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शुक्रवार, 19 मार्च 2021

मृत


दफ़्न हूँ जहाँ

वहीं जी भी रही हूँ, 

इन दीवारों के 

आगे का जहां 

बस उनके लिए है।


मृत हैं ये दीवारें

या मैं ही मृत हूँ

वो हिलती नहीं 

और स्थावर मैं

जिसे रेंगना मना है। 

रविवार, 6 दिसंबर 2020

तुम कहाँ हो भद्र???

 तुम कहाँ हो भद्र??? 


उस दिन मन निकालकर

कोरे काग़ज़ पर

बड़ी सुघड़ता से रख दिया था मैंने।

सोचा था किसी दृष्टि पड़ेगी तो

अवश्य ही मेरे मन की ओर

आकर्षित हो व‍ह भद्र

उसे यथोपचार देकर

अपने स्नेह धर्म का

निर्वहन करेगा।

पल बीते, क्षण बीते,

बीती घड़ियाँ और साल।

मन बाट जोहता रहा किन्तु

भद्र के पद चिह्न भी लक्षित नहीं हुए ।

(भद्र यथा संभव काल्पनिक पात्र है।)

मन पर धूल की परत चढ़ती रही

और मन अब अत्यंत मलिन,

कठोर और कलुषित हो चुका है।


#@sudha singh

शुक्रवार, 5 जून 2020

ओ चित्रकार


ओ चित्रकार, 
क्या तूने अपने चित्र पर सूक्ष्म 
विश्लेषणात्मक दृष्टि डाली?? 
कितनी खूबसूरती से तेरी कूची ने 
सजाई थी इस सृष्टि को 
अपने कोरे केनवास पर, 
कहीं गुंजायमान था 
पखेरुओं का कलरव मधुर गान 
कहीं परिलक्षित थी 
पर्वतों की ऊँची मुस्कान 
नदियों निर्झरों समंदरों
का कल - कल उर्मिल आल्हाद 
हरित वृक्ष लताओं से सजी 
वादियों का आशीर्वाद 
बिखेरे थे तूने आशाओं के 
रंग अनेकों, इस कैनवास पर 
कि हो जाए य़ह रंगबिरंगी
दुनिया हुलसित 
हो हर दिशा पुष्पों 
की गमक से सुरभित 
पसरी थी चतुर्दिक तेरी तूलिका 
से खींची मनोहारी अद्भुत रेखाएँ 
चित्ताकर्षक सबकुछ सुखद ललाम.. 
फिर क्या सूझी तुझे कि 
तूने एक मानव भी उगा दिया 
अपनी आखिरी लकीर से प्रकृति को दगा दिया 
छीन ली सदा सदा के लिए उसके चेहरे की लाली 
ओ चित्रकार, 
क्या तूने अपने इस चित्र पर पुनः निगाह डाली?? 




शनिवार, 16 मई 2020

हे कोरोना वीरों...


हे कोरोना वीरों, 
तुम्हें शत- शत प्रणाम ।
दाँव लगाकर प्राणों को , 
करते हो तुम काम।।

कड़ी धूप में स्वेद से तर ,
वर्दी का तुम मान हो रखते।
घुप्प अँधेरी रातों में भी  ,
अपने फ़र्ज का भान हो रखते।।
तुम रखते हो अनुशासन का,
खयाल आठों याम।

हे कोरोना वीरों,
तुम्हें शत शत प्रणाम।।

अस्पताल के खुले कक्ष में,
शौच किया बेशरमों ने।।
थूका तुम पर,पत्थर मारे,
धृष्ट हुए बेरहमों ने।
फिर भी अपने धर्म को तुमने ,
दिया सदा अंजाम।

हे कोरोना वीरों,
तुम्हें शत शत प्रणाम।।

स्नेही जनों को पीछे छोड़
तुम अपना कर्तव्य निभाते।
खाद्य अन्न कहीं कम न पड़े,
वाहन  दिन -रात चलाते।।
राष्ट्र की खातिर पीछे छोड़ा,
तुमने अपना धाम।

हे कोरोना वीरों,
तुम्हें शत शत प्रणाम।

विपदा ऎसी देश में आई,
हर मन है घबराया -सा।
उहापोह में बीत रहे दिन,
हर चेहरा मुरझाया -सा।।
ऐसे संकट काल में खबरें,
पहुँचाते तुम सुबह- शाम।

हे कोरोना वीरों,
तुम्हें शत शत प्रणाम।।


बुधवार, 15 अप्रैल 2020

दाग कोरोना काल का..

