रविवार, 6 दिसंबर 2020

तुम कहाँ हो भद्र???

 तुम कहाँ हो भद्र??? 


उस दिन मन निकालकर

कोरे काग़ज़ पर

बड़ी सुघड़ता से रख दिया था मैंने।

सोचा था किसी दृष्टि पड़ेगी तो

अवश्य ही मेरे मन की ओर

आकर्षित हो व‍ह भद्र

उसे यथोपचार देकर

अपने स्नेह धर्म का

निर्वहन करेगा।

पल बीते, क्षण बीते,

बीती घड़ियाँ और साल।

मन बाट जोहता रहा किन्तु

भद्र के पद चिह्न भी लक्षित नहीं हुए ।

(भद्र यथा संभव काल्पनिक पात्र है।)

मन पर धूल की परत चढ़ती रही

और मन अब अत्यंत मलिन,

कठोर और कलुषित हो चुका है।


#@sudha singh

रविवार, 1 नवंबर 2020

जी करता है... नवगीत

 


जी करता है बनकर तितली 

उच्च गगन में उड़ जाऊँ 

बादल को कालीन बना कर 

सैर चांद की कर आऊँ 


दूषित जग की हवा हुई है 

विष ने पाँव पसारे हैं 

अँधियारे की काली छाया 

घर को सुबह बुहारे है 


तमस रात्रि को सह न सकूँ अब 

उजियारे से मिल आऊँ 

बादल को कालीन बना कर 

सैर चांद की कर आऊँ 


अपने मग के अवरोधों को

ठोकर मार गिराऊँगी

शक्ति शालिनी दुर्गा हूँ मैं 

चंडी भी बन जाऊँगी 


इसकी उसकी बात सुनूँ ना

मस्ती में बहती जाऊँ 

बादल को कालीन बना कर 

सैर चांद की कर आऊँ 

शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

भूल जाते हो तुम

 भूल जाते हो तुम कि 

एक अर्से से तुम्हारा साथ

केवल मैंने दिया है

जब जब तुम उदास होते 

मैं ही तुम्हारे पास होती 

तुम अपने हर वायदे में असफ़ल रहे

और मैंने अपने हक की 

शिकायतें कीं किन्तु 

उन वायदों के पूरा होने का इंतज़ार भी किया 

और आज भी इंतज़ार में ही हूँ 

 फिर भी तुम अक्सर 

ये एहसास दिला ही देते हो 

 कि तुम्हारे लिए मैं उतनी महत्वपूर्ण नहीं 

जितने वे हैं, जो तुम्हारे साथ कभी खड़े नहीं रहे 

 क्यों तुम ये भूल जाते हो कि 

जीवन साथी जीवन भर 

साथ निभाने के लिए होता है 

खोखले वायदे करके 

जीवन पर्यंत भरमाने के लिए नहीं. 

 फिर भी इंतज़ार करूँगी मैं, तब तक, 

जब तक तुम्हारा चित्त 

यह गवाही न देने लगे 

कि तुमने मेरे जीवन में मेरे 

साथी के रूप में प्रवेश किया है

और तुम्हें अपने कर्तव्यों का पालन  

अब शुरू कर देना चाहिए 

 


 

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

इस गगन से परे

 गीत :इस गगन से परे (10,12)


इस गगन से परे, 

है मेरा एक गगन  

झूमते ख्वाब हैं  

नाचे चित्त हो मगन 

1

अपनी पीड़ा को 

खुद से परे कर दिया 

दीप उम्मीद का  

देहरी पर धर दिया 

अब धधकती नहीं 

मेरे चित्त में अगन ...इस गगन से... 

2

प्यारी खुशियों से 

वो जगमगाता सदा 

चंदा तारों से 

हरदम रहे जो लदा 

नाचती कौमुदी 

होता मन का रंजन .... इस गगन से...

3

हुआ उज्ज्वल धवल 

मेरे मन का प्रकोष्ठ 

गाल पर लालिमा 

मुस्कुराते हैं ओष्ठ

हर्ष से झूमता 

फिर से मेरा तन मन.... इस गगन से...


