काश |
दूर दूर तक
फैली सघन
नीरवता,
निर्जनता,
हड्डियाँ पिघलाती
जलाती धूप.
सूखता कंठ,
मृतप्राय
शिथिल तन से
चूता शोणित स्वेद
अट्टहास करते,
करैत से मरूस्थल
की भयावहता सबकुछ
निगल लेने को आतुर.
परिलक्षित होती तब
मृगमरीचिका,
जिसकी स्पृहा में
निर्निमेष
कुछ खोजता
लालायित मन.
अभिप्रेत लक्ष्य
जो ज्यों ज्यों होता
निकट दृश्यमान
त्यों त्यों
रहता है शेष,
सिकत रेत.
और शेष
होता है,
तो एक
'काश '
और कभी न
मिटने वाली
जन्म जन्मांतर
की मलिन प्यास.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया 🙏 🙏
हटाएं
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-08-2019) को " लिख दो ! कुछ शब्द " (चर्चा अंक- 3444) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत बहुत धन्यवाद सखी 🙏 🙏 🙏
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंसच मृगतृष्णा सा है,
अद्भुत मृगमरिचिका में उलझा असहाय मनु।
शुक्रिया दी 🙏 🙏.
हटाएंऔर कभी न मिटने वाली जन्म जन्मांतर की मलिन प्यास
जवाब देंहटाएंkbhi kbhi sochti hun..ki ye naa mitne waali pyaas hi us indhan ka kaam krti hai jo hume me kuch jlaaye rkhti he...thndaa nhi pdhne deti hmaari kaamna ko..
bahut hi achhi rchnaa
bdhaayi
शुक्रिया जो़या ज़ी 🙏🙏स्वागत है
हटाएंशुक्रिया आदरणीय 🙏🙏
जवाब देंहटाएंलक्ष्य
जवाब देंहटाएंजो ज्यों ज्यों होता
निकट दृश्यमान
त्यों त्यों
रहता है शेष,
सिकत रेत.
और शेष
होता है,
तो एक
'काश '
और कभी न
मिटने वाली
जन्म जन्मांतर
की मलिन प्यास.
लाजवाब बहुत खूब लिखा है ,बधाई स्वीकारे
शुक्रिया सखी 🙏 🙏 🙏
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