सोमवार, 29 जनवरी 2018

कर्म





कल गिरा जमीं पर मुट्ठी बांध,
कल खोल हथेली जाएगा!
दो गज धरती के ऊपर से या
दो गज जमीन के नीचे ही,
तू माटी में मिल जाएगा!

माटी ही तेरी है सब कुछ,
माटी पर रहना सीख ले!
यह माटी सब कुछ देती है,
पर वापस भी ले लेती है!
माटी से जीना सीख ले!

तेरा नेम प्लेट पढ़ - पढ़ कर
वह भूमि तुझ पर हंसती है-
"तेरे बाद भी कोई आएगा
तेरा नेम प्लेट हटा करके,
वह अपनी प्लेट लगाएगा
जिसको तूने अपना समझा
कल 'गैरों' का हो जाएगा

हर क्षण जीती हूँ मैं

दोहराता है इतिहास स्वयं को
जो दिया, वही फिर पाएगा"
फिर दंभ क्यों,
इतराना क्यों?

तेरा नाम भी तेरा खुद का नहीं,
वह भी तो किसी ने दिया ही था!
फिर बंगला क्या और गाड़ी क्या?
ऊंचे महल और बाड़ी क्या?
सब कुछ तो धरा रह जाएगा!
तेरे साथ 'कर्म' ही जाएगा!

क्यों अहंकार ,
क्या लाया  है?
सब कुछ तेरा यह सोच-सोच
क्यों इतना तू भरमाया है?

तू प्यार कर, तू  स्नेह कर!
तू जीव मात्र पर दया कर!
नहीं तेरे पास कोई थाती ,
तो खुशी दे, मधु बोलकर!

तेरा कर्म ही सच्चा साथी है!
वह तेरा साथ निभाएगा!
सब छोड़ तुझे चल देंगे पर,
हमसफ़र वही बन जाएगा!
तेरे प्रयाण से पहले भी
वह कीर्ति तुझे दिलाएगा!

यह विश्व तेरा ऋणी होगा!
और तेरा कर्ज चुकाएगा!
फिर नाम तेरा स्वर्णाक्षर में,
इतिहास में लिखा जाएगा!


सुधा सिंह 🦋









रविवार, 28 जनवरी 2018

कहंँवा हो प्यारे सखे





कहंँवा हो प्यारे सखे
गोपियाँ हैं राह तके!
दर्शन की प्यास जगी,
तन मन में आग लगी!
बंसी की मधुर धुन,
सुना दो सखे!
गोपियाँ हैं राह तके!

वातावरण है नीरस,
उल्लास का कोई नाद नहीं
भूख प्यास गायब है,
मक्खन में स्वाद नहीं!
आके स्वाद इनमें,
जगा दो सखे!
क्षीरज तेरी  राह तके!

                               सूरज फिर निकलेगा, फिर चमकेगा

जमुना है शोकमय,
लहरों में रव नहीं!
कान्हा तुम्हारे बिन,
प्यारा ये भव नहींन
जमुना की लहरों को,
ऊंचा उठा दे सखे!
जमुना है राह तके!

ऋतु हो बसंत की ,
और कान्हा का संग हो!
तो झूम उठे वृंदावन,
पुलकित हर अंग हो!
तरंग सारे अंग में,
जगा जा सखे!
कण - कण है राह तके!






शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

आया बसंत

आया बसंत, आया बसंत!

झनन - झनन बाजे है
मन का मृदंग
चढ़ गया है सभी पर
प्रेम का रस रँग

बस में अब चित नहीं
बदला है  समां- समां
स्पर्श से ऋतुराज के
दिल हुए जवां - जवां

कोकिल सुनाए
मधुर -  मधुर गीत
सरसों का रंग
देखो पीत- पीत

खेतों में झूम रही
गेहूँ की बाली
मोरनी भी चाल चले
कैसी मतवाली

ख़ुश हुए अलि - अलि
 है खिल गई कली- कली

खग-विहग हैं डार - डार
बज उठे हैं दिल के तार
सात रंगों की फुहार
भ्रमर का मादक मनुहार

प्रकृति भी कर रही
सबका सत्कार है
हुआ मन उल्लसित
चली बसंत की बयार है

धानी चुनर ओढ़
धरणी मुस्काई
तितलियों को देख - देख
गोरी इठलाई

टेसू के फूल और
आम की मंजरियाँ
सुना रहे  हैं नित- रोज
नई - नई कहानियाँ

नवजीवन का हर तरफ
हुआ है संचार
आया बसंत लेके
देखो नव बहार









शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

बवाली बवाल..