 



 

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

सुनो बेटियों

 सुनो बेटियों जौहर में तुम 

कब तक प्राण गँवाओगी। 

हावी होगा खिलजी वंशज

जब तक तुम घबराओगी।। 


रहना छोड़ो अवगुंठन में  

हाथों में तलवार धरो। 

चीर दो तुम शत्रु का सीना  

पीछे से मत वार करो।। 

डैनों में साहस भर लोगी 

तुम तब ही उड़ पाओगी। हावी.... 


दुर्गा हो तुम शक्ति स्वरूपा

महिषासुर संहार करो। 

दुर्बलताएँ त्यागो अपनी

हर विपदा को पार करो।। 

यूँ कब तक अबला बनकर तुम 

घुट घुट जीती जाओगी। हावी... 


अपनी क्षमता को पहचानो

पद दलिता बन क्यों जीना। 

दूषित नजरों से निकला जो 

विष अपमान का क्यों पीना।। 

कब तक लोक लाज में पड़कर 

खुद को ही भरमाओगी। हावी... 











 

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

लबादा


 

अपना भारी - भरकम 

लबादा उतारकर

मेरे फ़ुरसत के पलों में 

जब तब बेकल- सा 

मेरे अंतस की 

रिसती पीर लिए

आ धमकता है मेरा किरदार

और प्रत्यक्ष हो मुझसे 

टोकता है मुझे

कि तुझे तलाश रहा हूँ

एक अन्तराल से, 

मानो बीते हो युग कई 

कि कभी मिल जा 

मुझे भी तू,

तू बनकर 

वरना खो जाएगा 

उस भीड़ में जो

जो तेरे लिए नहीं बनी...

और 

वर्षों से जिसे मैं हर क्षण 

दुत्कारता आया हूँ 

कि दुनिया को भाता नहीं

तेरा सत्य स्वरूप 

तू ओढ़े रह व‍ह लबादा वरना  

खो जाएगी तेरी पहचान 

स्मरण रहे कि 

तुझे लोग उसी आडंबर में 

देखने के आदी हैं 

अनभिज्ञ है तू 

कि असत्य ही तो सदा 

बलशाली रहा है 

फिर तू क्यों

मुझे दुर्बल बनाने को आतुर है 

यह विभ्रम है, 

यह मरीचिका है 

ज्ञात है मुझे

किन्तु यही तो 

उनके और मेरे 

सौख्य का पोषण है 

और यही जीवनपर्यंत उन्हें

मेरी ओर लालायित करता है 

चल ओढ़ ले पुनः 

अपना यह सुनहरा लबादा 

कि तेरा विकृत रूप कहीं 

परिलक्षित न हो जाए। 

  

रविवार, 13 सितंबर 2020

शिव जी की स्तुति ( भजन)

 


शंकर भज लो जी, 

हाँ जी शंकर भज लो जी 

पूजन कर लो जी 

हाँ जी, शंकर भज लो जी 


शिवजी ही आराध्य हमारे

हम जीते हैं उनके सहारे 

पिनाक धारी, डमरूवाले 

शशांक शेखर, हैं रखवाले 

 सुमिरन कर लो जी 

(टेक :शंकर भज लो जी) 


भोले न चाहे चांदी सोना

उर में रखना भक्ति का कोना

दिल से जो एक बार पुकारें 

बाबा हरेंगे कष्ट हमारे 

आरती गा लो जी (टेक :शंकर भज लो जी) 


बेल पत्र से खुश हो जाएँ 

चलो धतूरा भांग चढ़ाएँ

प्रेम भजन से उन को मना लो 

जो कुछ चाहो शम्भु से पा लो 

वंदन कर लो जी (टेक :शंकर भज लो जी) 



गुरुवार, 10 सितंबर 2020

गणपति स्तुति :दोहे


1:

यही मनोरथ देव है, रखिए हम पर हाथ। 

सुखकर्ता सुख दीजिए , तुम्हें नवाऊँ माथ।। 


 2:

प्रथम पूज्य गणराज जी, पूर्ण कीजिए काज।

सकल मनोरथ सुफल हों, विघ्न न आए आज।।


 3:

वक्रतुण्ड हे गजवदन , एकदंत भगवान 

आश्रय में निज लीजिए, बालक मैं अनजान। 

4:

रिद्धि-सिद्धि दायी तुम्हीं, दो शुभता का दान 

ज्ञान विशारद ईश हे , प्रज्ञा दो वरदान।। 

 


5:

हे देवा प्रभु विनायका, गौरी पुत्र गणेश।

प्रथम पूजता जग तुम्हें , दूर करो तुम क्लेश।। 


6:

मुख पर दमके है प्रभा, कंठी स्वर्णिम हार।

प्रभु विघ्न को दूर करो, हो भव सागर पार ।। 


7:

ज्ञानवान कर दो मुझे , माँगूँ यह वरदान।

शरण तुम्हारे मैं पड़ी, देवा कृपा निधान।। 


8:

दुखहर्ता रक्षक तुम्हीं, तुम हो पालन हार।,

पार करो भव मोक्षदा, तुम ही हो भर्तार ।। 


9:

मंगलमूर्ति कष्ट हरो, संकट में है जान ।

आयी हूँ प्रभु द्वार मैं , रखिए मेरा मान ।।

 

10:

हे गणपति गणराज हे, दर्शन की है प्यास 

देव मेरी पीर हरो,तुमसे ही है आस।। 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

कह दो न मुझे अच्छी

 


कह दो न मुझे अच्छी, 

यदि लगे कि अच्छी हूँ मैं 

तुम्हारे मुँह से, 

अपने बारे में, 

कुछ अच्छा सुन शायद 

थोड़ी और अच्छी हो जाऊँगी मैं, 

अपने जीवन में कुछ बेहतर, न न.. 

शायद बेहतरीन, कर पाऊँगी मैं 


बढ़ा दो न 

अपनी प्यार भरी हथेली मेरी ओर 

कि पाकर तुम्हारा सानिध्य, 

तुम्हारी निकटता, शायद 

निकल पाऊँ जीवन के झंझावातों से 

और गिरते - गिरते संभल जाऊँ मैं 


और दे देना, 

मुझे छोटा - सा, 

नन्हा- सा एक कोना अपने 

हृदय की कोठरी में कि 

कइयों जुबाने

मुझे लगती हैं, कैंची सी आतुर, 

कतरने को मुझे 

शायद तुम्हारे अंतस  का 

अवलंबन ही मुझे मनुष्य बना दे 


बोलो क्या कर सकोगे तुम, 

यह मेरे लिए, या, अपने लिए 

क्योंकि तुम में और मुझमें 

अंतर ही क्या है?? 

हो जाने दो, यह सम्भव 

वस्तुतः तुम्हारा मैं 

और मेरा तुम हो जाना ही 

तो प्रकृति है न 


यह समर्पण भाव ही तो 

मनुष्यता कहलाती है 

आओ तुम और मैं 

हम दोनों, 

आज से मनुष्य बन जाते हैं।




सोमवार, 24 अगस्त 2020

श्री गणेश स्तुति



हे गणपति, हे गणराया। 

समझ न पाए, कोई तेरी माया ।1। 

 

