तुम कहाँ हो भद्र???
उस दिन मन निकालकर
कोरे काग़ज़ पर
बड़ी सुघड़ता से रख दिया था मैंने।
सोचा था किसी दृष्टि पड़ेगी तो
अवश्य ही मेरे मन की ओर
आकर्षित हो वह भद्र
उसे यथोपचार देकर
अपने स्नेह धर्म का
निर्वहन करेगा।
पल बीते, क्षण बीते,
बीती घड़ियाँ और साल।
मन बाट जोहता रहा किन्तु
भद्र के पद चिह्न भी लक्षित नहीं हुए ।
(भद्र यथा संभव काल्पनिक पात्र है।)
मन पर धूल की परत चढ़ती रही
और मन अब अत्यंत मलिन,
कठोर और कलुषित हो चुका है।
#@sudha singh