शुक्रवार, 27 मार्च 2020

हल ढूँढते हैं...

हल ढूँढते हैं :

आओ मिलजुल के हम कोई हल ढूँढते हैं।
चलो साथी कुछ अच्छे पल ढूँढते हैं ।

गिरवी हैं बड़े अर्से से ईमान जिनके मंडी में
हर बशर में आदमीयत वो आजकल ढूँढते हैं ।

जिस समंदर ने रगड़ा है घावों पर नमक
उसी समंदर में चलो मीठा जल ढूँढते हैं।

रंज - ओ - ग़म की न हों कोई परछाईयाँ
चलो साथी ख्वाबों का स्थल ढूँढते हैं।

बाजार नफ़रतों का बहुत गर्म है आजकल
कर सके उसे ठंडा वो नल ढूँढ़ते हैं।

उन नकाबपोशों ने मुझे लूटा है बहुत बार
जो न ओढ़े कोई नक़ाब वह शकल (शक्ल) ढूँढते हैं।

इन्तहा हो गई है अब मेरे सब्र की भी यारों
आज आओ उस सब्र का भी फल ढूँढते हैं।






गुरुवार, 26 मार्च 2020

कुंडलियाँ -29

29:

बाती:
बाती में जब लौ न हो, गृह अँधियारा होत ।
बिन कष्टों के सुख नहीं, बदलो अपनी पोत ।।
बदलो अपनी पोत, हमें बाती सिखलाती ।
हो अंधड़ से रार, जीत का राज बताती।।
अँधियारा दे चीर, साथ घृत का जब पाती ।
करती ऐसा कर्म, कीर्ति है पाती बाती।।

पोत(संस्कृत) :ढंग, प्रवृत्ति











सोमवार, 23 मार्च 2020

कुछ जीवनोपयोगी दोहे - 5


25:कर्म :
माफी गलती की मिले, जुर्म क्षमा कब होय!
पीछे पछताना पड़े,पाप बीज जब बोय!!

26:सद्भावना :
आदर सबका कीजिए,रखिए मन सद्भाव!
परिसर में पसरे खुशी,तन मन लगे न घाव!!

27:खुशी:
मारा - मारा मृग फिरे, कस्तूरी की खोज!
मन अन्तर खुशियाँ छिपी,ढूँढ न बाहर रोज!!

28: जीवन:
राहें काँटों से भरी, जीवन की यह रीत।
पंथ बीच रुकना नहीं, मत होना भयभीत।।

29: नमस्ते
हाथ जोड़ कर कीजिए,सबका ही सम्मान।
व्याधि से भी दूर रहें , बढ़े जगत में मान।।

30: स्वच्छता
सुंदर हो वातावरण,किंचित हो न अशुद्ध।
साफ़ सफ़ाई कीजिए,बनिए सभी प्रबुद्ध।।







रविवार, 22 मार्च 2020

कोविड-2019 - कुंडलियाँ



1-
इक व्याधि ऐसी पसरी,कोविड जिसका नाम
त्राहि त्राहि जनता करे, हमें बचाओ राम ।।
हमें बचाओ राम, करो विषाणु से रक्षण।
ज्वर,ज़ुकाम अरु दस्त, खास ये इसके लक्षण
साबुन से धो हाथ, खाइए भोजन सात्विक।
रहिए सबसे दूर, फैली ऐसी व्याधि इक ।।

2-
बातें कोविड की सुनो , लाया है पैगाम ।
स्वच्छता की दे शिक्षा ,कहता करो प्रणाम।
कहता करो प्रणाम,जियो अनुशासित जीवन
सुखमय रहे समाज, बने वसुधा व‍ह उपवन
सात्विक हो आहार, बीते दिन श्रेष्ठ रातें ।
त्यागें पशुता आज, सुने कोविड की बातें। 

बुधवार, 18 मार्च 2020

कहमुकरियाँ - 2



Jhumka 

7: अंजन

श्याम वर्ण मुझे खूब लुभाता।
आँखों में मेरी बस जाता।।
हम दोनों का प्यारा बंधन।
क्या सखि साजन?
ना सखि अंजन....


8: गाँव

मुझको अपने पास बुलाता।
ना जाऊँ तो जी अकुलाता।।
देता मुझे वो सुख की छाँव।
क्या सखि साजन?
 नहीं सखि गाँव...


9: समंदर

अस्थिर कभी, कभी ठहरा है।
उसका हृदय बड़ा गहरा है।।
नमक खूब है उसके अंदर।
क्या सखि साजन?
नहीं समंदर...

10:अखबार

बात ज्ञान की वह बतलाता।
खबरें रोज नई व‍ह लाता।।
सबकी पोल खोलता यार।
क्या सखि साजन?
नहीं अखबार...

11: मोबाइल

बिन उसके मैं चैन न पाऊँ।
नहीं मिले तो मैं घबराऊँ।।
देखूँ उसे तो आए स्माइल।
क्या सखि साजन?
नहीं मोबाइल...


12:झुमका

गालों को व‍ह जब तब चूमे।
झूमूँ मैं तो व‍ह भी झूमे।।
चाहूँ जैसे लगाए ठुमका।
क्या सखि साजन?
ना सखि झुमका..

सुधा सिंह 'व्याघ्र' 

सोमवार, 16 मार्च 2020

तटस्थ तुम...



देखो... 
जमाने की नज़रों में 
सब कुछ कितना 
सुंदर प्रतीत होता है न 
मांग में भरा 
ये खूबसूरत सिंदूर,
ये मंगलसूत्र 
सुहाग की चूडियाँ 
ये पाजेब, बिछिया, ये नथिया... 
और.... 
स्वयं में सिमटी हुई मैं... 
जो बटोरती है कीरचें अहर्निश
अपनी तन्हाई के 
और तटस्थ तुम...
तुम... न जाने कब तय करोगे 
अपने जीवन में 
जगह मेरी.. 

क्यों मांग मेरी 
बन गई है 
वो दरिया 
जिसके दोनों किनारे 
एक ही दिशा में गमन कर रहे हैं 
पर आजीवन 
अभिसार की ख्वाहिश लिए
तोड़ देते हैं दम  
और चिर काल तक 
रह जाते हैं अकेले... अधूरे... 
ये ख्वाहिश भी
एक तरफा ही है शायद कि
                     तुम्हारा और मेरा पथ एक है 
पर मंज़िल जुदा... 





रविवार, 8 मार्च 2020

मेरा आधिकारिक अवकाश



वो जो 
इतवार के 
एक दिन का 
आधिकारिक 
अवकाश 
मिलता है मुझे
कहो,  
अपनी कहूँ या 
फिर सुनूँ उनकी.. 
या फिर से 
वही करूँ.. 
जो 
सदा से करती आई हूँ - 
घर के रोजमर्रा के काम 
या 
छः दिन के दफ़्तर
के कामकाज से 
छुटकारा पा.. 
करूँ वो.. 
जो
अच्छा लगता है मुझे 
बस, केवल एक दिन 
पर 
अगर मैं भी 
अपना इतवार मनाऊँ, 
तो क्या... 
वे कहना छोड़ देंगे - 
"जो औरतें बाहर काम करती हैं 
वे घर भी तो संभालती हैं। 
कुछ खास नहीं कर रही हो तुम । " 

हाँ, 
सभी औरतें 
संभालती हैं 
घर और बाहर दोनों 
अपनी पूरी जिम्मेदारी के साथ। 
इतवार पर अधिकार
केवल पुरुष का है 
किन्तु पुरुष नहीं कर सकते 
स्त्री से बराबरी 
हाँ, 
स्त्री और पुरुष की 
कोई बराबरी नहीं 
क्योंकि स्त्रियाँ वार देती हैं 
अपने सारे इतवार 
अपने सारे अधिकार 
अपने परिवार पर 
वही जो पुरुष नहीं कर सकता 
क्योंकि स्त्री और पुरुष 
का कोई मुकाबला नहीं है। 





बुधवार, 4 मार्च 2020

रेल का सफ़र




रेल के सफर
की तरह है जिन्दगी
और हम सब उसके मुसाफिर।
मिला है सबको एक- एक डिब्बा।
किसी को थर्ड क्लास कंपार्टमेंट
तो किसी को आरामदायक,
सुखद ए. सी. की
पर्दों लगी फर्स्ट क्लास कोच।
जिसमें कइयों स्टेशन आते हैं।
और उन स्टेशनों पर चढ़ते है
कई नए मुसाफिर,
नई आशाओं,
नई उम्मीदों की
ढेर सारी गठरी लादे।
सबका अपना-अपना नजरिया
अपना - अपना गंतव्य।
कोई अकेले सफर करता है
तो कोई अपनों के साथ।
कोई अकेला होकर भी
सबको अपना बनाता चलता है।
तो कोई भीड़ में भी अकेला
उद्विग्न, अनमना-सा रहता है।
जिसे शिकायत है सबसे,
अपने आप से भी ।
जिसे न अपने लक्ष्य का पता होता है
न गंतव्य की खबर।
किन्तु हर स्थिति - परिस्थिति
को झेलते, हँसते, मुस्कुराते,
ईश्वर को पूजते,
कोसते हुए एक दिन
सब पहुँचते हैं एक ही स्थान पर
अपने उस परम गंतव्य पर
जिसका स्वरूप
न कभी समझ आया था
न समझ आएगा ।
फिर भी जाने- अनजाने
रेल का यह सफ़र
सब तय करते हैं।