शिव पार्वती के, तुम हो दुलारे ।

 शीश पे सोहे, मुकुट तुम्हारे।2।


प्रथम देव तुम, पूजे जाते ।

पाँव तुम्हारे, नूपुर सुहाते ।3।


सारा जग करता, है तेरा ही वंदन ।

सह नहीं सकता, तू भक्तों का क्रंदन ।4।


डिंक मूषक की, तू करता सवारी।

कष्टों को तू, हरता हमारी ।5 ।


हे लंबोदर, हे बुद्धि दायी।

विनायका, है तू वरदायी ।6।


चंद्र भाल तेरे, खूब है सुहाता ।

गज वदना तू, भाग्य विधाता ।7।


सुर, मुनि, सज्जन, तुझको पूजे ।

तेरा ही नाम, इस जगती में गूँजे।8।


पिंगल नैना, वज्रांकुश है कर ।

धूम्र वर्ण शुचि , शुंड विशाल धर।9।


मुक्ता हार तेरे , कंठ में साजे। 

 सारे जग में तेरा, मंगल बाजे ।10।


छवि है तुम्हारी, अति मनभावन।

उद्भव तुम्हारा, है मंगल पावन।11।


रिद्धि और सिद्धि का, तू है स्वामी ।

कण - कण में, तू ही अन्तर्यामी ।12।


दूर्वा तुमको, अति मन भाए ।

वेश पीताम्बर, तुमको सुहाए ।13।


भादों चौथ का, जन्म तुम्हारा ।

सब दुखियों का, तू एक सहारा ।14।


आरती तेरी, प्रभु मैं गाऊँ ।

लड्डू और मेवा का, भोग लगाऊँ ।15।


पूरण इच्छा, तुम करते हो ।

आदि देव देवा , प्रणव तुम्हीं हो ।16।


शुभ और लाभ, तनय तुम्हारे ।

दाता तुम, हम दास तुम्हारे ।17।

 

मोदक तुझको, अति प्रिय देवा ।

करूँ दिन रात मैं, तेरी ही सेवा ।18।


एकदंता हे, चार भुजा धारी ।

आए हैं हम, शरण तुम्हारी ।19।


ज्ञानवान देवा , हमको बना दे ।

मग सच्चाई का, हमको दिखा दे ।20।









रविवार, 19 जुलाई 2020

कैसे भी हों हालात मगर...


कैसे भी हों हालात मगर ,
सफर अपना जारी रखो।
डगर में मुश्किलें आएंगी कई 
उनसे लड़ने की तैयारी रखो।1।

बढ़ते कदमों को रोकने वाले,
राह में मिल जायेंगे बहुत, 
जो आ सको काम किसी के, 
वो नीयत ,वो दिलदारी रखो।2।

पेट की आग इंसान को 
इंसान रहने देती नहीं,
बाँट लो अपनी रोटी का एक टुकड़ा उससे, खुद को स्वल्पाहारी रखो।3।

सियासत के इस खेल में, 
अपने और पराए ढूँढ पाओगे नहीं,
बस रह जाए साख सलामत अपनी, उतनी तो जानकारी रखो।4।

देखकर दुनिया का चलन 'सुधा ',   अब तो डर लगता है बहुत,
कहीं खत्म न हो जाए इंसानियत थोड़ी उसपे भी पहरेदारी रखो।5।






शनिवार, 11 जुलाई 2020

दोहे-वर्षा ऋतु



1:दादुर: 

दादुर टर- टर बोलते,बारिश की है आस। 
बदरा आओ झूमके, करना नहीं निराश।।
 
2 :हरीतिमा: 

वृक्ष धरा पर खूब हो,  भरे अन्न भंडार ।
हरीतिमा पसरे यहाँ, हो ऐश्वर्य अपार।। 

3:वारिद::

वारिद काले झूमके, करते जब बरसात। 
मोर पपीहा नाचते, हों आह्लादित पात।। 

4:चातक:

ताके चातक स्वाति को, होकर बड़ा अधीर। 
पीकर बूंदे स्वाति की , मिटती उसकी पीर।। 

5:दामिनी :

अम्बर चमके दामिनी, बचकर रहना यार। 
जो उसके मग में पड़े , करती उसपर वार।। 

6:कृषक :
*कृषक* उगाता अन्न है,रखता सबका ध्यान। 
रात दिवस उद्यम करे, मिले न लेकिन मान।। 

7:पछुआ :

जब समीर पछुआ बहे ,गर्मी तब बढ़ जाय। 
पानी की हो तब कमी, लू तन को झुलसाय।।

8:पावस :

तपन बढ़े जब ग्रीष्म से , आए *पावस* झूम। 
पशु पक्षी तब नाचते, मचे खुशी से धूम।। 

9:वृक्षारोपण :

वृक्षारोपण कीजिए, फिर होगा कल्याण। 
खिल जाएगी ये धरा, होगा सबका त्राण।।

10:बरसात :

