छूटा कुछ भी नहीं है ।
जिन्दगी के हर सफ़हे को
बड़ी इत्मीनान से पढ़ा है मैंने।
मटमैली जिल्द चढ़ी वह किताब
बिलकुल सही पते पर आई थी।
अच्छी तरह से उलट - पलट कर
बड़े गौर से देखा था मैंने उसे।
उस पर मोटे मोटे हर्फों में
मेरा ही नाम लिखा था।
खिन्न हो गई थी मैं
उस किताब को देखकर।
रद्दी से पुराने जर्द पन्ने
जिन्हें चाट गए थे दीमक।
लगता था छूते ही फट जाएंगे।
इसलिए झटके से
एक किनारे कर दिया था उसे।
पर उस डाकिये ने
अपनी धारदार तलवार
रख दी मेरी गर्दन पर।
और खोल कर दे दिया पहला पन्ना.
बड़े कठिन थे उसके अल्फाज।
अनसुने , अनजाने , अनदेखे से
लफ्ज पढ़े ही नहीं जा रहे थे।
पुकार रही थी मैं
सभी अपनों को।
पर सब के हाथ पैर
जकड़ दिए थे जंजीरों से।
और मुँह पर ताला भी
जड़ दिया था उस सैय्याद ने
कि कोई और न पढ़ सके।
कितनी ही मिन्नतें की थी
उस डाकिये से।
पर संगदिल वह
अड़ा रहा अपनी जिद पर।
बहुत पीछे छूट गये थे वे लम्हें
जब स्वर्णिम रंगों से लबरेज
मदमस्त चितचोर चंचल
तितली की तरह
उड़ती फिरती थी मैं .
यह तितली पढ़ने लगी थी अब
बड़ी शिद्दत से
अपने नाम की भद्दी खुरदुरी सी वह किताब..
उजले स्याह सफ़हों में लिखे
धुंधले महीन अल्फाज
समझ से परे रहे थे
फिर भी लगातार पढ़ रही थी कि
जल्दी से पूरी करके
निकलूँ फिर से
आसमान की स्वच्छंद सैर पर।
बीत गया एक अरसा
पढ़ने और समझने में।
झर गए सारे पंख।
पर कुछ मजमून अभी
भी समझ नहीं आये।
क्लांत, शिथिल मैं
अब उड़ान की ख्वाहिश नहीं रही।
बनकर अनसुलझी पहेली
कुछ अक्षर अभी भी
खड़े हैं मेरे सामने।
पूछूँ किससे कोई नजर नहीं आता।
न जाने डाकिया जाएगा कब
और यह किताब कब होगी पूरी।
सुधा सिंह 📝
खिन्न हो गई थी मैं
उस किताब को देखकर।
रद्दी से पुराने जर्द पन्ने
जिन्हें चाट गए थे दीमक।
लगता था छूते ही फट जाएंगे।
इसलिए झटके से
एक किनारे कर दिया था उसे।
पर उस डाकिये ने
अपनी धारदार तलवार
रख दी मेरी गर्दन पर।
और खोल कर दे दिया पहला पन्ना.
बड़े कठिन थे उसके अल्फाज।
अनसुने , अनजाने , अनदेखे से
लफ्ज पढ़े ही नहीं जा रहे थे।
पुकार रही थी मैं
सभी अपनों को।
पर सब के हाथ पैर
जकड़ दिए थे जंजीरों से।
और मुँह पर ताला भी
जड़ दिया था उस सैय्याद ने
कि कोई और न पढ़ सके।
कितनी ही मिन्नतें की थी
उस डाकिये से।
पर संगदिल वह
अड़ा रहा अपनी जिद पर।
बहुत पीछे छूट गये थे वे लम्हें
जब स्वर्णिम रंगों से लबरेज
मदमस्त चितचोर चंचल
तितली की तरह
उड़ती फिरती थी मैं .
यह तितली पढ़ने लगी थी अब
बड़ी शिद्दत से
अपने नाम की भद्दी खुरदुरी सी वह किताब..
उजले स्याह सफ़हों में लिखे
धुंधले महीन अल्फाज
समझ से परे रहे थे
फिर भी लगातार पढ़ रही थी कि
जल्दी से पूरी करके
निकलूँ फिर से
आसमान की स्वच्छंद सैर पर।
बीत गया एक अरसा
पढ़ने और समझने में।
झर गए सारे पंख।
पर कुछ मजमून अभी
भी समझ नहीं आये।
क्लांत, शिथिल मैं
अब उड़ान की ख्वाहिश नहीं रही।
बनकर अनसुलझी पहेली
कुछ अक्षर अभी भी
खड़े हैं मेरे सामने।
पूछूँ किससे कोई नजर नहीं आता।
न जाने डाकिया जाएगा कब
और यह किताब कब होगी पूरी।
सुधा सिंह 📝