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गुरुवार, 20 अगस्त 2015

निज स्वरुप पहचान न पाया


निज स्वरुप पहचान न पाया
वक़्त ने ऐसा खेल रचाया।
देखके दुनिया का आडम्बर ,
नकली चोला मैं ले आया।।
इस चोले में  तपन है इतनी ,
यह मुझको अब समझ है आया।
देह मेरी क्यों जलती प्रतिदिन,
जल्दी मैं क्यों जान न पाया।।

देखके दूजे  खरबूजे को,
खरबूजे ने  रंग अपनाया।
पर जब पूछा इसका कारण,
भेद वह अपना खोल न पाया।।
 उसपर भी था चढ़ा आडम्बर,
 उसने अतःयह रूप अपनाया।
 कसर न छोड़ी छला सभी को,
 आस पास भ्रम जाल बिछाया।।

आँख मूँद ली सच्चाई से,
अच्छाई को दूर भगाया।
पीतल को समझा था सोना,
चमक गई तब मैं पछताया।।
अपनों को अपना न समझा,
सदा उन्हें फटकार लगाया।
उम्मीद लगाई थी सबसे ,
पर दूजा कोई काम न आया।।

 इंसानियत बदनाम हो गई,
 वहशीपन का चढ़ा जो साया।
 बुरे करम थे मेरे लेकिन,
 कलयुग पर इल्जाम लगाया।।
 दुनिया को समझा था पागल,
 पर मैं ही पागल कहलाया।

दुनिया देती रहेगी झांसे ,
अब यह मर्म समझ में पाया।।
नकली चोला देगा धोखा,
पहले क्यों मैं जान न पाया।
ऐसे करम किये क्यों मैंने,
ग्लानि से है मन भर आया।।

निज स्वरुप पहचान गया अब,
चाहे जितना देर लगाया।
हुई भले ही देर सही,
पर मुझको है अब होश तो आया।।
हे ईश्वर अब साथ दे मेरा
गर मैंने सही मार्ग अपनाया।।