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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

मानसिकता


     

      संजना ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी, बस इंटर पास थी ।पर आत्म विश्वास बिलकुल कम न था ।शादी से पहले उसने भी वही सपने देखे थे जो हर आम लड़की देखा करती है। मनीष से शादी करके जब अपने ससुराल आई तो उसने सोचा भी न था कि उसके ससुराल वाले इतने दकियानुसी विचारों वाले होंगे कि बहू का खिड़की से बाहर झाँकना भी उनको गँवारा नहीं।
   
 संजना ने स्वयं को घर के रीति - रिवाजों के मुताबिक ढालने की पुरजोर कोशिश की ।वह हर कोशिश करती कि कोई ऐसी-वैसी बात न हो जाए जो उसके सास - ससुर को अच्छी न लगे। उन्हें कोई बात बुरी लगे।पर अपनी हर कोशिश में वह नाकामयाब होती। घर से बाहर जाने पर रोक ।मायके जाने के नाम पर घर में सास -ससुर की झिकझिक। बर्तन अच्छे से नहीं माँजे। आज सब्जी अच्छी नहीं बनी। माँ बाप ने कुछ सिखाया नहीं। अनपढ़ है। किसी बात का शऊर नहीं आदि आदि।
 
यदा - कदा संजना बीमार पड़ जाती तो भी इल्जाम यही लगता कि घर के कामों से बचने के लिए बीमार होने का बहाना कर रही है। मनीष की उस घर में एक न चलती थी। ननद का ससुराल भी पास में ही था इसलिये घर में उसका आना- जाना भी लगा ही रहता था ।इकलौती और लाड़ली बेटी होने के कारण घर में उसका काफी दबदबा था। मम्मी- पापा उसकी हर बात मानते थे।उसकी हर बात मानों पत्थर की लकीर हो। यहाँ तक कि देवर के लिये जब भी लड़की देखी गई उसने नापसन्द कर दी ।इसलिये सास - ससुर और देवर ने भी मना कर दिया। उसकी इन दखलंदाजियों के कारण घर का वातावरण बहुत ज्यादा बिगड़ गया था ।

संजना के बारे में भी उल्टी -सीधी बातें बोलकर अक्सर वह अपने माँ-पिता  के कान भरती रहती थी जिससे घर में दरार पैदा हो रही थी। यहाँ तक कि मनीष भी अपनी छोटी बहन मिहिका की बढती दखलंदाजियों से परेशान हो गया था। वह उसके खिलाफ कुछ भी बोल न पाता क्योंकि मिहीका मम्मी पापा को जान से ज्यादा प्यारी थी। उसके खिलाफ एक शब्द भी वे किसी के मुँह से नहीं सुन सकते थे। एक दो बार मनीष ने मिहीका को समझाने की कोशिश भी की। पर वही ढ़ाक के तीन पात ।कोई हल न निकला।

उस दिन व्हाटसैप  पर ननद की डीपी  देखकर संजना पूरी तरह से हिल गई थी। आधी टाँग की जींस,बिना आस्तीन का टॉप  और बाएँ हाथ की कलाई पर चार इंच का लंबा सा टैटू।
"अब मम्मी पापा को नहीं दिखता कि उनकी बेटी क्या -क्या कर रही है. सारी वर्जनाएँ केवल मुझपर ही क्यों लागू होती है. मैं उनकी बहू हूँ इसलिए?"

उसे बहुत क्रोध आ रहा था. कितने शौक से उसने जीन्स खरीदी थी कि किसी अच्छे मौके पर उसे पहनेंगी। आखिर जीन्स पहनने में बुराई ही क्या है। कमर के नीचे तक का कोई अच्छा से टॉप पहन लो तो पूरा अंग ढका रहता है।

उस दिन संजना को जींस पहनने का मौका भी मिल गया । सुबह 6 बजे ही घर से निकलना था ताकि ठंडे -ठंडे में ही दर्शन मिल जाए और ज्यादा देर तक कतार में खड़े न रहना पड़े। नहा -धोकर सब लोग तैयार हो गए थे। वह भी अपनी मन पसंद जीन्स और टॉप पहनकर, अच्छे से सज- धज कर अपने कमरे से बाहर आई।उसके जेहन में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि उसका जीन्स पहनना घर में इतने बड़े कलह का, इतने बड़े झगड़े का कारण बन सकता है।

ससुर जी ने जोर -जोर से मेहमानों के सामने चिल्लाना शुरू किया, "मेरी बेइज्जती करवाती है, जानती है घर में मेहमान आये हैं फिर भी जीन्स पहनकर आ गई. जीन्स पहनकर कोई मंदिर जाता है क्या? बहू है बहू की तरह रहना सीख। ये सब चोंचले यहां नहीं चलेंगे। इस घर में रहना है तो मेरे मुताबिक ही रहना होगा।"