.

# दाग कोरोना काल का

किसी ने कहा था कि
दाग अच्छे हैं!!!
हाँ दाग अच्छे  हैं...
पर तब तक
कि जब तक
जड़ न हो जाएँ..
हमेशा के लिए
किसी रंग को,
बदरंग न कर जाएँ...
किसी के जीवन में
झंझा न भर जाएँ
किन्तु जीव की जीवटता
के आगे किसी का
अस्तित्व कहाँ टीक सका है!!
यह तो अनवरत
प्राकृतिक प्रक्रिया है
इसे चलना है...
जो आया है, उसे जाना है।
ये लिजलिजाता, बदनुमा, भद्दा दाग
जो अद्य सबको अपने पंजों में
जकड़ने को आतुर है
व‍ह भी कब तक
किसी को छका पाएगा
उसे भी तो
जाना ही पड़ेगा।
बस इंतजार है..
तो उस 'सर्फ एक्सेल' का
जो पड़ोसी के दिए
इस भद्दे, विद्रूप दाग का
चिर नाश करेगा
और हम फिर से
आजादी की हवा में
मुक्त साँस ले सकेंगे..

बिना य़ह भूले कि,
"कुछ पड़ोसियों के दाग,
बिलकुल भी अच्छे नहीं होते। "

~सुधा सिंह 'व्याघ्र' 

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

ठहराव


जरूरी है ठहराव भी ..
ऐ दोस्त थोड़ा ठहर जाया करो..

सबसे इतनी नाराजगी क्यों है
मानव सेवा भी तो बंदगी है
मानवता में सिर झुकाया करो
केवल मंदिर मस्जिद ही न जाया करो

ऐ दोस्त...
माना कि चलना जरूरी है
फिर भागने की क्यों होड़ लगी है
संघर्षों का नाम ही जिंदगी है
जिन्दगी को झुठलाया न करो

ऐ दोस्त...
ये छिन कभी रुकते नहीं
जो अकड़ते हैं झुकते नहीं
जरूरी है हर मुद्रा अच्छी सेहत के लिए
कभी पीछे भी मुड़ जाया करो


ऐ दोस्त... 
थोड़ा रुको, थोड़ा सम्भलो,
चैन की थोड़ी साँस भी ले लो
खूबसूरत है जिन्दगी, एहसास तो लेलो
यूँ मन ही मन बुदबुदाया न करो

ऐ दोस्त...

सोमवार, 16 मार्च 2020

तटस्थ तुम...



देखो... 
जमाने की नज़रों में 
सब कुछ कितना 
सुंदर प्रतीत होता है न 
मांग में भरा 
ये खूबसूरत सिंदूर,
ये मंगलसूत्र 
सुहाग की चूडियाँ 
ये पाजेब, बिछिया, ये नथिया... 
और.... 
स्वयं में सिमटी हुई मैं... 
जो बटोरती है कीरचें अहर्निश
अपनी तन्हाई के 
और तटस्थ तुम...
तुम... न जाने कब तय करोगे 
अपने जीवन में 
जगह मेरी.. 

क्यों मांग मेरी 
बन गई है 
वो दरिया 
जिसके दोनों किनारे 
एक ही दिशा में गमन कर रहे हैं 
पर आजीवन 
अभिसार की ख्वाहिश लिए
तोड़ देते हैं दम  
और चिर काल तक 
रह जाते हैं अकेले... अधूरे... 
ये ख्वाहिश भी
एक तरफा ही है शायद कि
                     तुम्हारा और मेरा पथ एक है 
पर मंज़िल जुदा... 





सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

बिखरे पत्ते....




जमीन पर बिखरे ये खुश्क पत्ते
गवाह हैं..
शायद कोई आंधी आई थी
या खुद ही दरख्तों ने
बेमौसम झाड़ दिया उन्हें
जो निरर्थक थे,
कौन रखता है उनको
जो बेकार हो जाते हैं
किसी काम के नहीं रहते!
मुर्दों से जल्द से जल्द
छुटकारा पा लेना ही तो नियम है,
शाश्वत नियम...
और यही समझदारी भी।
तो क्या हुआ,
जो कभी शान से इतराते थे,
और अपने स्थान पर सुशोभित थे
वो आज धूल फांक रहे हैं।
और बिखर- बिखरकर
तलाश रहे हैं
अस्तित्व अपना - अपना!!!!!!

