एक ओर अकाल की आहट है,
एक ओर प्रलयकारी वर्षा।
हम सबकी ऐसी करनी है
जिसकी हमको मिल रही सजा ।
थक गई है धरती सब सहकर
ईश्वर को है दे रही सदा........,
"करके तन - मन मेरा छलनी,
हँसते हैं ,आती ना लज्जा।
इनकी बुद्धि है भ्रष्ट हुई,
ये मुझे न अपने लगते हैं।
जो अपनी माँ पर जुल्म करे,
क्या इनको 'बेटा' कहते हैं।
इंसान की कोख के रोग हैं ये,
दानव की भाँति लड़ते हैं।
आँखों में इनकी शर्म नहीं,
आपस में जंग ये करते है।
मानवता रोती फूट- फूट कर,
इनकी ऐसी हरकत है।
हर अंग मेरा सिसकता है,
आतंक की इतनी दहशत है।
सिरिया हो ,या फ्रांस हो,
हर जगह पे रक्त बहाया है।
मेरी प्यारी मुम्बई पर भी,
कसाबों का पड़ता साया है।
घटिया सोच से ग्रसित हैं ये ,
क्यों रक्त पान ये करते हैं।
पाला न पड़ा संस्कारों से ,
धरमों की दुहाई देते हैं।
लाशों के सीने पे चढ़कर,
नाच गान ये करते हैं।
हो गई इंतेहा जुल्मों की,
ये सबसे नफ़रत करते हैं।
रिश्तों में कोई मिठास नहीं,
कटुता ही कटुता छाई है।
मुख में राम बगल छूरी,
ये रीत सभी को भाई है।
अब यह सब बर्दाश्त नहीं होता,
मन करता है संहार करूँ।
हो गई है हद अब सहने की,
इतना सब आखिर क्यों मैं सहूँ।
अकाल हो सुनामी हो ,
चाहे ग्लोबल वार्मिंग हो,
नित नए रूप मैं दिखाऊंगी।
इनको इनकी करनी का फल,
अब किसी भी हाल चखाऊँगी।
अपनी नई संतति को ,
अब नर्क भेंट में ये देंगे।
तब तक उत्पात मचाऊंगी,
जब तक न सबक ये सीखेंगे।"
सुधा सिंह
एक ओर प्रलयकारी वर्षा।
हम सबकी ऐसी करनी है
जिसकी हमको मिल रही सजा ।
थक गई है धरती सब सहकर
ईश्वर को है दे रही सदा........,
"करके तन - मन मेरा छलनी,
हँसते हैं ,आती ना लज्जा।
इनकी बुद्धि है भ्रष्ट हुई,
ये मुझे न अपने लगते हैं।
जो अपनी माँ पर जुल्म करे,
क्या इनको 'बेटा' कहते हैं।
इंसान की कोख के रोग हैं ये,
दानव की भाँति लड़ते हैं।
आँखों में इनकी शर्म नहीं,
आपस में जंग ये करते है।
मानवता रोती फूट- फूट कर,
इनकी ऐसी हरकत है।
हर अंग मेरा सिसकता है,
आतंक की इतनी दहशत है।
सिरिया हो ,या फ्रांस हो,
हर जगह पे रक्त बहाया है।
मेरी प्यारी मुम्बई पर भी,
कसाबों का पड़ता साया है।
घटिया सोच से ग्रसित हैं ये ,
क्यों रक्त पान ये करते हैं।
पाला न पड़ा संस्कारों से ,
धरमों की दुहाई देते हैं।
लाशों के सीने पे चढ़कर,
नाच गान ये करते हैं।
हो गई इंतेहा जुल्मों की,
ये सबसे नफ़रत करते हैं।
रिश्तों में कोई मिठास नहीं,
कटुता ही कटुता छाई है।
मुख में राम बगल छूरी,
ये रीत सभी को भाई है।
अब यह सब बर्दाश्त नहीं होता,
मन करता है संहार करूँ।
हो गई है हद अब सहने की,
इतना सब आखिर क्यों मैं सहूँ।
अकाल हो सुनामी हो ,
चाहे ग्लोबल वार्मिंग हो,
नित नए रूप मैं दिखाऊंगी।
इनको इनकी करनी का फल,
अब किसी भी हाल चखाऊँगी।
अपनी नई संतति को ,
अब नर्क भेंट में ये देंगे।
तब तक उत्पात मचाऊंगी,
जब तक न सबक ये सीखेंगे।"
सुधा सिंह