सोमवार, 15 जून 2020

सुशांत सिंह राजपूत


कैसे कह दूँ कि तू राजपूत था
राजपूतों का इतिहास अजर है अमर है

किसी राजपूत ने रणक्षेत्र में
आज तक पीठ नहीं दिखाई
तू कैसे हार गया जिन्दगी की बाज़ी. 
तूने कैसे उससे मुँह की खाई!!! 

तू जिन्दगी को रणक्षेत्र ही समझ लेता. 
जिन्दगी की दुश्वारियों से थोड़ा और लड़ लेता. 

यूँ  हार जाता लड़ते लड़ते, 
जूझते-जूझते तो भी तेरी शान होती.
अपने नाम का मान रख लेता
तो बढ़ी तेरी आन होती 

ये कैसा कायरता पूर्ण व्यवहार है तेरा
ईश्वर को तू क्या मुँह दिखाएगा?? 
आत्महत्या जैसे घृणित पाप
का दंश क्या तू सह पाएगा??? 

कैसे कह दूँ तू राजपूत था 

अश्रु पूरित श्रद्धांजलि 🙏 🙏 🙏 
सुशांत 😔😔
Pls come back 


शनिवार, 13 जून 2020

हे जग तारणहार


 
अमीर छंद 
**************
विधान ~ 11,11

हे जग तारणहार । 
कर जोड़ूँ बारंबार।। 
हम सबके भर्तार। 
कर दो बेड़ा पार।। 

बढ़ा है दुराचार। 
उच्छृंखल व्यवहार।। 
नफरत का बाजार। 
जिसका न पारावर।। 

कोरोना की मार। 
ठप्प पड़ा व्यापार।। 
घर ही कारागार। 
हर कोई लाचार।। 

दुख है अपरंपार। 
जीना है दुश्वार।। 
जग के पालनहार। 
मग मैं रही निहार।। 

युग युग से सरकार। 
तुम सबके आधार।। 
ले लो फिर अवतार। 
सुंदर हो संसार।। 

   🙏🙏

शुक्रवार, 12 जून 2020

रेखाएँ


रेखाएँ
रेखाएँ, 
रेखाएँ बहुत कुछ कहती हैं... 

उदासीनता, निस्संगता का 
सुदृढ़ रूप रेखाएँ, 
निर्मित होती हैं भिन्नताओं के बीच 
दो बहिष्कृतों के बीच 
दो सभ्यताओं के बीच 
एक मोटी दीवार सी 
दो सोच के बीच 
अमीर और गरीब के बीच 
ऊँच और नीच के बीच 

जो कहती हैं... 
इसमें और उसमें साम्‍यता नहीं है 
दूरी है, अलगाव है, एकरूपता नहीं है 
जैसे श्वेत, श्याम अलग हैं 
जैसे रात्रि, दिवा पृथक हैं 
ज्यों तेल और पानी का कोई मेल नहीं 

रेखाएँ कहती हैं कहानी 
विभाजन की
नादानी की 
मनमानी की 

ये आभास कराती हैं 
अपने और पराए के भेद का 
टूटने का, 
बिखरने का, 
जुदा होने का 

रेखाएँ निशानियां होती हैं 
अंतहीन महत्वाकांक्षाओं की
स्वार्थ की कभी न पटनेवाली
अथाह गहरी खाई की

रेखाएँ होती है वर्जनाएं 
ये तय करती हैं
सबकी सीमाएं 
मान्यताएँ और प्रथाएँ... 
जो हमेशा तनी रहती हैं 
अड़ी रहती हैं किसी अकड़ में 
किसी अहंकार में 
अपने अस्तित्व का 
परचम लहराते हुए 
मनुष्य पर अपनी सत्ता 
की धाक जमाते हुए 
धिक्कारते हुए... 
"देखो तुमने मुझे पैदा किया है।" 







रविवार, 7 जून 2020

विषय :प्रेम बीज



विधा :मनहरण  घनाक्षरी 



प्रेम का प्रसार हो जी, सुखी संसार हो जी। 
स्नेह बीज रोपने हैं, हाथ तो बढ़ाइये। 1।

दुख दर्द सोख ले जो, वैमनस्य रोक ले जो। 
छाँव दे जो तप्तों को, बीज वो लगाइए। 2।

प्रेम का हो खाद पानी, प्रेम भरी मीठी बानी ।
श्रेष्ठ बीज धरती से, आप उपजाइये ।3।

जो भी हम बोएँगे जी, वही हम काटेंगे भी। 
सोच के विचार के ही, कदम बढ़ाइये। 4।

सुधा सिंह 'व्याघ्र' 


शुक्रवार, 5 जून 2020

ओ चित्रकार


ओ चित्रकार, 
क्या तूने अपने चित्र पर सूक्ष्म 
विश्लेषणात्मक दृष्टि डाली?? 
कितनी खूबसूरती से तेरी कूची ने 
सजाई थी इस सृष्टि को 
अपने कोरे केनवास पर, 
कहीं गुंजायमान था 
पखेरुओं का कलरव मधुर गान 
कहीं परिलक्षित थी 
पर्वतों की ऊँची मुस्कान 
नदियों निर्झरों समंदरों
का कल - कल उर्मिल आल्हाद 
हरित वृक्ष लताओं से सजी 
वादियों का आशीर्वाद 
बिखेरे थे तूने आशाओं के 
रंग अनेकों, इस कैनवास पर 
कि हो जाए य़ह रंगबिरंगी
दुनिया हुलसित 
हो हर दिशा पुष्पों 
की गमक से सुरभित 
पसरी थी चतुर्दिक तेरी तूलिका 
से खींची मनोहारी अद्भुत रेखाएँ 
चित्ताकर्षक सबकुछ सुखद ललाम.. 
फिर क्या सूझी तुझे कि 
तूने एक मानव भी उगा दिया 
अपनी आखिरी लकीर से प्रकृति को दगा दिया 
छीन ली सदा सदा के लिए उसके चेहरे की लाली 
ओ चित्रकार, 
क्या तूने अपने इस चित्र पर पुनः निगाह डाली??