पर यह सिलसिला यहीं नहीं रुका. आदत के अनुसार मायके वालों की बुराई। गंदी- गंदी गालियाँ,अपशब्द। ये कोई नई बात नहीं थी उसके ससुर के लिए। शुरू - शुरू में तो सुन भी लेती थी पर कितना दिन सुनती अपने मायके की बुराई और गाली -गलौज। उसकी  सहनशक्ति भी जवाब दे चुकी थी अब वह भी चुप नहीं बैठती कभी -कभार वह भी उन्हें उल्टे  जवाब दे देती। लेकिन उसका जवाब देना उसके देवर, ननद और उसकी सास सबको अखरता. सब एक हो जाते और वह  अकेली पड़ जाती। हफ्तों-हफ्तों तक संजना से  कोई बात न करता।

फिर बच्चों की वजह से बात शुरू भी हो जाती पर उनका रवैया न बदलता।

अक्सर लोग दहेज को लेकर अपनी बहू पर तंज कसते हैं अत्याचार करते हैं पर शुक्र है कि कम से कम दहेज को लेकर उसपर कभी ताने नहीं कसे गए बनिस्बत उसके ससुराल वालों ने हमेशा उसपर यही आरोप लगाया कि उसके भाई संजय ने पैसे दे -देकर मनीष को बिगाड़ दिया है, उसे खरीद लिया है। इसलिए मनीष कभी संजना के खिलाफ नहीं जाता।

संजना की  बुराई न सुननी पड़े और घर की रोज की झिकझिक से दूर रहने के लिए मनीष ने भी रात में काफी देर से आना शुरू कर दिया ।वह अक्सर तभी घर लौटता जब घर के सभी लोग सो चुके होते और सुबह किसी न किसी बहाने से जल्दी निकल जाया करता ।

उन दिनों मनीष का काम भी छूट गया था । तकरीबन छह महीनों से वह काम पर नहीं गया था। इसलिए संजना अपने बड़े भाई संजय की मदद से घर का राशन भरवाती थी।और घर की अन्य सभी जरुरतों को भी पूरा करती।  घर में इसके अलावा पैसों की आमद का कोई जरिया नहीं था। इस बात की जानकारी घर के सभी लोगों को थी कि मनीष नौकरी पर नहीं जा रहा है। फिर भी घर के खर्चे चलाने की जिम्मेदारी मनीष पर ही थी। देवर की कमाई भी कुछ ज्यादा नहीं थी और अविवाहित होने के कारण उनके ऊपर कोई और भार भी नहीं थी परंतु संजना के  दो बच्चों और संजना की जिम्मेदारी मनीष पर होने के कारण वह बहुत मजबूर था ।
बड़े शहरों में अपना घर होना कोई मामूली बात नहीं होती। इसलिए बार -बार उन्हें पिताजी की  धमकियाँ  मिलती कि ये मेरा घर है यहां रहना है तो हमारे मुताबिक ही रहना पड़ेगा। नहीं तो अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर अपना अलग घर बसाओ।"

सैंकड़ों हजारों बार यह सुन- सुनकर मनीष और संजना का धैर्य जवाब दे चुका था । पर उनके पास उस घर में ही रहने के अलावा कोई और चारा न था। मनीष के पास कोई नौकरी भी न थी कि कहीं और किराये का घर लेकर रह लें इसलिये वे दोनों बस मन ही मन घुटते रहते।स्थिति यह हो गई कि अधिक  चिंता के कारण मनीष अवसाद में चला गया ।

उसकी रातें करवटों में कटती लेकिन मम्मी पापा ने कभी अपने बेटे की तकलीफ समझने की कोशिश भी न की। उन्हें तो बस यही लगता कि मनीष नौकरी छूटने का बहाना कर रहा है और जानबूझकर घर में पैसे नहीं देता। "सारी कमाई बीवी की महँगी -महँगी साड़ियों और बच्चों को महँगे कपड़े जूते, खिलौने खरीदने में खर्च कर देता है।

ननद का कहना था - "उनके शौक पूरे हो पाने के बाद पैसे बचेंगे तभी तो घर खर्च के लिए जेब से निकलेंगे न और वो तो पूरे होने से रहे।"

इन सबके चलते ही संजना को अपने भाई से मदद लेनी पड़ी थी।संजय भी संजना के ससुराल वालों की सोच से वाकिफ था इसलिये उसने मदद में कोई कोताही नहीं की। संजना जब भी सहायता मांगती वह बेझिझक उसकी सहायता करता आखिर वह भी इकलौती बहन थी पर अपनी ननद से बिल्कुल अलग थी। वह रिश्तों के मायने जानती थी। इसलिए तो उसने जैसे तैसे कईयों साल बिता दिये थे ।पर अब तो हद ही हो गयी थी एक दिन ससुर जी ने बालकनी से अपने पड़ोसी विक्रम और संजना को  हँस- हँस कर बातें करते हुए देख लिया । बस फिर क्या था हुआ वह जिसके बारे में संजना कभी अपने सपने में भी नहीं सोच सकती थी।
शाम को मनीष के लौटने का इंतज़ार भी नहीं किया गया । मनीष को तत्काल फ़ोन करके बुलाया गया । मनीष भी घर पहुँचा लेकिन मन ही मन घबरा रहा था। पर उसने सोच लिया था कि अब वह और नहीं सहेगा। इस बार वह  बड़ी दृढ़ता से अपनी बात रखेगा और स्थिति- परिस्थिति जैसी भी होगी उसी के अनुसार निर्णय करेगा।