माह सावन बीत गया,कृषक हुए हैरान। 
बूंद इक भी नहीं गिरी,घर में अन्न न धान।।

रविवार, 21 जून 2020

जीवन:

मुक्तक

जियो तुम इस तरह जीवन, 
तुम्हारी धाक हो जाए।
करो कुछ कर्म ऐसे कि, 
सभी आवाक हो जाएं।

वो जीवन भी है क्या जीवन ,
हताशा में बिता दे जो,
लगा लो आग सीने में ,
कि हर गम खाक हो जाए।।

सोमवार, 15 जून 2020

सुशांत सिंह राजपूत


कैसे कह दूँ कि तू राजपूत था
राजपूतों का इतिहास अजर है अमर है

किसी राजपूत ने रणक्षेत्र में
आज तक पीठ नहीं दिखाई
तू कैसे हार गया जिन्दगी की बाज़ी. 
तूने कैसे उससे मुँह की खाई!!! 

तू जिन्दगी को रणक्षेत्र ही समझ लेता. 
जिन्दगी की दुश्वारियों से थोड़ा और लड़ लेता. 

यूँ  हार जाता लड़ते लड़ते, 
जूझते-जूझते तो भी तेरी शान होती.
अपने नाम का मान रख लेता
तो बढ़ी तेरी आन होती 

ये कैसा कायरता पूर्ण व्यवहार है तेरा
ईश्वर को तू क्या मुँह दिखाएगा?? 
आत्महत्या जैसे घृणित पाप
का दंश क्या तू सह पाएगा??? 

कैसे कह दूँ तू राजपूत था 

अश्रु पूरित श्रद्धांजलि 🙏 🙏 🙏 
सुशांत 😔😔
Pls come back 


शनिवार, 13 जून 2020

हे जग तारणहार


 
अमीर छंद 
**************
विधान ~ 11,11

हे जग तारणहार । 
कर जोड़ूँ बारंबार।। 
हम सबके भर्तार। 
कर दो बेड़ा पार।। 

बढ़ा है दुराचार। 
उच्छृंखल व्यवहार।। 
नफरत का बाजार। 
जिसका न पारावर।। 

कोरोना की मार। 
ठप्प पड़ा व्यापार।। 
घर ही कारागार। 
हर कोई लाचार।। 

दुख है अपरंपार। 
जीना है दुश्वार।। 
जग के पालनहार। 
मग मैं रही निहार।। 

युग युग से सरकार। 
तुम सबके आधार।। 
ले लो फिर अवतार। 
सुंदर हो संसार।। 

   🙏🙏

शुक्रवार, 12 जून 2020

रेखाएँ


रेखाएँ
रेखाएँ, 
रेखाएँ बहुत कुछ कहती हैं... 

उदासीनता, निस्संगता का 
सुदृढ़ रूप रेखाएँ, 
निर्मित होती हैं भिन्नताओं के बीच 
दो बहिष्कृतों के बीच 
दो सभ्यताओं के बीच 
एक मोटी दीवार सी 
दो सोच के बीच 
अमीर और गरीब के बीच 
ऊँच और नीच के बीच 

जो कहती हैं... 
इसमें और उसमें साम्‍यता नहीं है 
दूरी है, अलगाव है, एकरूपता नहीं है 
जैसे श्वेत, श्याम अलग हैं 
जैसे रात्रि, दिवा पृथक हैं 
ज्यों तेल और पानी का कोई मेल नहीं 

रेखाएँ कहती हैं कहानी 
विभाजन की
नादानी की 
मनमानी की 

ये आभास कराती हैं 
अपने और पराए के भेद का 
टूटने का, 
बिखरने का, 
जुदा होने का 

रेखाएँ निशानियां होती हैं 
अंतहीन महत्वाकांक्षाओं की
स्वार्थ की कभी न पटनेवाली
अथाह गहरी खाई की

