वो समझ नहीं पाए, मैं समझाती रह गई।
उनके अहम में, मैं खुद को मिटाती रह गई।
उजाड़ी थी बागबां ने ही, बगिया हरी - भरी
गुलाब सी मैं, काँटों में छटपटाती रह गई।
महफिल ने यारों की, भेंट कर दी तन्हाइया
मैं तन्हाइयों में खुद से, बतलाती रह गई ।
मखमली सेज, तड़पती रही बेकस होकर
मोहब्बत रात भर तकिया भिगाती रह गई ।
दिल के जख्मों को भर न पाई 'सुधा'
अपनी पलकों से ही कीरचें उठाती रह गई ।
सुधा सिंह ✍️
बहुत खूब..... ,सादर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया 🙏 सखी कामिनी
हटाएंवाहह्हह... बहुत खूब..लाज़वाब अश आर हैं सारे..👌👌
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार श्वेता ❤️
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रिय सखी 👌
जवाब देंहटाएंसादर
आभारी हूँ अनिता जी. सादर नमन 🙏
हटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंसमझने और समझाने के खेल में कुछ मिटना और मिटाना चलता है ...
यही तो प्रेम है ...
आदरणीय रचना के सार को सार्थक कर दिया आपने. 🙏 🙏 सादर नमन
हटाएंक्या खूबसूरत अंदाज़ है....लाज़वाब
जवाब देंहटाएंशुक्रिया 🙏 संजय जी सादर अभिवादन 🙏 🙏
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