घर का वातावरण तनाव से भरा था। मानो अदालत में किसी  बहुत बड़े मुकदमे का आज फ़ैसला होना था ।संजना अपने कमरे में बैठकर रो रही थी। एक तरफ़ सोफे पर मिहीका भी बैठी थी।ससुर जी ने क्रोध भरे लहजे में कहा ,"आज संजना ने अपनी सारी हदे पार कर दी। पूछो उससे कि वह  विक्रम से हँस -हँस कर क्या बात कर रही थी!घर की बहू बेटियों का इस तरह पराये मर्दों से बात करना शोभा नहीं देता। लोक -लिहाज कुछ बचा भी है या नहीं! समझा दो उसे कि यह सब इस घर में नहीं चलेगा।"

"पर पापा संजना ऐसी नहीं है ।आप भी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं ।"
"तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ। अब तुम मुझे सिखाओगे।" 
"नहीं पापा। लेकिन....."
"लेकिन क्या? हाँ ....बोलो?"
"अरे..अब तो तुम भी मुझसे जुबान लडाने लगे हो।"
"नहीं ।आप मुझे गलत समझ रहे हैं।"
"अच्छा तो  मैं गलत समझ रहा हूँ और जो तुम्हारी पत्नी कर रही है वह सही है।"
"बहुत हो चुका पापा। अब मैं और यह सब नहीं झेल सकता। और न ही सही और गलत का फ़ैसला करना चाहता हूँ ।"
"मतलब।"
मतलब अब मैं इस घर में और नहीं रह सकता। हम लोग जल्द ही आपका यह घर खाली कर देंगे।"
" ठीक है,जैसी तुम्हारी मर्जी।"

आवेश में आकर मनीष ने जो कुछ कहा, उसे सुनकर संजना के सास -ससुर के पैरों तले जमीन खिसक  गयी। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मनीष इतना बड़ा कदम उठा लेगा।

उन्हें लगा कि कुछ दिनों में जब मनीष का क्रोध शांत हो जाएगा तो अपने आप घर छोड़ने का विचार छोड देगा। परन्तु शायद उन्होने कभी नहीं सोचा था कि उनका बरताव  धीरे-धीरे उन्हें अपने बेटे से दूर कर रहा था।

आज संजना भले ही अपने सास ससुर से अलग दूसरे मकान में रहती है पर उसके मन में यह टीस हमेशा रहती है कि वह अपने परिवार से दूर है।

मिहीका जैसी लड़कियाँ अपने मायके में दखलंदाजी न करें तो शायद उनका मायका भी सुखी रहे।


'सबरंग क्षितिज :विधा संगम ' से उद्धृत कहानी 




शनिवार, 12 जनवरी 2019

मेघना शिर्के..... (कहानी )



मेघना शिर्के .....

(कहते , "मेघू, थोड़ा कम बटर लगाया कर। " पर इन सबसे मेघना को कोई फर्क न पड़ता। बस कभी- कभार मुंह गिराकर उदासी भरे स्वर में शिकायत करती - "मैम देखिए न, ये सब मुझे 'चमची' कहकर चिढ़ाते हैं। ")


गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म हो गई थी।विद्यालय का पहला दिन था। सभी बच्चों में एक नया उत्साह, नया जोश नजर आ रहा था। एक दूसरे से बहुत दिन बाद मिले थे तो बातें करने में मशगूल थे। चहल पहल इतनी बढ़ गई थी मानो स्कूल की खामोश दीवारें भी बोलने लगी थी।

घंटी बजते ही कक्षा अध्यापिका रेवती ने अपनी कक्षा में प्रवेश किया। हाजिरी लेने लगी तो  उसे पता चला कि मेघना शिर्के आज विद्यालय नहीं आई है। मन में आया कि शायद वह छुट्टी से अभी तक लौटी नहीं होगी, एक दो दिन में तो आ ही जाएगी। इहेतुक कक्षा के बाकी विद्यार्थियों से पूछने की आवश्यकता भी उसे महसूस नहीं हुई।

तीन दिन के बाद जब चपरासी कक्षाध्यापिका होने के नाते रेवती के हस्ताक्षर लेने आया तब उसे ज्ञात हुआ कि उसने तो विद्यालय में लीविंग सर्टिफिकेट के लिए अर्जी दे दी है।

रेवती हतप्रभ थी । हस्ताक्षर तो उसने कर दिए पर बार - बार यह सवाल उसके दिमाग में तीर की तरह चुभ रहा था कि मेघना विद्यालय क्यों छोड़ना चाहती है? आखि़र ऐसी क्या बात हो गई?

