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बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

बुलबुला पानी का






 मेरे ख्वाबों का वो  जहान
प्रतिदिन प्रतिपल टूटता है, फूटता है
और फिर बिखर जाता है ...
हो जाता है विलीन
एक अनंत में
एक असीम में...
तुच्छता, अनवस्था,
व्यर्थता का एहसास लिए ...
खोजना चाहता है
अपने अस्तित्व को..
पर सारे प्रयास, सारे जतन
हो जाते हैं नाकाम
तब... जब अगले ही पल में
अचानक से परिलक्षित
होने लगता है वही बदरंग परिदृश्य..
और शुरू हो जाती है
जद्दोजहद ख़ुद को पाने की
खुद को तलाशने की
और तलाश के उस दौर में
अंततः भीड़ का हिस्सा
बनकर रह जाने की अवस्था में ..
जैसे कोई बुलबुला पानी का
सतरंगी आभा का वह गोल घेरा....
जो एक पल सम्पूर्णता का एहसास कराता है
और फिर दूसरे ही पल,
 फूटते ही फैल जाती है शून्यता.....

सुधा सिंह 🦋 

रविवार, 22 अक्तूबर 2017

मैं अकेली थी


जरूरत थी मुझे तुम्हारी
पर..... पर तुम नहीं थे!
मैं अकेली थी!
तुम कहीं नहीं थे!

केवल तुम्हारी आरजू थी!
तुम्हारी जुस्तजू थी!
जो मुझे कचोट रही थी!
अकुलाहट, व्याकुलता के अँधेरों में घिरी हुई  मैं! तुम्हें खोज रही थी!
वो अंधेरा जब मुझे अपनी आगोश में समाहित करने को उतावला था!
मैं  बेचैन थी, छटपटा रही थी!
तुम्हारा संबल तलाश रही थी!
तुम्हारा साया भी मुझे,
तब अपने आसपास नजर नहीं आया !
तुम्हारी कसमें, तुम्हारे वादे,
आज सब बेमानी हो गए !

मेरे विश्वास को आहत किया तुमने !
एक बार नहीं, कई - कई बार!
हां! कई- कई बार  टूटी हूँ मैं!
कई- कई बार बिखरी हूँ मैं!
फिर भी खुद को समेटा है मैंने !
तुम्हारे घात ने,
मुझे हर बार पटका है जमीं पर,
पर फिर मैं अकेले संभली हूँ!
उग जाती हूँ मैं फिर से,
उस घास की तरह!
जिसे...
जिसे हर बार उखाड़ कर फेंक दिया जाता है,
मेड़ के उस पार अपनी मिट्टी से दूर!
शायद यही विधाता का लेख है!
शायद यही मेरी नियति है!
बार बार ठोकर खाना,
और फिर दोबारा,
एक सुखमय जीवन की आस करना!

चित्र साभार गूगल







शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

तलाश

तलाश
कुछ समझ नही आता जिंदगी....
तेरी गिनती दोस्तों में करूँ
या दुश्मनों में !
चिड़ियों की मानिंद दर रोज,
घोंसलों से दाने की खोज में निकलना।
फिर थक हार कर,
अपने नीड़ को वापस लौटना।
क्या केवल इसे ही नियति कहते हैं।
क्या केवल यही जिंदगी है।
आखिर तेरे कितने रंग हैं!
पर,
ऐ जिंदगी...
अब बहुत हो चुका.......
मैं अपने लिए थोड़ा वक़्त चाहती हूँ।
मैं थोड़ा सुकून चाहती हूँ
खुद को तलाशना चाहती हूँ।
खुद को पाना चाहती हूँ।
©सुधा सिंह~~

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

वो शख्स कहाँ से लाऊँ ! !


दिल अपना  चीरकर किसे दिखाऊँ,
जो इसे समझ सके,
वो शख्स कहाँ से लाऊँ ! !
जो  मेरे  लफ्ज़ों को,  तराज़ू में न तोले
जो मुझे  समझ  ले, मेरे  बिन बोले ॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
जो मुझपर ,
अपना अटूट विश्वास दिखा सके ॥
जो तहेदिल से बेझिझक,
मुझे अपने गले से लगा  सके॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
जो  मेरे एहसास  का एहसास  कर सके,
जो सदैव ,
मुझे अपनी  कलयुगी निगाहों  से न  देखे॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
जो हर पल मुझे ,
अपने साथ  होने  का  एहसास  दे॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
वह
जो  मेरी  उखड़ती हुई सांसों को,
नवजीवन  की आस दे॥
 वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !