जीवन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जीवन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 21 जून 2020

जीवन:

मुक्तक

जियो तुम इस तरह जीवन, 
तुम्हारी धाक हो जाए।
करो कुछ कर्म ऐसे कि, 
सभी आवाक हो जाएं।

वो जीवन भी है क्या जीवन ,
हताशा में बिता दे जो,
लगा लो आग सीने में ,
कि हर गम खाक हो जाए।।

सोमवार, 23 मार्च 2020

कुछ जीवनोपयोगी दोहे - 5


25:कर्म :
माफी गलती की मिले, जुर्म क्षमा कब होय!
पीछे पछताना पड़े,पाप बीज जब बोय!!

26:सद्भावना :
आदर सबका कीजिए,रखिए मन सद्भाव!
परिसर में पसरे खुशी,तन मन लगे न घाव!!

27:खुशी:
मारा - मारा मृग फिरे, कस्तूरी की खोज!
मन अन्तर खुशियाँ छिपी,ढूँढ न बाहर रोज!!

28: जीवन:
राहें काँटों से भरी, जीवन की यह रीत।
पंथ बीच रुकना नहीं, मत होना भयभीत।।

29: नमस्ते
हाथ जोड़ कर कीजिए,सबका ही सम्मान।
व्याधि से भी दूर रहें , बढ़े जगत में मान।।

30: स्वच्छता
सुंदर हो वातावरण,किंचित हो न अशुद्ध।
साफ़ सफ़ाई कीजिए,बनिए सभी प्रबुद्ध।।







शनिवार, 11 मई 2019

जीवन




जाल बिछाता है और डालता है दाने
#शिकारी बनकर के जीवन , शिकार करता है।

कभी दुखों का प्रहार, कभी सुखों का उपहार
#मदारी बन उंगलियों पर नाच नचाता है।

मूस मांजर की क्रीड़ा में रंक होता राजा तो
एक क्षण में दाता अकिंचन #भिखारी हो जाता है।

पावों में डाल बंधन, हंटर से करके घायल
करके मनुज पर #सवारी,अपनी चाकरी कराता है।

कभी लाभ, कभी हानि,कभी नकद या #उधारी,
अच्छे बुरे सब कर्म छली जीवन ही कराता है।

सुधा सिंह ✍️
कोपरखैराने, नवी मुंबई

रविवार, 12 नवंबर 2017

जीवन की विडम्बनाएँ




बात नहीं करती मैं
 तारों और सितारों की
न ही मैं बात करती हूँ
खूबसूरत नजारो की
मैं बात करती हूँ
इंसानियत के पहरेदारों की

मैं बात करती हूँ
जीवन की विडम्बनाओं की
सालती हुई वेदनाओं की

बात करती हूं
मन में उठती हुई भावनाओं की
धनाभाव में मृतप्राय हुई
निरीह महत्वाकांक्षाओं की

मैं बात करती हूँ
गूदड़ी में पलने वाले लाल की
गरीब की थाली में
न पहुंचने वाली दाल की

कर्ज में डूबे
आत्महन्ता किसानों की
सीमा पर दुश्मन की बर्बरता से
शहीद होते जवानों की

मैं बात नहीं करती मंदिरों और मजारों की
मैं बात करती हूँ
सिसकती हुई रूह की
जूझती हुई जिन्दगी और उहापोह की

मैं बात करती हूँ
दम तोड़ती मासूमियत की
रोती बिलख़ती आदमियत की

मासूमो की आबरू को ताड़ ताड़ करती
मलिन निगाहों की
खुलेआम होते गुनाहों की

जाति पाती की भेट चढ़ती
निर्दोष चिताओं की
छलकपट करने वाले
बगुला भगत नेताओं की

बात नहीं करती मैं
जन्मदिन के उपहारों की
मै बात करती हूँ देश के गद्दारों की

माँ की कोख में
मरती हुई बेटियों की
पार्टियों में, शादियों में
बर्बाद होनेवाली रोटियों की
भेड़ की खाल में छुपे बैठे भेड़ियों की
नारी को चारदीवारी में कैद करती रूढ़ियों की

नहीं मैं नहीं बात करती
सजे धजे बाजारों की
मैं बात करती हूँ
संस्कारों और कुरीतियों में
बांधने वालों बेड़ियों की
दहेज की अग्नि में स्वाहा होती वधुओं की
जन की अस्था से खिलवाड़ करते
 ढोंगी साधुओं की

मैं बात नहीं करती अधिकारों की
बात करती हूँ
कर्तव्यों की,  ध्येय की.
बॉस द्वारा छीने जाने वाले
अधीनस्थों के श्रेय की
अपने अस्तित्व को स्थापित करने की
जद्दोजहद में लगे इंसानों की 
नई सुबह की आशा और उम्मीद लिए
आगे बढ़ने वाले दीवानों की

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

हर क्षण जीती हूँ मैं।


हर क्षण जीती हूँ मैं।

ज़र्रा ज़र्रा बिखरती हूँ मैं,
ज़र्रा ज़र्रा सिमटती हूँ मैं,
न जानू मैं  ,
कैसी कसक है ये !
न जानू मैं  ,
कैसा ये अहसास है!
क्षण- क्षण मेरी हस्ती ही
मुझे देती है चुनौती,
हौसले में दम और
उखड़ती सांसों में भरके प्राण ,
प्रतिपल जीवन से लड़ती हूँ मैं।
हर कसौटी को पार करती,
निराशा को मात देती ,
आशा को साथ लिए चलती हूँ मैं।
 हाँ ! हर क्षण जीती हूँ मैं।


शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

ज़िंदगी


ज़िंदगी,तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।
तेरी मौजूदगी ,हर पल मुझे जीने का एहसास दिलाती  है।
तेरी विद्यमानता ,हर पल मेरा हौसला बढाती है।
जिंदगी तेरे बहुतेरे रुप
तू कभी छाँव है तो कभी है धूप।
तू है तो मुझमें स्पंदन है।
कभी खुशियां हैं, तो कभी क्रंदन है।
तू है तो मुझमें मैं जिंदा हूँ।
तू है तो मैं उड़ता हुआ परिंदा हूँ।
इसलिए तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।


जिंदगी तू कभी बदरंग नज़र आती है।
तो कभी इंद्रधनुषी रंग में खिलखिलाती है।
तू कभी मार्गदर्शक सी लगी।
तो कभी भटकन सी नज़र आई।
तू कभी भव्य सी लगी।
तो कभी मामूली पड़ी दिखाई।
तू कभी  कड़ा इम्तिहान  लेती है।
तो कभी अव्वल अंको से पास भी कर देती है।
इसलिए तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।




सोमवार, 29 जून 2015

जीवन की सच्चाई






ताउम्र  गुजार दी हमने,
जीवन की इस आपाधापी में!
अपना इक सुंदर - सा 
आशियाना बनाने में ।

जब दो पल का आराम मिला,
तो आशियां मेरा खाली मिला ।
न वो थे,
 जिनके लिए  बनाया था ये आशियां।
न हम ,हम रह पाए ,
जिसने  सजाया था ये आशियां।

खाली  दीवारों से टकराकर लौटती हुई आवाजें ,
मुझे  मुँह  चिढा रही हैं ।
मानों  मुझे  आईना दिखा रही हैं ।
उन सुनहरे  पलों  की याद दिला रही हैं ।
जो रेत  की  मानिन्द ,
मेरे  हाथों  से  फिसल गई ।
और  मैं  खाली हाथ  मलती रह गई ।

अब तो इष्ट से जिरह करनी है मुझे, 
  कि एक उम्र और चाहिये मुझे ,
अपना आशियां फिर से  बसाने के लिए ।
अपनी पूरी जिंदगी अपनों के साथ बिताने के लिए ।
सुधा सिंह 🦋