सोमवार, 28 जनवरी 2019

पथिक अहो...



पथिक अहो.....
मत व्याकुल हो!!!
डर से न डरो
न आकुल हो।
नव पथ का तुम संधान करो
और ध्येय पर अपने ध्यान धरो ।

नहीं सहज है उसपर चल पाना।
तुमने है जो यह मार्ग चुना।
शूल कंटकों से शोभित
यह मार्ग अति ही दुर्गम है ।
किंतु यहीं तो पिपासा और
पिपासार्त का संगम है ।

न विस्मृत हो कि बारंबार
रक्त रंजित होगा पग पग।
और छलनी होगा हिय जब तब।

बहुधा होगी पराजय अनुभूत।
और बलिवेदी पर स्पृहा आहूत।

यही लक्ष्य का तुम्हारे
सोपान है प्रथम।
इहेतुक न शिथिल हो
न हो क्लांत तुम।

जागृत अवस्था में भी
जो सुषुप्त हैं।
सभी संवेदनाएँ
जिनकी लुप्त हैं।
कर्महीन होकर रहते जो
सदा - सदा संतप्त हैं ।
न बनो तुम उनसा
जो हो गए पथभ्रष्ट हैं ।

बढ़ो मार्ग पर, होकर निश्चिंत।
असमंजस में, न रहो किंचित।
थोड़ा धीर धरो, न अधीर बनो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।

पथिक अहो, मत व्याकुल हो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।

सुधा सिंह 📝

रविवार, 27 जनवरी 2019

यह भी तो कहो.....




ठहरो!!!
मेरे बारे में कोई धारणा न बनाओ।
यह आवश्यक तो नहीं,
कि जो तुम्हें पसंद है,
मैं भी उसे पसंद करूँ।
मेरा और तुम्हारा
परिप्रेक्ष्य समान हो,
ऐसा कहीं लिखा भी तो नहीं।

हर जड़, हर चेतन को लेकर
मेरी धारणा, अवधारणा
यदि तुमसे भिन्न है...
तो क्या तुम्हें अधिकार है
कि तुम मुझे अपनी दृष्टि
में हीन समझ लो।

जिसे तुम उत्कृष्टता
के साँचे में तौलते हो,
कदाचित् मेरे लिए वह
अनुपयोगी भी हो सकता है।
तुम्हें पूरा अधिकार है
कि तुम अपना दृष्टिकोण
मेरे सामने रखो।
परन्तु मेरे दृष्टिकोण को गलत
ठहराना क्या उचित है??
क्या मैंने अपने कर्मों
और कर्तव्यों का
भली- भाँति
निर्वाहन नहीं किया???
क्यों मेरा स्त्रीत्व
तुम्हें अपने पुरुषत्व
के आगे हीन जान पड़ता है??
आख़िर कब तक मैं
अपने अस्तित्व के लिए तुमसे लडूंँ??
और यह भी तो कहो कि
अगर मेरा अस्तित्व खत्म हो गया
तो क्या तुम
अपना अस्तित्व तलाश पाओगे???


 सुधा सिंह 📝




गुरुवार, 24 जनवरी 2019

कोल्हू का बैल

कोल्हू का बैल


बैल है वह कोल्हू का
नधा रहता है सतत
विचारशून्‍य हो कोल्हू में .

कुदरत की रंगीनियों से अनजान
स्याह उमस भरी चारदीवारी के भीतर
कोल्हू के इर्दगिर्द की उसकी छोटी सी दुनिया.
जहाँ से शुरू, वहीं खत्म
उसकी नियति है जुते रहना
अहर्निश अनवरत.

ईश्वर प्रदत्त एक जीभ का
स्वामीत्व प्राप्त तो है
पर रंभाने का भी अधिकार उसे कहाँ??
उसके प्रयोग से अनभिज्ञ,
रूखा - सूखा खाने वाला,
हरियाली से अपरिचित वह..

बिसर गया कि...
उसमें भी सारे गुणधर्म सांड वाले ही थे.
वह भी मनमानी कर सकता है.
जो चाहे कर सकता है.
जहाँ चाहे जा सकता है.

