुझे उसकी शादी के लिए कितना दहेज़ देना पड़ा।अच्छा हुआ जल्दी से उसकी शादी
हो गई।"

बेटा," पर पिताजी आप जल्दी क्यों नही मरते मुझे आपकी तस्वीर पर हार चढ़ाना है।

पिताजी,"बेटा ऐसा नहीं कहते ।अभी तो तू बहुत छोटा है  ।थोडा बड़ा होगा तो समझने लगेगा।जा ,जाकर सो जा । कुछ दिनों में तेरी बहन आ जायेगी। तब देखेंगे क्या करना है।"

बेटा," नहीं पिताजी !अभी मुझे अपने दोस्तों से मिलने जाना है।

पिताजी," रोज की तरह रात के दो बजे  मत आना। मुझे तेरी फ़िक्र होती है ।इसलिए जल्दी  आ जाना वरना मुझे कल की तरह फिर नीन्द नहीं आएगी।"

बेटा," अरे! आप सो जाओ न।मैं आ जाऊँगा।"
और वह नशे की हालत में धुत होकर  घर लौटा लेकिन.... अगली सुबह।