इन पेड़ों, पहाड़ों, झरनों,
नदियों और बियाबानों
के विशालतम अस्तित्व
के समक्ष तृण- सी बौनी मैं
इनमें ही विलीन हो
पहुँचूँगी इक दिन
शून्य के सर्वोच्च शिखर पर।
समा जाएगा धुन्ध में
मेरी देह का एक - एक कण,
गिरुँगी मैं फिर बनकर प्रालेय
और भिगाउँगी नव कोपलों को,
करूँगी शांत तृषित जीवों को,
सबकी आँखों से ओझल,
प्रकृति के स्नेह सिक्त अंचल में,
चिर निद्रा की सुखद अनुभूति लिए,
मैं विचरुँगी अवचेतना के संग।
किन्तु,
किन्तु कैसे कर दूँ अवमानना
उस जगत नियंता की
जिसने तय किया है
उस अहसास से पहले
इहलोक में अपने अपनों के लिए जीने का
इसलिए खो जाने से पहले
खोजना है मुझे स्व को,
परमार्थ को,
लक्ष को नहीं,
किंतु नियत लक्ष्य को।
सुधा सिंह 'व्याघ्र' ✍️
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