मंगलवार, 22 जून 2021

संकट मोचक हे हनुमान (भजन)

 संकट मोचक हे हनुमान,

चहुँदिस पसरा है अज्ञान। 

कोरोना की मार पड़ी है 

उलझन में बिखरा इंसान।। 


आई विपदा हमें संभालो

इस संकट से प्रभु बचा लो। 

संजीवनी की आशा तुमसे 

शरण में अपनी लो भगवान।। 


काल नेमि का काल बने तुम 

कनक लंक को जार दिए तुम। 

भक्तों का तुम एक सहारा 

करो कृपा हे कृपा निधान।। 


राम तुम्हारे हृदय समाए 

महिमा तुम्हारी कही न जाए। 

अष्ट सिद्धियों के तुम स्वामी 

खुशियों  का दे दो वरदान।। 


सोमवार, 14 जून 2021

कर्ज़

 

मन हरण घनाक्षरी 

विषय :कर्ज़(11/10/2020) 

 

रूखा सूखा खाइए जी 

ठंडा पानी पीजिए जी 

दूजे से उधार किन्तु 

लेने नहीं जाइए 


रातों को न नींद आए 

दिन का भी चैन जाए 

भोगवादी धारणा को

चित्त से हटाइए 


जीना भी मुहाल होगा

दुख बेमिसाल होगा, 

धैर्य सुख का है मंत्र 

उसे अपनाइए 

 

श्रम से विकास होगा 

दीनता का नाश होगा 

श्रम से ही जीवन को

सफल बनाइए 


 सुधा सिंह व्याघ्र 














रविवार, 6 जून 2021

गरीब, गरीबी और उनका धाम

एक चौराहा, 

उसके जैसे कई चौराहे, 

सड़क के दोनों किनारों के 

फुटपाथों पर बनी नीली- पीली, 

हरी -काली पन्नियों वाली झुग्गियाँ, 

पोटली में लिपटे कुछ मलिन वस्त्र... 


झुग्गियों के पास ईंटों का 

अस्‍थायी चूल्हा.... 

यहाँ- वहाँ से एकत्रित की गई

टूटे फर्निचर की लकड़ियों से 

चूल्हे में धधकती आग, 

चूल्हे पर चढ़े टेढ़े - मेढ़े

कलुषित पतीले में पकता 

बकरे का माँस,  

ज्येष्ठ की तपती संध्या में 

पसीने से लथपथ चूल्हे के समक्ष बैठी 

सांवली-सी गर्भवती स्त्री की गोद में 

छाती से चिपटा एक दुधमुँहा बालक, 

रिफाइंड तेल के पाँच, दस, पंद्रह लीटर के 

पानी से भरे कैन,

कैन से गिलास में पानी उड़ेलने का 

असफल प्रयास करती पाँच छः वर्ष की

मटमैली फ्राक पहनी बालिका, 

दाल - भात से सना बालिका का मुख, 

पानी पीने को व्यग्र, 

बहती नाक और आँख से बहती अश्रु धारा से

भीगे साँवले कपोल, 


बगल ही बैठा खुद में निमग्न 

एक सांवला, छोटा कद पुरुष, 

उसकी बायीं कलाई में नीलाभ

रत्नजड़ित लटकती गिलेट की मोटी ज़ंजीर,

भूरे जले से केश, 

हरे रंग की अनेक छेदों वाली बनियान,

दो उंगलियों के बीच फँसी सिगरेट से निकलता धुआँ,

दूसरे हाथ में बियर की एक बोतल और  

सामने ही कटोरे में रखी कुछ भुनी मूँगफलियाँ, 


झुग्गी की दूसरी ओर पाँच छह हमउम्र दोस्तों में 

चलती ताश की बाजी,

नीचे बिछे कपडे पर लगातार गिरते और उठते रुपए, तमाशबीनों का शोर...

हवा में उड़ते बहते अपशब्द और निकृष्ट गालियाँ. 


