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बुधवार, 3 मई 2017

आख़िरी लम्हा


 आख़िरी लम्हा

और हाथ से रेत की तरह फिसल गया
जो कुछ अपना सा लगता था!
दोनों हाथों को मैं निहारता रहा
बेबस, लाचार, निरीह - सा
और सोचता रहा, कहाँ से चला था,
पहुंचा कहाँ हूँ!

उम्र की साँझ ढलने को है,
कितना कुछ छूट गया पीछे,
खड़ा हूँ, अतीत के पन्नों को पलटता हुआ,
भूतकाल की सीढ़ियों से गुजरता हुआ!
पुरानी यादों के कुछ लम्हे,
खुशियों और गम में बंटे हुए!
खोकर कुछ पाया था !
पाकर कुछ खोया था

इधर मैले कुचैले से कुछ ढेर
उधर जर्जर - सी खाली पड़ी मुंडेर!
उजड़े हुए घोसले
वीरान खड़े पेड़!

न चिड़ियों का कलरव,
न बच्चों की आहट!
न बाहर से कोई दस्तक,
न भीतर कोई सुगबुगाहट!

समय उड़ रहा है पंख लगाए
अब न किसी के आने की आस
न किसी के जाने की फिकर
सब कुछ बेतरतीब तितर बितर

घड़ी की टिक- टिक के साथ,
गुजरते पलों में,
उस आखिरी लम्हें का इंतज़ार

बस अब यही है पाने को.....