कहते थे पापा,
" बेटी! तुम सबसे अलग हो!
सब्र जितना है तुममें
किसी और में कहाँ!
तुम सीता - सा सब्र रखती हो!! "
बोल ये पिता के
थे अपनी लाडली के लिए.........
या भविष्य की कोख में पल रहे
अपनी बेटी के सीता बनने की
वेदना से हुए पूर्व साक्षात्कार के थे।.....
क्या जाने वह मासूम
कि वह सीता बनने की राह पर ही थी
पिता के ये मधुर शब्द भी तो
पुरुष वादी सत्ता के ही परिचायक थे.
किन्तु वे पिता थे
जो कभी गलत नहीं हो सकते।
जाने अनजाने
पापा के कहे शब्दों को ही
पत्थर की लकीर
समझने वाली लड़की
सीता ही तो बनती है।
पर सीता बनना आसान नहीं होता।
उसके भाग्य में वनवास जरूरी होता है।
धोबी के तानों के लिए
और रामराज्य स्थापना के लिए
सीता सा सब्र जरूरी होता है।
नियति को सीता का सुख कहाँ भाता है
वह हर सीता के भाग्य में
केवल सब्र लिखती है।
दुर्भाग्य लिखती है।
वेदना लिखती है।