रेवती की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी इसलिए उसने उसकी ही कक्षा की सबसे करीबी सहेली मान्या से पूछताछ की। मान्या ने सारा माजरा खुल कर बता दिया। रेवती भीतर ही भीतर दहल गई।
ग्यारह साल की मासूम बच्ची जो सदैव मुस्कुराती रहती थी, कोई नहीं जानता था कि उसके हृदय में दर्द के कितने फफोले पड़े थे। इस उम्र में इतना सब कुछ देख लेना फिर भी चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आने देना, बिलकुल मामूली नहीं था।

गेहुंंआ रंग, पतली- दुबली काया वाली मेघना, हर टीचर की चहेती और और कक्षा की सबसे मेधावी छात्र थी । हर साल अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करती थी। पढ़ाई- लिखाई, खेल - कूद सबमें अव्वल।
यहाँ तक कि विद्यालय में उसे जो भी काम दिया जाता समय से पूर्व ख़त्म करके दिखा देती। यही कारण था कि कई बच्चे उसे टीचरों की 'चमची' कहकर चिढ़ाते थे। कहते , "मेघू, थोड़ा कम बटर लगाया कर। " पर इन सबसे मेघना को कोई फर्क न पड़ता। बस कभी- कभार मुंह गिराकर उदासी भरे स्वर में शिकायत करती - "मैम देखिए न, ये सब मुझे 'चमची' कहकर चिढ़ाते हैं। " और टीचर बच्चों को फटकार लगाते - " बच्चों, ऐसा नहीं कहते किसी को। तुम्हें यदि कोई ऐसी बातें कहे तो तुम्हें बुरा लगेगा न। " चलो, माफी माँगो मेघना से। " माफी मांगते ही मेघना अविलंब उस सहपाठी को माफ कर देती। मानो कभी कुछ हुआ ही न हो। कभी किसी की बात का बुरा न मानना उसकी फितरत थी। बिल्कुल ओस की बूँदों की भांति पवित्र और निर्मल हृदय था उसका।
रेवती को भी मेघना का व्यवहार बहुत भाता था। यूँ कह लीजिए जैसे" सर्वगुण सम्पन्न" नामक विशेषण का आविर्भाव मेघना के लिए ही हुआ था। ऐसा विद्यार्थी पाकर तो हर शिक्षक स्वयं को धन्य समझता है।

स्टाफरूम में जब- जब उसकी बात निकलती तो रेवती यह कहने से कभी न चूकती कि काश मेघना मेरी बेटी होती। यह कहते ही उसके चेहरे की कांति और बढ़ जाती।
   तकरीबन एक महीने के बाद कुछ औपचारिकता पूरी करने के लिए मेघना स्कूल आई तो रेवती से भी मिली। रेवती उसके जख्मों को कुरेदना नहीं चाहती थी फिर भी जब नहीं रहा गया तो उसने झिझकते हुए पूछ ही लिया। मेघना शायद रेवती के इस प्रश्न का ही इंतजार कर रही थी। मेघना भली - भाँति जानती थी कि रेवती मैम को मान्या ने सब कुछ बता दिया है। इसलिए अब छुपाने का कुछ अर्थ नहीं रह जाता।
    मेघना के माता - पिता यामिनी और राजेश ने प्रेमविवाह किया था। यामिनी राजस्थानी थी और पिता महाराष्ट्रीयन परिवार से संबंध रखते थे। घरवालों के राजी न होने के बावजूद दोनों ने शादी कर ली थी। इस वजह से यामिनी के माता- पिता ने हमेशा के लिए उससे अपना संबंध - विच्छेद कर लिया था। कई प्रयासों के बाद भी यामिनी उन्हें मनाने में असफल रही थी।
शादी के कुछ महीनों तक सब कुछ ठीक- ठाक चला पर धीरे - धीरे दोनों के बीच दरार आने लगी और इन दूरियों का कारण बने सास - ससुर, देवर - देवरानी और दहेज।
      राजेश का प्यार भी मात्र एक आकर्षण था जो कुछ ही महीनों में काफूर हो गया। वह भी अब घरवालों का ही साथ देने लगा था। आए दिन दहेज न लाने के लिए यामिनी को प्रताड़ित किया जाने लगा था। रोज़ - रोज़ ताने सुन- सुनकर उसके कान पक जाया करते। नौबत यहाँ तक आ गई थी कि माँ बाप की बातों में आकर राजेश ने यामिनी पर हाथ उठाना भी शुरू कर दिया था।
 देवरानी को भी उसकी शादी में अच्छा- खासा दहेज मिला था, सो कोई न कोई बहाना बनाकर देवर भी उसे ताना मारता था। देवरानी भी अपनी शान बघारने से पीछे न हटती। यामिनी ने घर के सभी सदस्यों के साथ सामंजस्य बिठाने की हर संभव कोशिश की परंतु उसकी हर कोशिश बेकार रही। प्रतिदिन की मार - पिटाई, झगड़ा, कलह उसके लिए असहनीय हो चला था पर यामिनी के पास उस घर में रहने के अलावा कोई और चारा भी तो न था।
इसी बीच मेघना का भी जन्म हुआ परंतु क्लेश बंद न हुआ। यामिनी को परेशान करने के लिए घरवालों को अब एक नया बहाना मिल गया था कि लड़की पैदा हुई है। दो साल बाद घर में फिर से स्त्रीलिंगी किलकारी गूंजी।
दुर्भाग्यवश अब मेघना की छोटी बहन भी उस क्लेश का हिस्सा बन चुकी थी।
इन्हीं झगड़ों को देखते हुए मेघना भी बड़ी हो रही थी परंतु घर के झगड़ों का असर यामिनी ने मेघना और उसकी छोटी बहन पर न पड़ने दिया। माँ के संस्कारों ने मेघना को सहनशीलता और सदाचार जैसे मानवीय गुणों की स्वामिनी बना दिया था।
झगड़े इतने बढ़ गए थे कि अब वे घर की दहलीज पार करके अदालत तक पहुंच चुके थे। तलाक लेने के लिए यामिनी और राजेश दोनों अब अलग रहने लगे थे। यामिनी राजस्थान में ही किसी शहर में रहने लगी थी। 