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

ऐ बचपन....


ऐ बचपन....

अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे
घुट रही साँस मेरी , फिर से जिला दे मुझे

हारी हूँ जिंदगी की मैं हर ठौर में
लौट जाऊँ मैं फिर से उसी दौर में
ऐसी जादू की झप्पी दिला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

जाना चाहूँ मैं जीवन के उस काल में
झुलूँ डालों पर, कुदूँ मैं फिर ताल में
मेरे स्वप्नों का फिर से किला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

गुड्डे गुड़िया की शादी में जाना है फिर
सखियों से रूठकर के मनाना है फिर
फिर से बचपन की घुट्टी पिला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

फ्रॉक में नन्हीं कलियों को फिर से भरूँ
तितली के पीछे फिर से मैं उड़ती फिरूँ
वही खुशहाल जीवन दिला दो मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

सुधा सिंह
®©सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

अबकी केवल खुशियाँ लाना

Abki kewal khushiyan lana

अबकी केवल खुशियाँ लाना.....

नया वर्ष तेरे आगत में,
खड़े हैं हम तेरे स्वागत में,
शोक, निराशा, दुख की बदरी,
असफलता ,रोगों की गठरी,
खोद के माटी तले दबाना।
अबकी केवल खुशियाँ लाना।।

नया हर्ष ,उत्कर्ष नया हो।
नए भोर का स्पर्श नया हो।
मुरझाईं कलियाँ न हों।
अंधियारी गलियाँ न हों।
निविड़ तमस का शोर मिटाना।
अबकी केवल खुशियाँ लाना।

छुआछूत का भेद मिटे।
भाईचारा प्रेम बढ़े।।
मार -काट ,दंगे नहीं होवें।
कोई भूखे पेट न सोवे।।
मन में तुम सौहार्द्र जगाना।
अबकी केवल खुशियाँ लाना।।


शिखर प्रतिष्ठा शान मिले।
सबको उचित सम्मान मिले।।
पग -डग सबके हो आसान।
मन में तनिक न हो अभिमान।।
माया मोह और दम्भ मिटाना।
अबकी केवल खुशियाँ लाना।।

मेरे परम सनेही  साथियों व सभी भाई बंधुओं को
नव वर्ष 2020 की हार्दिक शुभकामनाएँ।

सोमवार, 23 सितंबर 2019

प्रतीक्षा..

प्रतीक्षा 



एक सदी से प्रतीक्षा कर रही हूँ ! 

कुछ उधड़ी परतें सिल चुकी हूँ!
कुछ सिलनी बाकी है! 
कई- कई बार सिल चुकी हूँ पहले भी !
फिर भी दोबारा सिलना पड़ता है !
जहाँ से पहले शुरू किया था,
फिर वहीं लौटना पड़ता है!
भय है कि व‍ह कच्चा सूत, 
कहीं फ़िर से टूट न जाए !
पक्का सूत खरीदना है,
पर सामर्थ्य नहीं है!

सोचती हूँ, कि
कच्चे सूत से सिले, 
मेरी ख्वाहिशों के इस टुकड़े का 
कोई अच्छा पारखी, 
कोई क्रेता मिल जाए, 
तो मैं भी फुरसत से , 
जिंदगी से थोड़ी गुफ़्तगू कर लूँ! 
थोड़ी अपनी कह लूँ! 
थोड़ी उसकी सुन लूँ! 
वह भी तो दहलीज पर
खड़ी जाने कब से 
मेरी प्रतीक्षा ही कर रही है... 

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

काश!!!

काश 
   काश 

दूर दूर तक
फैली सघन 
नीरवता, 
निर्जनता, 
हड्डियाँ पिघलाती 
जलाती धूप. 
सूखता कंठ, 
मृतप्राय 
शिथिल तन से 
चूता शोणित स्वेद 
अट्टहास करते, 
करैत से मरूस्थल 
की भयावहता सबकुछ 
निगल लेने को आतुर. 
परिलक्षित होती तब 
मृगमरीचिका,
जिसकी स्पृहा में 
निर्निमेष 
कुछ खोजता
लालायित मन. 
अभिप्रेत लक्ष्य 
जो ज्यों ज्यों होता
निकट दृश्यमान 
त्यों त्यों 
रहता है शेष, 
सिकत रेत. 
और शेष 
होता है, 
तो एक 
'काश '
और कभी न 
मिटने वाली 
जन्म जन्मांतर 
की मलिन प्यास. 