अपनी इन असीम शक्तियों से
अनजान यह गुलाम
जब पिसता है
अपन किस्मत के साँचे में
पेराता है तब तेल
और निकलती है
तेल की पतली महीन धार.
और श्रेय ले जाता है कोई और
जिसे 'तेली ' कहते हैं...


सुधा सिंह 📝 नवी मुंबई




शनिवार, 19 जनवरी 2019

तहरीर



तहरीर

अपने हाथों से अपनी तकदीर लिखनी है
अब मुझे एक नई तहरीर लिखनी है।

डूबेगी नहीं मेरी कश्ती साहिल पे आके
समंदर के आकिबत अब जंजीर लिखनी है ।

जिनकी कोशिश थी हरदम झुके हम रहें
उनके हिस्से अब अपनी तासीर लिखनी है ।

रहे ताउम्र लड़ते गुरबतों में तूफानों से जो
देके मुस्कान उन्हें मंद समीर लिखनी है ।

रूसवा होते रहे जो आशिक महफ़िलों में सदा
इज्जत-ओ-एहताराम उनकी नजीर लिखनी है।

होश हो जाए फाख्ता मुल्क के गद्दारों के
कुछ ऐसी अब मुझे तदबीर लिखनी है।

आफताब बन चमके नाम- ए- हिन्दोस्तां 'सुधा'
तहजीब की एक ऐसी जागीर लिखनी है।



*आक़िबत= अन्त, परिणाम, भविष्य
तदबीर =तरकीब, युक्ति


सुधा सिंह 📝


शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

मर्जी तो मेरी ही चलेगी......


आज कल वो रोज मिलने लगा है.
बेवक्त ही, आकर खड़ा हो जाता है
मेरी दहलीज पर.
"कहता है- तुम्हारे पास ही रहूँगा.
बड़ा लगाव है, बड़ा स्नेह है तुमसे."

पर मुझे उससे प्यार नहीं.
भला एक तरफ़ा प्यार
कौन स्वीकार करेगा .
मुझे भी स्वीकार नहीं.

हाँ, थोड़ी बहुत जान - पहचान है उससे.
पर यूँ ही... हर किसी से
थोड़े ही दिल लगाया जाता है.

जब - तब झिड़क देती हूँ.
उसे दुत्कार भी देती हूँ,
पर 'हिकना' है वो.
मानता ही नहीं.

जतन तो कई किए मैंने
उसे अपने से दूर करने के.
पर, आ जाता है मुँह उठाए."
और अड़ा रहता है  बेलौस सा.

बस मेरे पीछे ही पड़ गया है.
बड़ा नामुराद है वो साहब

कहता है- 'दर्द हूँ मैं.
कर लो कुछ भी,
मर्जी तो मेरी ही चलेगी."

📝 सुधा सिंह ♥



**'हिकना' (देशज शब्‍द ) - जो किसी की नहीं सुनता,
अपने मन की बात सुनने वाला.

शनिवार, 12 जनवरी 2019

मेघना शिर्के..... (कहानी )



मेघना शिर्के .....

(कहते , "मेघू, थोड़ा कम बटर लगाया कर। " पर इन सबसे मेघना को कोई फर्क न पड़ता। बस कभी- कभार मुंह गिराकर उदासी भरे स्वर में शिकायत करती - "मैम देखिए न, ये सब मुझे 'चमची' कहकर चिढ़ाते हैं। ")


गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म हो गई थी।विद्यालय का पहला दिन था। सभी बच्चों में एक नया उत्साह, नया जोश नजर आ रहा था। एक दूसरे से बहुत दिन बाद मिले थे तो बातें करने में मशगूल थे। चहल पहल इतनी बढ़ गई थी मानो स्कूल की खामोश दीवारें भी बोलने लगी थी।

घंटी बजते ही कक्षा अध्यापिका रेवती ने अपनी कक्षा में प्रवेश किया। हाजिरी लेने लगी तो  उसे पता चला कि मेघना शिर्के आज विद्यालय नहीं आई है। मन में आया कि शायद वह छुट्टी से अभी तक लौटी नहीं होगी, एक दो दिन में तो आ ही जाएगी। इहेतुक कक्षा के बाकी विद्यार्थियों से पूछने की आवश्यकता भी उसे महसूस नहीं हुई।

तीन दिन के बाद जब चपरासी कक्षाध्यापिका होने के नाते रेवती के हस्ताक्षर लेने आया तब उसे ज्ञात हुआ कि उसने तो विद्यालय में लीविंग सर्टिफिकेट के लिए अर्जी दे दी है।

रेवती हतप्रभ थी । हस्ताक्षर तो उसने कर दिए पर बार - बार यह सवाल उसके दिमाग में तीर की तरह चुभ रहा था कि मेघना विद्यालय क्यों छोड़ना चाहती है? आखि़र ऐसी क्या बात हो गई?