रेखाएँ होती है वर्जनाएं 
ये तय करती हैं
सबकी सीमाएं 
मान्यताएँ और प्रथाएँ... 
जो हमेशा तनी रहती हैं 
अड़ी रहती हैं किसी अकड़ में 
किसी अहंकार में 
अपने अस्तित्व का 
परचम लहराते हुए 
मनुष्य पर अपनी सत्ता 
की धाक जमाते हुए 
धिक्कारते हुए... 
"देखो तुमने मुझे पैदा किया है।" 







रविवार, 7 जून 2020

विषय :प्रेम बीज



विधा :मनहरण  घनाक्षरी 



प्रेम का प्रसार हो जी, सुखी संसार हो जी। 
स्नेह बीज रोपने हैं, हाथ तो बढ़ाइये। 1।

दुख दर्द सोख ले जो, वैमनस्य रोक ले जो। 
छाँव दे जो तप्तों को, बीज वो लगाइए। 2।

प्रेम का हो खाद पानी, प्रेम भरी मीठी बानी ।
श्रेष्ठ बीज धरती से, आप उपजाइये ।3।

जो भी हम बोएँगे जी, वही हम काटेंगे भी। 
सोच के विचार के ही, कदम बढ़ाइये। 4।

सुधा सिंह 'व्याघ्र' 


शुक्रवार, 5 जून 2020

ओ चित्रकार


ओ चित्रकार, 
क्या तूने अपने चित्र पर सूक्ष्म 
विश्लेषणात्मक दृष्टि डाली?? 
कितनी खूबसूरती से तेरी कूची ने 
सजाई थी इस सृष्टि को 
अपने कोरे केनवास पर, 
कहीं गुंजायमान था 
पखेरुओं का कलरव मधुर गान 
कहीं परिलक्षित थी 
पर्वतों की ऊँची मुस्कान 
नदियों निर्झरों समंदरों
का कल - कल उर्मिल आल्हाद 
हरित वृक्ष लताओं से सजी 
वादियों का आशीर्वाद 
बिखेरे थे तूने आशाओं के 
रंग अनेकों, इस कैनवास पर 
कि हो जाए य़ह रंगबिरंगी
दुनिया हुलसित 
हो हर दिशा पुष्पों 
की गमक से सुरभित 
पसरी थी चतुर्दिक तेरी तूलिका 
से खींची मनोहारी अद्भुत रेखाएँ 
चित्ताकर्षक सबकुछ सुखद ललाम.. 
फिर क्या सूझी तुझे कि 
तूने एक मानव भी उगा दिया 
अपनी आखिरी लकीर से प्रकृति को दगा दिया 
छीन ली सदा सदा के लिए उसके चेहरे की लाली 
ओ चित्रकार, 
क्या तूने अपने इस चित्र पर पुनः निगाह डाली?? 




बुधवार, 3 जून 2020

पीढ़ी अंतराल


 मात्रा भार:(10,14)



पीढ़ी अंतराल,बड़ा मचाता है बवाल 
रोते हैं बुजुर्ग,उठा घर में है भूचाल।।

पीढ़ी नव कहती, नया आया है जमाना।
इनको तो बस है, हमपे हुक्म ही चलाना।
समझे नव पीढ़ी,  उन्हें जी का जंजाल।
पीढ़ी अंतराल,बड़ा मचाता है बवाल।।

मेरी ना सुनता,  नहीं बैठे मेरे पास।
सिसके हैं बुजुर्ग, हम न आएँ इनको रास।।
करें बस  धृष्टता , धरें अंतस नहीं मलाल।
पीढ़ी अंतराल,बड़ा मचाता है बवाल।।

नव और पुराना, ये टकराव घटाना है।
समझें दूजे को, मन के भेद मिटाना है।।
होंगे सब प्रसन्न, घर में होगा फिर धमाल।
पीढ़ी अंतराल,बड़ा मचाता है बवाल।।

सुधा सिंह 'व्याघ्र'

सोमवार, 1 जून 2020

हम सेवी.. तुम स्वामी

🌷  गीतिका 🌷
        🌺    देवी छंद   🌺   **********************
               मापनी- 112  2