एक ओर बहुधा लंबी कतारें लगवाकर 
नए - पुराने वस्त्र, दाल, चीनी, गुड़, 
केले, छाते का दान करने आई 
बड़ी-सी कारों से उतरते सभ्य, 
संभ्रांत, धनाढ्य दानवीर स्त्री-पुरुष , 
कहीं पुण्यार्जन की ललक, 
कहीं अधिकाधिक पाने की लालसा, 


उभरे पेट लिए सड़क पर घूमते अधनंगे बालक, 

फुटपाथ से सड़क तक अतिक्रमण, 

अवरुद्ध राहें, 

सड़क पर लगा लंबा जाम 

एक परिदृश्य आम, 

यही है गरीब, गरीबी और उनका धाम... 


 



मंगलवार, 1 जून 2021

मनुहार - व्याघ्र छंद

अम्बर सजे तारे, खुला हिय का हर द्वार है 

खुशियाँ सिमट आईं,बही प्यार की बयार है 


त्योहार की ऋतु है, 

बजे ढोलकी मृदंग हैं। 

प्रिय साथ दे जो तू, 

उठे प्रीत की तरंग है।। 

उपवन भ्रमर गूँजे , करे सोलह शृंगार है। 


आजा कि तेरे बिन, 

बना आज मैं मलंग हूँ। 

रति प्राण मेरी तू, 

सुनो मैं प्रिये अनंग हूँ।। 

संगम तुझी से हो,जिया की यह मनुहार है। 


रंगीन हर इक पल,  

भरा पूरा संसार हो। 

महके पुहुप द्वारे, 

अजिर गूंजे किलकार हो।। 

बरसे बदरिया यूँ, लगी श्रावणी फुहार है ।


व्याघ्र छंद का शिल्प विधान ■ (1)


वार्णिक छंद है जिसकी मापनी और गण निम्न प्रकार से रहेंगे यह दो पंक्ति और चार चरण का छंद है जिसमें 6,8 वर्ण पर यति रहेगी। सम चरण के तुकांत समान्त रहेंगे इस छंद में 11,14 मात्राओं का निर्धारण 6, 8 वर्णों में है किसी भी गुरु को लघु लिखने की छूट है इस छंद में लघु का स्थान सुनिश्चित है। लघु जहाँ है वहीं पर स्पष्ट आना चाहिए। मापनी का वाचिक रूप मान्य होगा।

221 222

122 222 12


तगण मगण

यगण मगण लघु गुरु (लगा)


 


मंगलवार, 4 मई 2021

ओ कान्हा मोरे

 

ओ कान्हा मोरे (भजन) 



