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शुक्रवार, 4 मई 2018

वक्त हूँ मैं



वक्त हूँ मैं
मेरा इंतजार न करना
लौटता नहीं मैं कभी किसी के लिए
देखता हूँ समदृष्टि से सभी को
ज्ञात है तुम्हें भी
उगता है सूरज समय से और
निकलता है चांद समय पर
समय से होते हैं परिवर्तित मौसम
नियत समय पर वर्षा,गर्मी और सर्दी
सब सुनते हैं केवल मेरी ही
उन्हें पता है कि मैं कितना अनुशासनप्रिय हूं
अवसर सबको देता हूँ

मैं ही नियति भी हूँ
मैं ही बनाता हूं और बिगड़ता भी मैं ही हूँ
चाहो तो तुम भी
भविष्य देख सकते हो अपना
अपनी मां में,अपने पिता में
अपनी सास में, अपने ससुर में,
तुम सीख सकते हो
अपने परिवेश से, अपने आसपास के वातावरण से
अपने समाज से कि जिसने मेरी कद्र की
उसे मैंने हमेशा ऊंचा उठाया

जिसने मुझे जाया किया
उसका क्या हश्र हुआ
कौन जानता है उसका पता,
 वह किस गर्त में गिरा
मैं भी नहीं जानता,
कि वह किस शून्य में विलीन हुआ

कैसा कल चाहते हो तुम अपने लिए
यह निर्भर है पूर्णतया तुम पर ही
बस इतना भर कहना है कि..
गंवाओं न मुझे
न करो इंतजार  मेरा
मैं लौटूंगा नहीं....
हूँ मैं भविष्य सुनहरा
या अंधकार से गहरा...


बुधवार, 3 मई 2017

आख़िरी लम्हा


 आख़िरी लम्हा

और हाथ से रेत की तरह फिसल गया
जो कुछ अपना सा लगता था!
दोनों हाथों को मैं निहारता रहा
बेबस, लाचार, निरीह - सा
और सोचता रहा, कहाँ से चला था,
पहुंचा कहाँ हूँ!

उम्र की साँझ ढलने को है,
कितना कुछ छूट गया पीछे,
खड़ा हूँ, अतीत के पन्नों को पलटता हुआ,
भूतकाल की सीढ़ियों से गुजरता हुआ!
पुरानी यादों के कुछ लम्हे,
खुशियों और गम में बंटे हुए!
खोकर कुछ पाया था !
पाकर कुछ खोया था

इधर मैले कुचैले से कुछ ढेर
उधर जर्जर - सी खाली पड़ी मुंडेर!
उजड़े हुए घोसले
वीरान खड़े पेड़!

न चिड़ियों का कलरव,
न बच्चों की आहट!
न बाहर से कोई दस्तक,
न भीतर कोई सुगबुगाहट!

समय उड़ रहा है पंख लगाए
अब न किसी के आने की आस
न किसी के जाने की फिकर
सब कुछ बेतरतीब तितर बितर

घड़ी की टिक- टिक के साथ,
गुजरते पलों में,
उस आखिरी लम्हें का इंतज़ार

बस अब यही है पाने को.....