हम सेवी। 
तुम स्वामी ।।

मुख तेरा ।
अभिरामी।।

पद लागूँ।
दिक- स्वामी।

हम दंभी।
खल कामी।।

अपना लो।
भर हामी।।

चित मेरा।
*क्षणरामी*।।

हँसते हैं।
प्रति गामी।।

कर नाना।
बदनामी।।

बन जाऊँ।
पथ गामी।।

सुधा सिंह 'व्याघ्र'


क्षणरामी- कपोत, कबूतर 




शुक्रवार, 29 मई 2020

शिव शंकर ,हे औघड़दानी (भजन)

भजन (16,14)


शिव शंकर ,हे औघड़दानी
बेड़ा पार करो मेरा।
भव अम्बुधि से, पार है जाना, 
अब उद्धार करो मेरा।। 

काम, क्रोध, व लोभ में जकड़ा, 
मैं   मूरख  , अज्ञानी हूँ ।।
स्वारथ का पुतला हूँ भगवन
मैं पामर अभिमानी हूं।।

भान नहीं है, सही गलत का,
करता  मैं, तेरा मेरा।
शिव शंकर ,हे औघड़दानी
बेड़ा पार करो मेरा।।

माया के चक्कर में उलझा 
मैंने कइयों पाप किये ।
लोगों पर नित दोष मढ़ा अरु 
कितने ही आलाप किये ।।

जनम मरण के छूटे बंधन 
मिट जाए शिव अंधेरा।
शिव शंकर ,हे औघड़दानी
बेड़ा पार करो मेरा।।

 मैं याचक तेरे द्वारे का 
भोले संकट दूर करो ।
क्षमा करो गलती मेरी शिव 
अवगुण मेरे चित न धरो ।।

रहना चाहूँ शरण तुम्हारी 
रुद्र बना लो तुम चेरा।
शिव शंकर ,हे औघड़दानी
बेड़ा पार करो मेरा।।

दुष्टों से पीड़ित यह धरती  
करती भोले त्राहिमाम ।। 
व्यथित हृदय को उसके समझो 
प्रभु लेती तुम्हारा नाम ।।

हे सोमेश्वर ,हे डमरूधर  
कष्टों ने आकर घेरा ।
शिव शंकर ,हे औघड़दानी
बेड़ा पार करो मेरा।।

गुरुवार, 28 मई 2020

कोरोना-

 माहिया छंद:(टप्पे 12,10,12)

कोरोना आया है
साथी सुन मेरे
अंतस घबराया है 

घबराना मत साथी
आँधी आने पर
कब डरती है बाती

ये हलकी पवन नहीं 
देख मरीजों को 
जाती अब आस रही

मत आस कभी खोना
सूरज निकलेगा
फिर काहे का रोना

बदली सी छायी है
देने दंड हमें 
कुदरत गुस्साई है

जीवन इक मेला है
दुःख छट जाएँगे
कुछ दिन का खेला है ।



बुधवार, 27 मई 2020

बीत गई पतझड़ की घड़ियाँ

नवगीत(16,14)



बीत गई पतझड़ की घड़ियाँ 
बहार ऋतु में आएगी 
पेड़ों की मुरझाई शाखें 
अब खिल खिल मुस्काएँगी 

नवकिसलय अब तमस कोण से  
अँगड़ाई जब जब लेगा
अमराई के आलिंगन में 
नवजीवन तब खेलेगा।

कोकिल भी पंचम स्वर में फिर
अपना राग सुनाएगी 
पेड़ों की मुरझाई शाखें 
अब खिल खिल मुस्काएँगी


सतगुण हो संचारित मन में 
दीप जले फिर आशा का 
तमस आँधियाँ शोर करें ना 
रोपण हो अभिलाषा का 

पुरवाई लहरा लहराकर 
गालों को छू जाएगी 
पेड़ों की मुरझाई शाखें 
अब खिल खिल मुस्काएँगी


तेरा दुख जब मेरा होगा 
मेरा दुख हो जब तेरा
जीवन में समरसता होगी 
होगा फिर सुखद सवेरा 

हरे भरे अँचरा को ओढ़े
वसुधा भी लहराएगी 
पेड़ों की मुरझाई शाखें 
अब खिल खिल मुस्काएँगी 