निकली बवाली ये बातें बिना बात
मुकाबला बड़ा अलहदा हो गया है

बवाली बवाल ने ऐसा बलवा मचाया
कि चिट्ठा जगत बावला हो गया है

रचे कोई कविता और कोई कहानी
कि बेबात ये मामला हो गया है

बनता कभी है, ये फूटता कभी
अजी पानी का ये बुलबुला हो गया है

बाजी है किसकी और हारेगा कौन
बुझन में कितना झमेला हो गया है

खलल डाले नींदो मे, रातें हराम
तगड़ा बड़ा मसअला हो गया है

सिर चढ़ के सबके ये नाचन लगा है
तीन आखर का ये हौसला हो गया है

अजी छोडो बिना बात बातें बवाली
ये बवाल अब बड़ा मनचला हो गया है 

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

उस दिन  - कथाकाव्य 



उस दिन भोजन पकाकर
पसीने से तर-ब-तर बहू ने
कुछ ठंडी हवा खाने की चाह में
रसोई की खिड़की से बाहर झाँका ही था
कि पूरे घर में खलबली सी मच गई।
ससुर जी जोर- से झल्लाए.
सासू माँ का हाथ पकड़ रसोई में ले आए
और बोले,
"इसके चाल चलन में खोट है!क्या तुम्हें नजर नहीं आता!  ये बाहर गाड़ी में बैठे ड्राइवर को ताक रही थी। अगुआ ने तो नाक ही काट ली हमारी।
ऐसे बुरे चाल- चलन वाली लड़की को हमारे मत्थे मढ़ दिया।
आने दो शाम को बताता हूँ  तुम्हारे बेटे को
 कि क्या - क्या कार-गुजारियाँ
रसोई की खिड़की से होती है!  "
सुनकर ससुर की बात
बहू वही थर - थर काँप रही थी।
संस्कारों में बंधी थी।
बड़ों के मुंह लगने की आदत न थी।
सो जवाब कुछ न दे पाई.
भागी - भागी अपने कमरे में आई और तकिये में मुंह छिपाए रोने लगी.
आँखों  से आँसू भर - भर गिरते थे,
जो थमने का नाम ही नहीं  लेते थे.
कहती भी क्या?
जब से शादी करके
इस घर की दहलीज के भीतर आई थी.
मानो ससुराल वालों ने
एक परमानेन्ट नौकरानी पाई थी.
रोज की झिड़की और तानों की आदत हो गई थी.
उम्र कम थी .
मानो बाल विवाह ही था.
मायके में पिता से डरती थी.
ससुराल में ससुर की चलती थी.
बेचारा पति उससे प्यार तो करता था
पर वह भी अपने पिता से खूब डरता था
घर में उसका भी
न कोई मान था, न सम्मान था.
वह तो पिता के इशारों का गुलाम था.

रात को थका - हारा पति घर लौटा।  जूते उतार कर कपड़े बदलने के लिए कमरे की ओर मुड़ा ही था कि क्रोध में भरे पिता ने उसे आवाज लगाई.
"आइए! अपनी बीवी की करतूत सुनिए. (व्यंग्‍य भरे लहजे में. )
दिन -भर रसोई की खिड़की में खड़े - खड़े गैर मर्दों से नैन - मटक्का करती है।  अब हमसे और नहीं संभाला जाता।  आप अपनी बीवी को इनके मायके छोड़ आइए या नौकरी - वौकरी छोड़ कर इनकी खिदमत में जुट जाईये!
मैं कहता हूँ - देख लेना सबके सब! कल को यही होगा, ये लड़का पंद्रह दिन अपनी नौकरी करेगा और पंद्रह दिन, अपनी बीवी की रखवाली!  "
इस तरह खूब खरी- खोटी सुनाकर पिताजी अपने कमरे में चल दिए।
बेचारे पति के मुंह से एक शब्द न फूटा।
पत्नी की आँख के आंसू जो शाम होते - होते
 कुछ थम  गए थे, वे फिर बह निकले थे। पत्नी ने बाहर आकर भोजन परोसा।
पर भूखे- प्यासे पति के गले से खाने का एक भी निवाला न उतरा। पत्नी के आँसू और तेजी से बह निकले।  इस घर में उसे अपना भविष्य साफ- साफ नजर आ रहा था और पति बेचारा अपने सिर पर हाथ रखे रात- भर न जाने क्या सोचता रहा।