महीने में एक - दो बार मुंबई आकर वह अपने बच्चों से मिल लेती थी।उन्हें अपने से दूर रखना यामिनी के लिए बेहद कष्टकर था परंतु दोनों बच्चों की पढ़ाई के कारण यामिनी उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सकती थी सो बातें केवल फ़ोन पर ही हो पाती थी। बच्चे जब रोते और यामिनी से अपने पास आने की जिद करते तो फोन पर ही अच्छी अच्छी बातें करके वह उन्हें बहला देती। फिर फोन रखकर अपनी बेबसी और दुर्भाग्य पर फूट - फूट कर रोती। सुबह जब दफ्तर जाती तो आँखों की सूजन और लालिमा खुद ही सबको अपनी कहानी बयान करते।
मेघना भी अपनी छोटी बहन का ख्याल रखते- रखते उम्र से पहले ही बड़ी हो गई थी।छोटी बहन के लिए मेघना अब बड़ी बहन ही नहीं, माँ भी थी।

अब एक मुद्दत तक यामिनी और राजेश के अलग अलग रहने के बाद उनका तलाक हो गया।यामिनी जब अपने बच्चों और उनके सामान को लेने घर आई तो राजेश ने जाते - जाते मेघना से कहा कि वह चाहे तो उनके साथ रह सकती है।
पिता के होते हुए भी मेघना ने जिस घर में अनाथों- सी जिन्दगी जी थी, उस घर में वह कैसे रह सकती थी। उसने मना करते हुए कहा कि अब वह अपनी माँ के साथ रहना चाहती है।
अपनी माँ के एक कमरे की खुली और खुशहाल जिन्दगी उसे मंजूर थी पर अपने पिता का चार कमरों वाला घुटन भरा मकान उसे अब गंवारा न था। एक लंबे अरसे बाद उसे जाने- पहचाने अजनबियों से मुक्ति मिल रही थी। जिस सुख के लिए यामिनी मेघना और उसकी छोटी बहन तरसे थे वह आज उनके पास था। वह उस सुख को कैसे ठोकर मार सकती थी..
पूरा घटनाक्रम बताते- बताते मेघना का स्वर भीग आया था परन्तु उसने अपनी आँख से आँसू न छलकने दिए। मेघना की बातें सुनकर रेवती निशब्द थी। उसके मुंँह से कुछ न निकला।
 उसने केवल इतना पूछा कि क्या वह खुश है? मेघना ने मुस्कुराते हुए हामी भर दी और कहा, "मैम, अब केवल मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है।
उसकी सहनशक्ति और समझदारी के आगे रेवती नतमस्तक थी।
जाते - जाते उसने रेवती से उसका फ़ोन नम्बर लिया और उसके गले लगकर उससे विदा ली। 
 मेघना की कहानी ने रेवती के अंतस को इतना झकझोर दिया था कि उस के जाने के बाद वहीं कुर्सी पर निढाल हो कर बैठ गई और मेज पर सिर टिकाए फूट - फूटकर रोने लगी।उसके आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. मात्र ग्यारह साल की इस छोटी- सी बच्ची ने क्या कुछ नहीं सह लिया था  ।

🖋..... सुधा सिंह ♥️ ©


शनिवार, 29 दिसंबर 2018

रात की थाली.( लघुकथा)

रात की थाली

बीस वर्षीया रागिनी को नहीं पता था कि सिंक में रखी वह एक थाली उसके ऊपर इतनी भारी पड़ेगी। 
भोजन समाप्त होने के पश्चात रागिनी, विकास, और उनका बेटा आरव जाने कब के सो चुके थे। तभी अचानक से कमरे के दरवाजे पर जोर - जोर से ठक - ठक हुई। इस ठक- ठक से सबकी नींद उचट गई।  दो वर्ष का मासूम आरव भी नींद टूट जाने के कारण रोने लगा था। घड़ी में तकरीबन ढाई बजे रहे थे। आँखों को मीचते हुए विकास ने दरवाजा खोला तो पाया कि पिताजी भन्नाए स्वर में शराब के नशे में जोर- जोर से चिल्ला रहे थे - "कहाँ है रागिनी, उठाओ उसे। समझ में नहीं आता उसे, रात में जूठे बर्तन सिंक में नहीं छोड़ते। रसोई जूठी हो तो देवी- देवता नाराज हो जाते हैं।"

