गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

अस्तित्व है क्या....




अस्तित्व है क्या?
क्या रूप नया!

क्या जीवित रहना अस्तित्व है?
या कुछ पा लेना अस्तित्व है?

ये अस्तित्व है प्रश्नवाचक क्यों?
और सब है उसके याचक क्यों?

आख़िर
क्या है ये??

सत्ता... अधिकार...या प्रकृति...
वजूद... या फिर.. उपस्थिति ???
अजी कब तक और किसकी????

आए कितने ही, गए कितने,
पर अस्तित्व कहो टिके कितने!

जो जिए मात्र अपने लिए,
तो अस्तित्व अहो किसके लिए!

यदि सत्ता का एहसास है,
तो दंभ सदैव ही पास है!

अहसास है अधिकार का,
तो अस्तित्व है अहंकार का!

हो दया धर्म, मानवता हीन,
तो अस्तित्व हो गया सबसे दीन!

जो बात प्रेम से हो जाए,
वो लड़के कहाँ कोई पाए?

कर नेकी, दरिया में डाल!
फिर होगा उत्थान कमाल!

बस कर्म करें और धीर धरें ,
यूँ निज भीतर अस्तित्व गढ़े

छोड़कर सब दंभ, अभिमान!
करें निज प्रकृति का संधान!

केवल मानव हम बन जाएँ
तो अस्तित्व हमें मिल जाएगा
जीवन में अच्छे कर्म किए
तो भाग कहाँ फिर जाएगा
वह पीछे दौड़ लगाएगा
हाँ.. पीछे दौड़ लगाएगा

सुधा सिंह 🦋 26.04.8




उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है- Amarujala

उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है- Amarujala: चाहत तो ऊँची उड़ान भरने की थी। पर पंखों में जान ही कहाँ थी! उस कुकुर ने मेरे कोमल डैने जो तोड़ दिए थे। मेरी चाहतों

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

ये कैसी उकूबत थी उनकी

 ये कैसी उकूबत थी उनकी


ये कैसी उकूबत थी उनकी,
 हमें चोटिल ज़रर कर गए
हमने लिखी इबारतें सदा उनके नाम की
बिन पढे ही उन्हें वो बेकदर कर गए

उनसे पूछे कोई उनकी बेवफ़ाई का अस्बाब
हम तो अपनी ही कफ़स में जीते जी मर गए

बह के आँखों से अश्कों ने लिखी तहरीर ऐसी
कि बज्‍म में जाने अनजाने ही हमें रुसवा कर गए

बनके मुन्तजीर राह उनकी हम तकते रहे
वो हमें अनदेखा कर बगल से यूँ ही गुजर गए

दर रोज वो बढ़ाते रहे रौनक-ए - महफिल 
शाम-ओ-सुबह हमारी तो तीरगी में ठहर गये

हर साँस में हम करते रहे इबादत जिसकी
देखा एक नजर जब उन्होंने,हम तरकर उबर गए

सुधा सिंह 🦋


उकूबत= दंड, सजा,
ज़रर= घाव, क्षति, शोक, विनाश, बरबादी
अस्बाब= कारण, वजह, साधन


मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

तफ़ावत



उनकी कुरबत भले ही मेरे
रकीब के नसीब हो 
जो चेहरे पर तबस्सुम खिले उनके, 
तो तफ़ावत भी उनकी 
मंजूर है हमें





सुधा सिंह 🦋

तफ़ावत: दूरी, फासला
कुरबत :निकटता


मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

यक्ष प्रश्न



यक्ष प्रश्न

जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,
और बढ़ जाती हूँ एक कदम
आगे की ओर
सोचती हूँ कदाचित
इस पथ पर कोई वाजिब जवाब
जरूर मिल जायेगा।
पर न जाने किस शून्य में
विचरण करके एक नए प्रश्न के साथ
वह तीर मेरे सामने दोबारा
उपस्थित हो जाता है
एक यक्ष प्रश्न-सा..
जो भटक रहा है अपने युधिष्ठिर की तलाश में
और तलाश रहा है मुझमें ही
अपने उत्तरों को..

और मैं नकुल, सहदेव, भीम आदि की भाँति
खड़ी हूँ अचेत, निशब्द,
किंकर्तव्य विमूढ़,
सभी उत्तरों से अनभिज्ञ.
'यक्षप्रश्नों' की यह लड़ी
कड़ी दर कड़ी जुड़ती चली जा रही है.
कब होगा इसका अंत, अनजान हूँ
"कब बना पाऊँगी स्वयं को युधिष्ठिर"
यह भी अनुत्तरित है.

हर क्षण, यक्ष, एक नया प्रश्न शर,
छोड़ता है मेरे लिए.
पर प्रश्नों की इस लंबी कड़ी को
बींधना अब असंभव- सा
क्यों प्रतीत हो रहा है मुझे .
न जाने, मैं किस सरोवर का
जल ग्रहण कर रही हूँ
जो मेरे भीतर के युधिष्ठिर को
सुप्तावस्था में जाने की
आवश्यकता पड़ गई !
क्यों युधिष्ठिर ने भी
चारों पाण्डवों की भांति
गहन निद्रा का वरण कर लिया है!
कब करेगा व‍ह अपनी
इस चिर निद्रा का परित्याग!
और करेगा भी कि नहीं!
कहीं यह प्रश्न भी
अनुत्तरित ही न रह जाए!

सुधा सिंह 🦋