रे अभिमानी..
काश.. तुम समझ पाते स्त्री का हृदय.
पढ़ पाते उसकी भावऩाओं को,
उसके मनसरिता की पावन जलधारा को,
जिसमें बहते हुए वह अपना सम्पूर्ण जीवन
समर्पित कर देती है तुम जैसों पुरुषों लिए.
दमन कर देती है अपनी इच्छाओं का,
और जरूरतों का ताकि तुम्हें खुश देख सके.
रे अभिमानी..
क्या तुम उसके मन की वेदना, व्यथा को जान सके.
क्या कभी अपने अहम को परे रख सके.
क्यों तुम्हारी मनुष्यता
तुम्हारे पुरुषत्व के आगे धराशाई हो गई.
अपने मिथ्या दंभ में तुम केवल
उसे प्रताड़ऩा का पात्र समझते रहे.
और माटी की यह गूँगी गुड़िया
स्वाहा होती रही सदियों सदियों तक
मात्र तुम्हारी आत्म संतुष्टि के लिए.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (26-04-2019) को "वैराग्य भाव के साथ मुक्ति पथ" (चर्चा अंक-3317) (चर्चा अंक-3310) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुधा जी नमस्कार !
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी की कुछ अलग ही बात है,आपको पढऩा हमेशा ही सुखद होता है कुछ समय आपकी बढ़िया रचनाये पढ़ने को मिल रही है !
संजय जी सहृदय आभार आ्पका🙏🙏
हटाएं