सिसकती यादें...
उस पुराने संदूक में
पड़ी थी यादों की
कुछ किरचें.
खुलते ही
हरे हो गए
कुछ मवादी जख्म.
जो रिस रहे थे
धीरे - धीरे.
खुश थे
अपनी दुर्गंध फैलाकर.
दफ्न कर के
मेरे सुनहरे ख्वाबों को,
छलनी कर चुके थे मेरी रूह को .
अपनी कुटिल मुस्कान
से चिढ़ा रहे थे मुझे.
निरीह असहाय
खड़ी देख रही थी मैं,
अपनी फूटी तकदीर को.
और सुन रही थी सिसकियाँ,
अपने टूटे हुए ख्वाबों और
अपनी अधूरी चाहतों की.
सुधा सिंह 📝
बहुत खूब .....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सखी कामिनी. सादर 🙏 🙏 🙏
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-02-2019) को "चिराग़ों को जलाए रखना" (चर्चा अंक-3236) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
जवाब देंहटाएंAbhar sir
हटाएंहर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंढेरों शुक्रिया संजय जी 🙏
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