यक्ष प्रश्न
जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,
और बढ़ जाती हूँ एक कदम
आगे की ओर
सोचती हूँ कदाचित
इस पथ पर कोई वाजिब जवाब
जरूर मिल जायेगा।
पर न जाने किस शून्य में
विचरण करके एक नए प्रश्न के साथ
वह तीर मेरे सामने दोबारा
उपस्थित हो जाता है
एक यक्ष प्रश्न-सा..
जो भटक रहा है अपने युधिष्ठिर की तलाश में
और तलाश रहा है मुझमें ही
अपने उत्तरों को..
और मैं नकुल, सहदेव, भीम आदि की भाँति
खड़ी हूँ अचेत, निशब्द,
किंकर्तव्य विमूढ़,
सभी उत्तरों से अनभिज्ञ.
'यक्षप्रश्नों' की यह लड़ी
कड़ी दर कड़ी जुड़ती चली जा रही है.
कब होगा इसका अंत, अनजान हूँ
"कब बना पाऊँगी स्वयं को युधिष्ठिर"
यह भी अनुत्तरित है.
हर क्षण, यक्ष, एक नया प्रश्न शर,
छोड़ता है मेरे लिए.
पर प्रश्नों की इस लंबी कड़ी को
बींधना अब असंभव- सा
क्यों प्रतीत हो रहा है मुझे .
न जाने, मैं किस सरोवर का
जल ग्रहण कर रही हूँ
जो मेरे भीतर के युधिष्ठिर को
सुप्तावस्था में जाने की
आवश्यकता पड़ गई !
क्यों युधिष्ठिर ने भी
चारों पाण्डवों की भांति
गहन निद्रा का वरण कर लिया है!
कब करेगा वह अपनी
इस चिर निद्रा का परित्याग!
और करेगा भी कि नहीं!
कहीं यह प्रश्न भी
अनुत्तरित ही न रह जाए!
सुधा सिंह 🦋