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गुरुवार, 11 जनवरी 2018

उस दिन  - कथाकाव्य 



उस दिन भोजन पकाकर
पसीने से तर-ब-तर बहू ने
कुछ ठंडी हवा खाने की चाह में
रसोई की खिड़की से बाहर झाँका ही था
कि पूरे घर में खलबली सी मच गई।
ससुर जी जोर- से झल्लाए.
सासू माँ का हाथ पकड़ रसोई में ले आए
और बोले,
"इसके चाल चलन में खोट है!क्या तुम्हें नजर नहीं आता!  ये बाहर गाड़ी में बैठे ड्राइवर को ताक रही थी। अगुआ ने तो नाक ही काट ली हमारी।
ऐसे बुरे चाल- चलन वाली लड़की को हमारे मत्थे मढ़ दिया।
आने दो शाम को बताता हूँ  तुम्हारे बेटे को
 कि क्या - क्या कार-गुजारियाँ
रसोई की खिड़की से होती है!  "
सुनकर ससुर की बात
बहू वही थर - थर काँप रही थी।
संस्कारों में बंधी थी।
बड़ों के मुंह लगने की आदत न थी।
सो जवाब कुछ न दे पाई.
भागी - भागी अपने कमरे में आई और तकिये में मुंह छिपाए रोने लगी.
आँखों  से आँसू भर - भर गिरते थे,
जो थमने का नाम ही नहीं  लेते थे.
कहती भी क्या?
जब से शादी करके
इस घर की दहलीज के भीतर आई थी.
मानो ससुराल वालों ने
एक परमानेन्ट नौकरानी पाई थी.
रोज की झिड़की और तानों की आदत हो गई थी.
उम्र कम थी .
मानो बाल विवाह ही था.
मायके में पिता से डरती थी.
ससुराल में ससुर की चलती थी.
बेचारा पति उससे प्यार तो करता था
पर वह भी अपने पिता से खूब डरता था
घर में उसका भी
न कोई मान था, न सम्मान था.
वह तो पिता के इशारों का गुलाम था.

रात को थका - हारा पति घर लौटा।  जूते उतार कर कपड़े बदलने के लिए कमरे की ओर मुड़ा ही था कि क्रोध में भरे पिता ने उसे आवाज लगाई.
"आइए! अपनी बीवी की करतूत सुनिए. (व्यंग्‍य भरे लहजे में. )
दिन -भर रसोई की खिड़की में खड़े - खड़े गैर मर्दों से नैन - मटक्का करती है।  अब हमसे और नहीं संभाला जाता।  आप अपनी बीवी को इनके मायके छोड़ आइए या नौकरी - वौकरी छोड़ कर इनकी खिदमत में जुट जाईये!
मैं कहता हूँ - देख लेना सबके सब! कल को यही होगा, ये लड़का पंद्रह दिन अपनी नौकरी करेगा और पंद्रह दिन, अपनी बीवी की रखवाली!  "
इस तरह खूब खरी- खोटी सुनाकर पिताजी अपने कमरे में चल दिए।
बेचारे पति के मुंह से एक शब्द न फूटा।
पत्नी की आँख के आंसू जो शाम होते - होते
 कुछ थम  गए थे, वे फिर बह निकले थे। पत्नी ने बाहर आकर भोजन परोसा।
पर भूखे- प्यासे पति के गले से खाने का एक भी निवाला न उतरा। पत्नी के आँसू और तेजी से बह निकले।  इस घर में उसे अपना भविष्य साफ- साफ नजर आ रहा था और पति बेचारा अपने सिर पर हाथ रखे रात- भर न जाने क्या सोचता रहा।








मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

कलयुग या झूठ युग?

भागती रही जिससे मैं हमेशा!
जिससे हमेशा लड़ती रही!
वही झूठ न जाने क्यूँ मुझे अपनी ओर खींच रहा है!

क्यूँ अब मुझे वही सच लगने लगा है!
क्यूँ यह झूठ चीख चीख कर मुझसे कहता है  कि
हर ओर आज उसी का बोलबाला है!
वही आज की सच्चाई है!
 
क्यूँ वह पूछता है  मुझसे...
कि आखिर..
इस सच से तुझे मिला ही क्या है?
सच ने तुझे दिया ही क्या है?

इस प्रश्न ने मुझे मूक कर दिया!
और सोचने पर मजबूर कर दिया!
ये कलयुग है या झूठ युग  है!
क्या  सचमुच ..
सच आज दुर्बल हो गया है!
क्या सच का साथ  छोड़  दूँ और
झूठ का दामन थाम लूँ

आखिर.. दुनिया यू ही तो दीवानी नहीं झूठ के पीछे!

ठीक ही  तो है...
सोच रही  हू  कि..  झूठ  ही  कहूँ  और  झूठ  ही लिखूं ..
लिखूं
कि शिक्षक  हूँ.. फिर भी  खूब अमीर हूँ!
अपने  लिए समय ही समय  है मेरे पास!
लिखूं  कि  एक बहुत  अच्छी  जिन्दगी  जी  रही  हूँ
लिखूं  कि सच  का साथ  देकर..
मैंने  बहुत कुछ पाया है!
लिखूं  की शिक्षक हूँ कोई  गुलाम  नहीं!
लिखूं कि  इस युग मे भी विद्यार्थी  अपने शिक्षको  को मान-सम्मान  देते हैं!
लिखूं  कि मैंने अपने बच्चो को  वो  सब  दिया है जो  धनाढ्य  घरों के  बच्चों को आसानी से  मिल जाता है!
लिखूं  कि मेरे  बच्चे  किसी  मामूली सी  वस्तु के लिए  तरसते  नहीं है!
लिखूं की मेरा परिवार  मेरे  पेशे  से खुश हैं!सोच रही हूँ कि आखिर क्या क्या  लिखूं  और  क्या क्या  कहूँ क्या  क्या  छोड़ूं?

 क्या  सचमुच  दिल से यह सब कभी लिख  पाऊँगी!
क्या सचमुच झूठ को अपना पाऊँगी!
नहीं..
यह मुझसे  नहीं हो पाएगा!
कभी नहीं हो पाएगा!


सुधा सिंह