शुक्रवार, 17 मई 2019

लक्ष्य साधो..


लक्ष्य साधो हे पथिक,
हौसला टूटे नहीं।
कठिन है डगर मगर, 
मंजिल कोई छूटे नहीं।।

गिरोगे सौ बार पर, 
स्मरण तुम रखना यही।
यत्न बिन हासिल कभी, 
कुछ भी तो होता है नहीं।।

पग पखारेगा वो पथ भी, 
जो निराश न होगे कभी।
काम कुछ ऐसा करो, 
मंजिल उतारे आरती।।

संग उसको ले चलो,
जो पंथ से भटका दिखे।
क्लांत हो, हारा हो गर वो, 
साथ देना है सही।।

वृक्षों की छाया तले, 
सुस्ताना है सुस्ता लो तुम।
पर ध्येय पर अपने बढ़ो, 
रुकना नहीं हे सारथी।।

Motivational poem : मना है....


गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

रे अभिमानी..



रे अभिमानी..
काश.. तुम समझ पाते स्त्री का हृदय. 
पढ़ पाते उसकी भावऩाओं को,
उसके मनसरिता की पावन जलधारा को,
जिसमें बहते हुए वह अपना सम्पूर्ण जीवन
समर्पित कर देती है तुम जैसों पुरुषों लिए.
दमन कर देती है अपनी इच्छाओं का,
और जरूरतों का ताकि तुम्हें खुश देख सके.

रे अभिमानी..
क्या तुम उसके मन की वेदना, व्यथा को जान सके.
क्या कभी अपने अहम को परे रख सके.
क्यों तुम्हारी मनुष्यता 
तुम्हारे पुरुषत्व के आगे धराशाई हो गई.
अपने मिथ्या दंभ में तुम केवल 
उसे प्रताड़ऩा का पात्र समझते रहे.
और माटी की यह गूँगी गुड़िया 
स्वाहा होती रही सदियों सदियों तक
मात्र तुम्हारी आत्म संतुष्टि के लिए. 






शनिवार, 6 अप्रैल 2019

नयन पाश


खिंचा आया था पुष्प में, अलि की तरह
पाश में ऐसा जकड़ा, निकल न सका।

इन निगाहों ने ऐसा असर कर दिया
न मैं जिंदा रहा, और न मर ही सका।
है प्रशांत सबसे गहरा, या चितवन तेरे
डूबा मैं जब से इनमें, उबर न सका।

खिंचा आया था पुष्प में अलि की तरह...

व्योम नीला अधिक है, या दृग हैं तेरे
आज तक और अभी तक, न तय कर सका।
आया हूँ जब से , मतवारे नयनन के द्वार
खोया खुद को , अभी तक मैं पा न सका।

खिंचा आया था पुष्प में अलि की तरह.....

मैं यायावर अहर्निश,  तेरी अभिलाषा में
रह गया प्यासा, मरु- सर को पा न सका।
है ये कैसी कशिश, कैसा अहसास है,
है पारावार किंतु, तृष्णा मिटा न सका।

खिंचा आया था पुष्प में, अलि की तरह
पाश में ऐसा जकड़ा, निकल न सका ।










शनिवार, 30 मार्च 2019

ग़रीबी - प्रश्न चिह्न

गरीबी- प्रश्नचिह्न

तरसते दो जून
की रोटी को
धन और साधन की
कमी से जूझते
मैले- कुचैले
चीथड़ों में
जीवन के
अनमोल स्वप्न सजाते
सूखे शरीर से चिपके
नवजात को
अपने आँचल का
अमृत - धार
न पिला पाने की
विवशता में
मन ही मन घुटते
तंगी में रह रहकर
जीवन यापन
करने को मजबूर
फटे लत्ते को भी
भीख में
मांगने वालों में
जिजीविषा???
बहुत बड़ा प्रश्न!!!!

सुधा सिंह 👩‍💻




रविवार, 24 मार्च 2019

कलम बीमार है..




न उठना चाहती है,
न चलना चाहती है.
स्वयं में सिमट कर
रह गई मेरी कलम
आजकल बीमार रहती है.

आक्रोशित हो जब लिखती है अपने मन की
तो चमकती है तेज़ टहकार- सी.
चौंधिया देने वाली उस रोशनी से,
स्याह आवरण के घेरे में,
स्वयं को सदा महफूज समझते आये वे,
असहज हो कोई इन्द्रजाल रच,
करते हैं तांडव उसके गिर्द .
किंकर्तव्यविमूढ़ वह
नहीं समझ पाती, करे क्या?