रेवती की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी इसलिए उसने उसकी ही कक्षा की सबसे करीबी सहेली मान्या से पूछताछ की। मान्या ने सारा माजरा खुल कर बता दिया। रेवती भीतर ही भीतर दहल गई।
ग्यारह साल की मासूम बच्ची जो सदैव मुस्कुराती रहती थी, कोई नहीं जानता था कि उसके हृदय में दर्द के कितने फफोले पड़े थे। इस उम्र में इतना सब कुछ देख लेना फिर भी चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आने देना, बिलकुल मामूली नहीं था।

गेहुंंआ रंग, पतली- दुबली काया वाली मेघना, हर टीचर की चहेती और और कक्षा की सबसे मेधावी छात्र थी । हर साल अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करती थी। पढ़ाई- लिखाई, खेल - कूद सबमें अव्वल।
यहाँ तक कि विद्यालय में उसे जो भी काम दिया जाता समय से पूर्व ख़त्म करके दिखा देती। यही कारण था कि कई बच्चे उसे टीचरों की 'चमची' कहकर चिढ़ाते थे। कहते , "मेघू, थोड़ा कम बटर लगाया कर। " पर इन सबसे मेघना को कोई फर्क न पड़ता। बस कभी- कभार मुंह गिराकर उदासी भरे स्वर में शिकायत करती - "मैम देखिए न, ये सब मुझे 'चमची' कहकर चिढ़ाते हैं। " और टीचर बच्चों को फटकार लगाते - " बच्चों, ऐसा नहीं कहते किसी को। तुम्हें यदि कोई ऐसी बातें कहे तो तुम्हें बुरा लगेगा न। " चलो, माफी माँगो मेघना से। " माफी मांगते ही मेघना अविलंब उस सहपाठी को माफ कर देती। मानो कभी कुछ हुआ ही न हो। कभी किसी की बात का बुरा न मानना उसकी फितरत थी। बिल्कुल ओस की बूँदों की भांति पवित्र और निर्मल हृदय था उसका।
रेवती को भी मेघना का व्यवहार बहुत भाता था। यूँ कह लीजिए जैसे" सर्वगुण सम्पन्न" नामक विशेषण का आविर्भाव मेघना के लिए ही हुआ था। ऐसा विद्यार्थी पाकर तो हर शिक्षक स्वयं को धन्य समझता है।

