रविवार, 21 अप्रैल 2019

कीरचें...




वो समझ नहीं पाए, मैं समझाती रह गई।
उनके अहम में, मैं खुद को मिटाती रह गई।

उजाड़ी थी बागबां ने ही, बगिया हरी - भरी
गुलाब सी मैं, काँटों में छटपटाती रह गई।

महफिल ने यारों की, भेंट कर दी तन्हाइया
मैं तन्हाइयों में खुद से, बतलाती रह गई ।

मखमली सेज, तड़पती रही बेकस होकर
मोहब्बत रात भर तकिया भिगाती रह गई ।

दिल के जख्मों को भर न पाई 'सुधा'
अपनी पलकों से ही कीरचें उठाती रह गई ।

सुधा सिंह ✍️


10 टिप्‍पणियां:

  1. वाहह्हह... बहुत खूब..लाज़वाब अश आर हैं सारे..👌👌

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  2. बहुत खूब ...
    समझने और समझाने के खेल में कुछ मिटना और मिटाना चलता है ...
    यही तो प्रेम है ...

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    उत्तर
    1. आदरणीय रचना के सार को सार्थक कर दिया आपने. 🙏 🙏 सादर नमन

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