रात को 11 से 12 बजे के दरमियान सबको खाना खिलाकर रागिनी ने एक थाली में अपने लिए भोजन निकाल कर रख दिया था कि बाद में खा लेगी।

बहू होने के नाते वह सबके साथ नहीं खा सकती थी। मजबूरीवश विकास को भी घरवालों के साथ ही खाना पड़ता था। विवाह के बाद विकास को भी कई बार ताने सुनने पड़े थे कि रागिनी के आने के बाद अधिक से अधिक समय उसके साथ ही बिताता है। उसके साथ ही खाना भी खाने लगा है।  हम अब अच्छा नहीं लगते आदि आदि ।

इन तानों से बचने के लिए ही उसने भी रागिनी के साथ भोजन करना छोड़ दिया था। अब रागिनी को रसोई में बैठकर अकेले ही भोजन करने की आदत हो गई थी । भोजन करना भी मात्र उसके लिए एक ड्यूटी बन कर रह गया था । घर के अन्य कार्यों की तरह वह भी एक ऐसा ही कार्य था जिसके बगैर नहीं चल सकता था। 

आज भी उसने यही सोचा था कि रसोई के सारे काम निबट जाने के बाद वह भी खाना खाकर सो जाएगी।
सास- ससुर को छोड़ कर घर के सभी सदस्य सो चुके थे परंतु ससुर जी शराब के नशे में धुत होकर अपने कमरे में रोज की तरह बडबड़ा रहे थे। 

ससुराल में नियम था कि रात में जूठे बर्तन रसोई में नहीं होने चाहिए, गैस चूल्हे को साफ करके ही सोना है।
काम समाप्त होते - होते रोज की तरह रात के एक बज चुके थे।जैसे तैसे उसने अपना भोजन भी ख़त्म किया। पर उस रात्रि वह बहुत अधिक थकावट महसूस कर रही थी इसलिए उसने सोचा कि बस एक थाली ही तो है। क्या फर्क पड़ता है। सुबह उठते ही साफ कर लेगी। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। यही सब विचार कर के वह भी सोने चली गई।पर शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था।

इस दौरान ससुर जी न जाने किस काम से  रसोई घर में आये।सिंक में पड़ी उस जूठी थाली पर उनकी नजर पड़ गई।फिर क्या था, उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। गालियाँ बकते - बकते रागिनी से उन्होंने उसी समय वह थाली धुलवाई और तमतमाते हुए अपने कमरे की ओर चले दिए।रागिनी की आँख से भर - भर आँसू बहते रहे।सास और पति चुपचाप खड़े यह सब देखते रह गए।
सुधा सिंह 🖋 

शुक्रवार, 4 मई 2018

चमगादड़

   रात के साढ़े दस बज रहे थे. महीना अप्रैल का था पर तपन ज्येष्ठ मास से कम न थी. खूब गर्मी पड़ रही थी इसलिए आशीष, सिया और उनके दोनों बच्चे घर के बाहर का दरवाजा खोलकर हॉल में बैठ कर भोजन कर रहे थे. तभी सिया को कुछ अजीब - सा महसूस हुआ. उस की नजर ऊपर उठी. अचानक से अपने सिर के ऊपर चमगादड़ को उड़ता देख वह थोड़ी घबरा गई. वह चमगादड़ पंखे के आसपास यहां से वहां बड़ी तेजी से उड़ रहा था.  टीवी भी चल रहा था और सभी अपने रात के भोजन में व्यस्त थे. इसलिए शायद किसी का ध्यान उस चमगादड़ की ओर नहीं गया पर अचानक उसके मुँह से निकला, "आशीष, चमगादड़!
चमगादड़ को सहसा यूँ अपने ऊपर उड़ता देख सभी डर गए और अपना- अपना भोजन छोड़कर सभी छिपने की जगह ढूंढने लगे.
बेटी श्रेया भी तुरंत घर के मुख्य दरवाजे के पीछे जाकर छुप गई. आशीष और पृथ्वीज ने भी झट से जाकर पर्दे की ओट ली.
तभी सिया ने जाकर धीरे से लाइट और पंखा बंद कर दिया ताकि वह घर से बाहर निकल जाए और यह भी डर था कि पंखे से टकरा कर कहीं वह घायल न हो जाए और घाव लगाने पर घर में उसका रक्त यहां वहां बिखर जाए तो इन्फेक्शन का खतरा भी था.
अचानक हुई इस घटना में उसके दिमाग मे यह बात ही नहीं आई कि चमगादड़ रोशनी में अच्छे से नहीं देख पाते. इसलिए उसने बचते बचाते किसी तरह से जाकर लाइट जला दी ताकि वह घर से बाहर निकल सके .
"आख़िर घर में चमगादड़ आया कहाँ से?, "
यह बात किसी को समझ नहीं आ रही थी . घर की दोनों बालकनी में तो जाली लगी थी. केवल रसोईघर की एक खिड़की ही थी जिससे होकर चमगादड़ घर के भीतर आ सकता था और दूसरा रास्ता था घर का मुख्य दरवाजा. खैर थोड़ी देर बाद वह चमगादड़ किसी तरह अपने आप घर के मुख्य दरवाजे से होते हुए बाहर निकल गया. उसके निकलते ही सिया ने तुरंत दरवाजा बंद कर दिया और सबने राहत की साँस ली. वह चमगादड़ बिल्डिंग के पैसेज में काफी देर तक उड़ता रहा. इस बीच सभी पड़ोसियों ने भी अपने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए ताकि उस चमगादड़ की वजह से किसी को कोई नुकसान न पहुंचे.
ख़ैर बिल्डिंग के पैसेज से वह कब, कहाँ गया यह पता नहीं.