स्टाफरूम में जब- जब उसकी बात निकलती तो रेवती यह कहने से कभी न चूकती कि काश मेघना मेरी बेटी होती। यह कहते ही उसके चेहरे की कांति और बढ़ जाती।
   तकरीबन एक महीने के बाद कुछ औपचारिकता पूरी करने के लिए मेघना स्कूल आई तो रेवती से भी मिली। रेवती उसके जख्मों को कुरेदना नहीं चाहती थी फिर भी जब नहीं रहा गया तो उसने झिझकते हुए पूछ ही लिया। मेघना शायद रेवती के इस प्रश्न का ही इंतजार कर रही थी। मेघना भली - भाँति जानती थी कि रेवती मैम को मान्या ने सब कुछ बता दिया है। इसलिए अब छुपाने का कुछ अर्थ नहीं रह जाता।
    मेघना के माता - पिता यामिनी और राजेश ने प्रेमविवाह किया था। यामिनी राजस्थानी थी और पिता महाराष्ट्रीयन परिवार से संबंध रखते थे। घरवालों के राजी न होने के बावजूद दोनों ने शादी कर ली थी। इस वजह से यामिनी के माता- पिता ने हमेशा के लिए उससे अपना संबंध - विच्छेद कर लिया था। कई प्रयासों के बाद भी यामिनी उन्हें मनाने में असफल रही थी।
शादी के कुछ महीनों तक सब कुछ ठीक- ठाक चला पर धीरे - धीरे दोनों के बीच दरार आने लगी और इन दूरियों का कारण बने सास - ससुर, देवर - देवरानी और दहेज।
      राजेश का प्यार भी मात्र एक आकर्षण था जो कुछ ही महीनों में काफूर हो गया। वह भी अब घरवालों का ही साथ देने लगा था। आए दिन दहेज न लाने के लिए यामिनी को प्रताड़ित किया जाने लगा था। रोज़ - रोज़ ताने सुन- सुनकर उसके कान पक जाया करते। नौबत यहाँ तक आ गई थी कि माँ बाप की बातों में आकर राजेश ने यामिनी पर हाथ उठाना भी शुरू कर दिया था।
 देवरानी को भी उसकी शादी में अच्छा- खासा दहेज मिला था, सो कोई न कोई बहाना बनाकर देवर भी उसे ताना मारता था। देवरानी भी अपनी शान बघारने से पीछे न हटती। यामिनी ने घर के सभी सदस्यों के साथ सामंजस्य बिठाने की हर संभव कोशिश की परंतु उसकी हर कोशिश बेकार रही। प्रतिदिन की मार - पिटाई, झगड़ा, कलह उसके लिए असहनीय हो चला था पर यामिनी के पास उस घर में रहने के अलावा कोई और चारा भी तो न था।
इसी बीच मेघना का भी जन्म हुआ परंतु क्लेश बंद न हुआ। यामिनी को परेशान करने के लिए घरवालों को अब एक नया बहाना मिल गया था कि लड़की पैदा हुई है। दो साल बाद घर में फिर से स्त्रीलिंगी किलकारी गूंजी।
दुर्भाग्यवश अब मेघना की छोटी बहन भी उस क्लेश का हिस्सा बन चुकी थी।
इन्हीं झगड़ों को देखते हुए मेघना भी बड़ी हो रही थी परंतु घर के झगड़ों का असर यामिनी ने मेघना और उसकी छोटी बहन पर न पड़ने दिया। माँ के संस्कारों ने मेघना को सहनशीलता और सदाचार जैसे मानवीय गुणों की स्वामिनी बना दिया था।
झगड़े इतने बढ़ गए थे कि अब वे घर की दहलीज पार करके अदालत तक पहुंच चुके थे। तलाक लेने के लिए यामिनी और राजेश दोनों अब अलग रहने लगे थे। यामिनी राजस्थान में ही किसी शहर में रहने लगी थी। 

महीने में एक - दो बार मुंबई आकर वह अपने बच्चों से मिल लेती थी।उन्हें अपने से दूर रखना यामिनी के लिए बेहद कष्टकर था परंतु दोनों बच्चों की पढ़ाई के कारण यामिनी उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सकती थी सो बातें केवल फ़ोन पर ही हो पाती थी। बच्चे जब रोते और यामिनी से अपने पास आने की जिद करते तो फोन पर ही अच्छी अच्छी बातें करके वह उन्हें बहला देती। फिर फोन रखकर अपनी बेबसी और दुर्भाग्य पर फूट - फूट कर रोती। सुबह जब दफ्तर जाती तो आँखों की सूजन और लालिमा खुद ही सबको अपनी कहानी बयान करते।
मेघना भी अपनी छोटी बहन का ख्याल रखते- रखते उम्र से पहले ही बड़ी हो गई थी।छोटी बहन के लिए मेघना अब बड़ी बहन ही नहीं, माँ भी थी।

