नवगीत:2
तड़पे ओजहीन हो वसुधा
तड़पे ओजहीन हो वसुधा
रसमय स्नेह सुधा बरसाना
निर्दयता हृदय में धरकर
बिसरे सुरभित कुसुम खिलाना
1
छालों से आहत अंतस है
उलझन में है कटता जीवन
सुखद पवन आँधी बन आई
उजड़ गए हैं मन के उपवन
दुष्चक्रों की अग्नि लटा में
छोड़ो अब हमको झुलसाना
तड़पे ओजहीन हो वसुधा......
2
अँधियारे ने पाँव पसारे
आशा की नहीं दिखे उजास
पतझड़ का चहुँ ओर राज है
लुप्त है क्यों मेरा आकाश
काल चक्र निर्धारित करके
भूल चुके क्या याद दिलाना
तड़पे ओजहीन हो वसुधा......
3
मानवता विधि पर रोती है
अब उसका अस्तित्व बचा ना
लोभ मोह माया में फँसकर
मक्कारी का गाये गाना
क्यों ये खेल रचाया विधना
सद्कर्मों की राह सुझाना
तड़पे ओजहीन हो वसुधा......
सुधा सिंह 'व्याघ्र'