अभी छह महीने भी तो नहीं गुजरे, एक मामूली से चमगादड़ के कारण सिया और उसके पूरे परिवार को, खासतौर से श्रेया को कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा था. व‍ह इतनी ज्यादा बीमार पड़ी कि डाक्टरों ने उसे तीन महीनों तक बेड रेस्ट की सलाह दी. बारहवीं की छमाही परीक्षा तक वह दे न  पाई.   डेंगू टेस्ट, मलेरिया टेस्ट, टाईफोइड टेस्ट और और भी न जाने कितने ही अनगिनत टेस्ट हुए उसके. एम. आर. आई. टेस्ट भी किया गया। एक के बाद एक कई बीमारियों ने उसे घेर  लिया  था. वजन घटता जा रहा था.
वह लगातार कमजोर होती गई. अस्पताल के अनवरत चक्कर लग रहे थे. उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी कम हो गई थी कि बुखार उतरने का नाम ही नहीं लेता था. एक सौ पाँच डिग्री बुखार!
कभी किसी के मुँह से सुना न था कि किसी को एक सौ पांच डिग्री का बुखार हुआ हो. सिया रात रात भर श्रेया के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखती पर बुखार न जाता. अंत में उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था .कुछ दस एक दिन बाद अस्पताल से श्रेया को छुट्टी  मिल गई .
Latest news on bats 🦇

पर एक हफ्ता अभी बीतने भी न पाया था कि  ऑफिस जाते समय आशीष की मोटर साइकिल एक ट्रक से टकराई.  टक्कर भी ऐसी जोरदार थी कि  मोटर साइकिल सड़क के दूसरी तरफ जा गिरी. उसके पुर्जे - पुर्जे बिखर गए. शुक्र है आशीष को ज्यादा चोट नहीं आई. घटना स्थल पर मौजूद कुछ लोगों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया.
इस दुर्घटना के कारण आशीष का पैर फ्रेक्चर हो गया था ,
दर्द और बंधे प्लास्टर के कारण वह एक महीने तक दफ्तर न जा सका. इस कारण उसका कामकाज और घर की आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई और रुपया तो पानी की तरह बह रहा था. श्रेया के इलाज में भी लाखों रुपए स्वाहा हो चुके थे. घर की माली हालत,
बेटी और पति की ऐसी स्थिति देखकर उसका दिल बैठ जाता पर किसी तरह वह अपने मन को समझा लेती.

बातों - बातों में एक दिन उसने अपनी सहेली ऋचा को बताया था कि उसके घर की बालकनी में एक चमगादड़ ने अपना निवास स्थान बनाया है तब ऋचा ने उसे सावधान भी किया था कि चमगादड़ का घर में आना अशुभ माना जाता है और किसी तरह वह उस चमगादड़ को अपने घर से निकाल दे. पर  सिया को इस बात में कोई सच्चाई नहीं लगी. उसे लगा कि इतना छोटा - सा मूक प्राणी किसी को क्या नुकसान पहुंचा सकता है और वैसे भी वह बालकनी में रहता है! उसे यह सब बातें दकियानूसी लगती थी. उसे लगता था यह महज अंधविश्वास है. इसलिए उसने ऋचा की  इस बात पर गौर नहीं किया. ऋचा ने कई बार सिया से चमगादड़ के बारे में पूछ कर किसी तरह से उसे बालकनी से भगाने की बात कही लेकिन हर बार वह अपना तर्क देकर इस बात को टाल जाती. ऋचा ने भी इस विषय पर ज्यादा चर्चा करना ठीक नहीं समझा और इस पर बात करना बंद ही कर दिया . यह बात अब आई गई हो गई थी .

किन्तु चमगादड़ की अशुभता अब अपना प्रमाण देने लगी थी . लगातार घर में बढ़ती परेशानियों , श्रेया की बीमारी और आशीष की
दुर्घटना ने ऋचा की बात याद दिला दी. इसलिए मौका निकालकर उसने सबसे पहले बालकनी में जाली लगवाई ताकि किसी तरह वे लोग चमगादड़ से छुटकारा पा सकें .

सच है कि कई बार जो बातें हमें अंधविश्वास भरी लगती हैं उनमें एक सच्चाई छिपी होती है.