ओ कान्हा मोरे, बंसी फिर से बजा दो। 

तुम्हरे दरस को प्यासे नैना, फिर से दरस दिखा दो।। 



तुम बिन मन मेरा, लागे कहीं न अब। 

तुमसे दूरी, जाए सही न अब ।। 

रिश्ते- नाते , रूठ गए सब। 

कैसे बिताऊँ, दिन- रैना अब।। 

आकर तुम ही बता दो । 

ओ कान्हा मोरे, बंसी फिर से बजा दो।। 


तुमको अपना, सबकुछ माना। 

मन उजियारा, भर दो कान्हा।। 

जाऊँ यहाँ या, उत मैं जाऊँ। 

धर्म - अधर्म कुछ, समझ न पाऊँ।। 

गीता फिर से सुना दो। 

ओ कान्हा मोरे, बंसी फिर से बजा दो।। 


मोर मुकुट, पीताम्बर धारी। 

अंतिम आशा, तुम हो हमारी।। 

है छवि तुम्हरी, अति मनभावन। 

चरण में तुम्हारे, पतझड़ - सावन ।। 

प्रेम की बरखा करा दो। 

ओ कान्हा मोरे, बंसी फिर से बजा दो।। 



शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

टूटी जब आशा की डोरी

 नवगीत:टूटी जब आशा की डोरी


टूटी जब आशा की डोरी,बढ़ते कदम उठाते हाला।

काली तमस गली को छाने, ढूँढे कोई नया उजाला।।


जकड़ निराशा के बंधन में 

छवि अपनी धूमिल करते हैं।

कर्मों को भूले बैठे जो,

वे कब ईश्वर से डरते हैं।।

सूझे उचित और ना अनुचित 

बढ़ती जब आँतों की ज्वाला।


भ्रम के अंधकूप में भटके,

जाने कैसी ये विपदा है

आत्मतुष्टि की गहन पिपासा 

बड़ी तात्क्षणिक ही सुखदा है

शब्दों की गरिमा जाने ना

व्यवहार हुआ है बेताला 




सुधा सिंह 'व्याघ्र'

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

काल क्रम का फेरा

 


काल क्रम का फेरा 


हर साँस नम हुई है, हर आँख रोई रोई

है दौर कैसा आया, हतबुद्धि सोई सोई। 


अवसान का है तांडव 

भयाक्रांत हर मनुज है

अनुराग है विलोपित

संशय का पसरा पुँज है 

विश्वास की चिरैया, उड़ती है खोई खोई 



चहुँदिश गरल का डेरा 

है काल क्रम का फेरा 

चीख़ों में सनसनाहट 

बढ़ा तिमिर है घनेरा

चेहरों पे चढ़े चेहरे, मानव है कोई कोई 


घट आस का है फूटा 

कुंठा का लगा मेला 

पथभ्रष्ट हुआ मानव 

किया प्रकृति से खेला 

बोझिल हुई है धरणि, फिरे पाप ढोई ढोई





शनिवार, 3 अप्रैल 2021

चंचल तितली

 नवगीत :1 चंचल तितली 


मतवाली वह छैल छबीली   

लगती ज्यों हीरे की कनी।

डोले इत उत पुरवाई सम

राहें वह भूली अपनी । 



चंचल चितवन रमणी बाला

स्वप्न स्वर्णिम उर सजाती

दर्पण में छवि निरख - निरख के

खूब लजाती इठलाती

ओढ़े गोरी पीत चुनरियाँ 

प्रीत रंग में आज सनी 


उपवन खेतों खलिहानों में 

हिरनी सी वो डग भरती

गौर गुलाबी सी अनुरक्ता

मन ही मन प्रिय को वरती

रानी वह तो रूप लवण की

रहती हरपल बनी ठनी ।


यौवन की देहरी छूकर जब

कलियों ने ली अँगड़ाई

धरा मिलन को तरसे बादल 

उमड़ घुमड़ बरखा आई 

बहकी बहकी चंचल तितली 

आकर्षण का केंद्र बनी 





सोमवार, 29 मार्च 2021

मौन चिल्लाने लगा...

 मौन चिल्लाने लगा...... (नवगीत) 



कौन किसका मित्र है और, 

कौन है किसका सगा। 

वक़्त ने करवट जो बदली, 

मौन चिल्लाने लगा।


बाढ़ आई अश्रुओं की, 

लालसा के शव बहे। 

काल क्रंदन कर रहा है, 

स्वप्न अंतस के ढहे ।। 

है कहाँ सम्बंध व‍ह जो, 

प्रेम रस से हो पगा ।


द्वेष के है मेह छाए, 

तिमिर तांडव कर रहा ।

जाल छल ने भी बिछाया, 

नेह सिसकी भर रहा।। 

है पड़ा आँधी का चाबुक, 

आस भी देती दगा। 


कंटकों की है दिवाली, 

फूल तरुवर से झरे। 

पीर ने उत्सव मनाया, 

सुख हुए अतिशय परे।। 

काल कवलित हुआ सवेरा, 

तमस का सूरज उगा। 






 

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

मृत


दफ़्न हूँ जहाँ

वहीं जी भी रही हूँ, 

इन दीवारों के 

आगे का जहां 

बस उनके लिए है।


मृत हैं ये दीवारें

या मैं ही मृत हूँ

वो हिलती नहीं 

और स्थावर मैं

जिसे रेंगना मना है।