अब एक मुद्दत तक यामिनी और राजेश के अलग अलग रहने के बाद उनका तलाक हो गया।यामिनी जब अपने बच्चों और उनके सामान को लेने घर आई तो राजेश ने जाते - जाते मेघना से कहा कि वह चाहे तो उनके साथ रह सकती है।
पिता के होते हुए भी मेघना ने जिस घर में अनाथों- सी जिन्दगी जी थी, उस घर में वह कैसे रह सकती थी। उसने मना करते हुए कहा कि अब वह अपनी माँ के साथ रहना चाहती है।
अपनी माँ के एक कमरे की खुली और खुशहाल जिन्दगी उसे मंजूर थी पर अपने पिता का चार कमरों वाला घुटन भरा मकान उसे अब गंवारा न था। एक लंबे अरसे बाद उसे जाने- पहचाने अजनबियों से मुक्ति मिल रही थी। जिस सुख के लिए यामिनी मेघना और उसकी छोटी बहन तरसे थे वह आज उनके पास था। वह उस सुख को कैसे ठोकर मार सकती थी..
पूरा घटनाक्रम बताते- बताते मेघना का स्वर भीग आया था परन्तु उसने अपनी आँख से आँसू न छलकने दिए। मेघना की बातें सुनकर रेवती निशब्द थी। उसके मुंँह से कुछ न निकला।
 उसने केवल इतना पूछा कि क्या वह खुश है? मेघना ने मुस्कुराते हुए हामी भर दी और कहा, "मैम, अब केवल मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है।
उसकी सहनशक्ति और समझदारी के आगे रेवती नतमस्तक थी।
जाते - जाते उसने रेवती से उसका फ़ोन नम्बर लिया और उसके गले लगकर उससे विदा ली। 
 मेघना की कहानी ने रेवती के अंतस को इतना झकझोर दिया था कि उस के जाने के बाद वहीं कुर्सी पर निढाल हो कर बैठ गई और मेज पर सिर टिकाए फूट - फूटकर रोने लगी।उसके आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. मात्र ग्यारह साल की इस छोटी- सी बच्ची ने क्या कुछ नहीं सह लिया था  ।

🖋..... सुधा सिंह ♥️ ©


गुरुवार, 3 जनवरी 2019

नव वर्ष



अलविदा 2018

तूने अपने हर पहलू से मुझे रूबरू कराया
कभी हंसाया, तो कभी जार - जार रुलाया
अपने और परायों में भेद भी बतलाया
तुझे भूलना मुमकिन तो नहीं पर
तुझे जाने से कोई रोक भी नहीं सकता.

अलविदा 2018

..... ...... . 

नव वर्ष 
नव वर्ष तुम्हारे स्वागत में
हैं पालक पावड़े बिछे हुए
नव आशा, नव अभिलाषा में
राहों में पुष्प हैं खिले हुए।
रश्मि राथी का हाथ थाम
तुम पास हमारे आ जाओ
भर लो अपने आलिंगन में
ज्वाला नव प्रेम की सुलगाओ।।

Happy New year 2019

31.12.2018 सुधा सिंह 

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

ओ धृतराष्ट्र

ओ धृतराष्ट्र

ओ धृतराष्ट्र,
क्यों तुझे शर्म नहीं आई?
घर की आबरू से जब
सारेआम खिलवाड़ हो रहा था..
जब तथाकथित अपने ही
अपनों को दांव पर लगा रहे थे.. "
तो तू मौन खड़ा
उस अत्याचारी दुर्योधन
का साथ क्यों देता रहा?
क्यों तूने यह नहीं समझा...
कि इतिहास में तेरा नाम
काले अक्षरों में
अंकित किया जाएगा..
माना कि तू विकलांग था
तू असहाय था पर
बुद्धि तो काम कर रही थी न!!!!
फिर क्यों????
क्यों पुत्रमोह में तूने अपनी
समझदारी को भी उसके चरणों में
समर्पित कर दिया था.

महाभारत कभी न होती, धृतराष्ट्र!!!!
अगर तू न होता..
होता अगर सही तू,
तो सुयोधन
कभी दुर्योधन न बनता....
तेरे कर्मों की सजा 
दुर्योधन न भुगतता....
महाभारत का असली गुनाहगार
दुर्योधन नहीं, तू है...
तेरा लालच, तेरी अधिकार लिप्सा
और तेरा पुत्र मोह है....
दुर्योधन तो बेचारा है
जो सदियों से
तेरे कर्मों की सजा भुगत रहा है.....
तू कालिख है, भारतवर्ष का
तू कलंक है, आर्यावर्त का.
इतिहास तुझे कभी क्षमा नहीं करेगा.....
ओ धृतराष्ट्र....

सुधा सिंह ©®