दरअसल वास्तु के अनुसार घर में इनके प्रवेश के साथ ही नकारात्मक शक्ति का भी प्रवेश होता है.. यहां तक की ये मृत और बुरी आत्माओं के साए का भी वाहक होते हैं ।
नकारात्मक उर्जा से परिजनों में झगड़े और विवाद की परिस्थितियां बनने लगती हैं और दूसरे अनिष्ट की सम्भावनाएं बढ जाती हैं।
वास्तु के अनुसार जिस घर में चमगादड़ प्रवेश होता है वह जल्द ही खाली मकान बन जाता है.. घर के सदस्य वहां से जाने लगते हैं और वहां सन्नाटा छा जाता है।
इन के वास के साथ ही घर के परिजनों पर मौत का साया छा जाता है।
चमगादड़ का घर में आना मौत का संकेत होता है|
चमगादड़ के घर में आने से मौत को आमन्त्रण मिलता है इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी हैं। असल में इनके पंखों में बेहद घातक बैक्टीरिया होते हैं। इनके इन्फेक्शन से इन्सान की मौत हो सकती है। दुनिया में इनके हमले से मौत के कई मामले सामने आ चुके हैं। आज के समय में इबोला जैसे घातक बिमारी भी इन्हीं की वज़ह से फैल रही है। इबोला से जुड़े ताजा शोध में इस बात की पुष्टी हुई है कि चमगादड़, बन्दर और गोरिल्ला इस बीमारी के वाहक हैं। इस तरह की लालइलाज बिमारियों के वाहक होने का कारण ही यह कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति पर यह हमला कर दे तो समझों उसकी मौत हो गई।
(साथियों, यह  कोई अंधविश्वास नहीं है. यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है .)



गुरुवार, 11 जनवरी 2018

उस दिन  - कथाकाव्य 



उस दिन भोजन पकाकर
पसीने से तर-ब-तर बहू ने
कुछ ठंडी हवा खाने की चाह में
रसोई की खिड़की से बाहर झाँका ही था
कि पूरे घर में खलबली सी मच गई।
ससुर जी जोर- से झल्लाए.
सासू माँ का हाथ पकड़ रसोई में ले आए
और बोले,
"इसके चाल चलन में खोट है!क्या तुम्हें नजर नहीं आता!  ये बाहर गाड़ी में बैठे ड्राइवर को ताक रही थी। अगुआ ने तो नाक ही काट ली हमारी।
ऐसे बुरे चाल- चलन वाली लड़की को हमारे मत्थे मढ़ दिया।
आने दो शाम को बताता हूँ  तुम्हारे बेटे को
 कि क्या - क्या कार-गुजारियाँ
रसोई की खिड़की से होती है!  "
सुनकर ससुर की बात
बहू वही थर - थर काँप रही थी।
संस्कारों में बंधी थी।
बड़ों के मुंह लगने की आदत न थी।
सो जवाब कुछ न दे पाई.
भागी - भागी अपने कमरे में आई और तकिये में मुंह छिपाए रोने लगी.
आँखों  से आँसू भर - भर गिरते थे,
जो थमने का नाम ही नहीं  लेते थे.
कहती भी क्या?
जब से शादी करके
इस घर की दहलीज के भीतर आई थी.
मानो ससुराल वालों ने
एक परमानेन्ट नौकरानी पाई थी.
रोज की झिड़की और तानों की आदत हो गई थी.
उम्र कम थी .
मानो बाल विवाह ही था.
मायके में पिता से डरती थी.
ससुराल में ससुर की चलती थी.
बेचारा पति उससे प्यार तो करता था
पर वह भी अपने पिता से खूब डरता था
घर में उसका भी
न कोई मान था, न सम्मान था.
वह तो पिता के इशारों का गुलाम था.

रात को थका - हारा पति घर लौटा।  जूते उतार कर कपड़े बदलने के लिए कमरे की ओर मुड़ा ही था कि क्रोध में भरे पिता ने उसे आवाज लगाई.
"आइए! अपनी बीवी की करतूत सुनिए. (व्यंग्‍य भरे लहजे में. )
दिन -भर रसोई की खिड़की में खड़े - खड़े गैर मर्दों से नैन - मटक्का करती है।  अब हमसे और नहीं संभाला जाता।  आप अपनी बीवी को इनके मायके छोड़ आइए या नौकरी - वौकरी छोड़ कर इनकी खिदमत में जुट जाईये!
मैं कहता हूँ - देख लेना सबके सब! कल को यही होगा, ये लड़का पंद्रह दिन अपनी नौकरी करेगा और पंद्रह दिन, अपनी बीवी की रखवाली!  "
इस तरह खूब खरी- खोटी सुनाकर पिताजी अपने कमरे में चल दिए।
बेचारे पति के मुंह से एक शब्द न फूटा।
पत्नी की आँख के आंसू जो शाम होते - होते
 कुछ थम  गए थे, वे फिर बह निकले थे। पत्नी ने बाहर आकर भोजन परोसा।
पर भूखे- प्यासे पति के गले से खाने का एक भी निवाला न उतरा। पत्नी के आँसू और तेजी से बह निकले।  इस घर में उसे अपना भविष्य साफ- साफ नजर आ रहा था और पति बेचारा अपने सिर पर हाथ रखे रात- भर न जाने क्या सोचता रहा।