समाज से गुम हुई सम्वेदनाओं
को तलाशते- तलाशते
शिथिल, क्लांत - सी
दुबक गई है किसी कोने में.
उसके भीतर भरे प्रेम का इत्र
भी हवा में ही लुप्त है कहीं.
मन की भावनाएँ जाहिर करने की
उसकी हर इच्छा मृतप्राय हो चली है.

उसे इंतजार है तो बस
उन गुम सम्वेदनाओं का .
उनके मसीहाओं का .
जो इंसान को खोजते हुए
धरती से दूर निकल गए हैं.

सुधा सिंह 👩‍💻✒️





शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

सिसकती यादें....


सिसकती यादें...

उस पुराने संदूक में
पड़ी थी यादों की
कुछ किरचें.
खुलते ही
हरे हो गए
कुछ मवादी जख्म.
जो रिस रहे थे
धीरे - धीरे.
खुश थे
अपनी दुर्गंध फैलाकर.
दफ्न कर के
मेरे सुनहरे ख्वाबों को,
छलनी कर चुके थे मेरी रूह को .
अपनी कुटिल मुस्कान
से चिढ़ा रहे थे मुझे.
निरीह असहाय
खड़ी देख रही थी मैं,
अपनी फूटी तकदीर को.
और सुन रही थी सिसकियाँ,
अपने टूटे हुए ख्वाबों और
अपनी अधूरी चाहतों की.

सुधा सिंह 📝


सोमवार, 28 जनवरी 2019

पथिक अहो...



पथिक अहो.....
मत व्याकुल हो!!!
डर से न डरो
न आकुल हो।
नव पथ का तुम संधान करो
और ध्येय पर अपने ध्यान धरो ।

नहीं सहज है उसपर चल पाना।
तुमने है जो यह मार्ग चुना।
शूल कंटकों से शोभित
यह मार्ग अति ही दुर्गम है ।
किंतु यहीं तो पिपासा और
पिपासार्त का संगम है ।

न विस्मृत हो कि बारंबार
रक्त रंजित होगा पग पग।
और छलनी होगा हिय जब तब।

बहुधा होगी पराजय अनुभूत।
और बलिवेदी पर स्पृहा आहूत।

यही लक्ष्य का तुम्हारे
सोपान है प्रथम।
इहेतुक न शिथिल हो
न हो क्लांत तुम।

जागृत अवस्था में भी
जो सुषुप्त हैं।
सभी संवेदनाएँ
जिनकी लुप्त हैं।
कर्महीन होकर रहते जो
सदा - सदा संतप्त हैं ।
न बनो तुम उनसा
जो हो गए पथभ्रष्ट हैं ।

बढ़ो मार्ग पर, होकर निश्चिंत।
असमंजस में, न रहो किंचित।
थोड़ा धीर धरो, न अधीर बनो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।

पथिक अहो, मत व्याकुल हो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।

सुधा सिंह 📝

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

कोल्हू का बैल

कोल्हू का बैल


बैल है वह कोल्हू का
नधा रहता है सतत
विचारशून्‍य हो कोल्हू में .

कुदरत की रंगीनियों से अनजान
स्याह उमस भरी चारदीवारी के भीतर
कोल्हू के इर्दगिर्द की उसकी छोटी सी दुनिया.
जहाँ से शुरू, वहीं खत्म
उसकी नियति है जुते रहना
अहर्निश अनवरत.

ईश्वर प्रदत्त एक जीभ का
स्वामीत्व प्राप्त तो है
पर रंभाने का भी अधिकार उसे कहाँ??
उसके प्रयोग से अनभिज्ञ,
रूखा - सूखा खाने वाला,
हरियाली से अपरिचित वह..

बिसर गया कि...
उसमें भी सारे गुणधर्म सांड वाले ही थे.
वह भी मनमानी कर सकता है.
जो चाहे कर सकता है.
जहाँ चाहे जा सकता है.

अपनी इन असीम शक्तियों से
अनजान यह गुलाम
जब पिसता है
अपन किस्मत के साँचे में
पेराता है तब तेल
और निकलती है
तेल की पतली महीन धार.
और श्रेय ले जाता है कोई और
जिसे 'तेली ' कहते हैं...


सुधा सिंह 📝 नवी मुंबई