सुधा सिंह 'व्याघ्र'

प्रलयकाल


वो निकला है अपने ,
मिशन पर किसी।
मारे जाते हैं मासूम,
संत और ऋषि।।

क्रोध की अग्नि में ,
भस्म सबको करेगा।
गेहूँ के साथ चाकी में,
घुन भी पिसेगा।।

कैद करके घरों में,
बिठाया हमें।
अपना अस्तित्व,
फिर से दिखाया हमें।।

दृष्टि उसकी मनुज पे,
हुई आज  वक्र।
निकाला है उसने ,
पुनःअपना चक्र।।

शत का अर्थ जरासंधों,
को बतला रहा है।
सबक कर्मों का फिर ,
हमको सिखला रहा है।।

नाम उसका सुदर्शन ,
अब कलि(युग) में नहीं।
उसको संतुष्टि मात्र ,
एक बलि में नहीं।।

अनगिनत प्राण,
लेकर ही अब वो थमेगा।
जीत धर्म की अधर्म ,
पर वो निश्चित करेगा।।

खेलते हम रहे ,
उसकी जागीर से।
नष्ट की प्रकृति,
अपनी तासीर से।।

रूप विकराल ले ,
मान मर्दन को वो।
हमको औकात,
अपनी दिखाएगा वो।।

कहीं अम्फान, भूकंप ,
महामारी कोरोना।
डरता हर पल मनुज ,
ढूँढे रक्षित कोई कोना।।

अहमी मानव न,
घुटनों के बल आएगा।
खूब रोयेगा , बेहद
तब पछताएगा।

स्वयं हमने प्रलय को ,
है न्योता दिया।
अपने अपनों से ,
कैसा ये बदला लिया।।

चेत ले है समय ,
कब तू संभलेगा अब।
मानव जाति खत्म होगी,
दम लेगा तब???

मंगलवार, 26 मई 2020

नौतपा:कुंडलियाँ


विधा:कुंडली/दोहा


आता है जब नौतपा ,बचकर रहना यार ।
तपे अधिक तब यह धरा, सुलगे है संसार।।

सुलगे है संसार, रोहिणी में रवि आते।
लूह चले नौ वार ,घमौरी गात जलाते।।
सुनो सुधा की बात, ठंडई हमें बचाता।
करो तृषित जल दान, नौतपा जब भी आता।।

दोहा:
ज्येष्ठ मास जब रोहिणी , सूर्य करे संचार।
 नौ दिन वसुधा पर बढ़े ,गरमी अपरंपार।।


मर्दानी नारी... दोहे


विधा:दोहा


नारी सम कोई नहीं, नारी सुख की धाम
बिन उसके घर- घर कहाँ,घर की है वह खाम(स्तंभ) ।1।

शक्ति विहीना नारि जब, लेती है कुछ ठान
अनस्तित्व फिर कुछ नहीं,  नारी बल की खान।2।

रक्तबीज के ध्वंश को,काली करती युद्ध 
अरिमर्दन करती बढ़े , जब हो नारी क्रुद्ध।3।

सहकर भारी दर्द भी, भरती शिशु में प्राण
कोई नारी सम नहीं, करती शिशु का त्राण।4।

 नारी अबला है नहीं, नारी शक्ति स्वरूप
लड़ जाती यमराज से, नारी सति का रूप।5।

 सुधा सिंह 'व्याघ्र'


सोमवार, 25 मई 2020

समय की रेत फ़िसलती हुई,



समय की रेत फ़िसलती हुई,
उम्र मेरी ये ढलती हुई,
करती है प्रश्न खड़े कई।

क्या वक्त है कि मुड़के पीछे देखें,
क्या वक्त है कि कुछ नया सीखें।
सीखा जो भी अब तलक,
कर उसको ही और बेहतर भई।
समय की रेत...

कब कद्र की मेरी तूने ,
मैंने चाहा तू मेरी बात सुने,
मन के भीतर कुछ खास बुने।
तू आया धरा पे मकसद से,
समझ निरा गलत है क्या,
और क्या है एकदम सही।
समय की रेत....

तेरे हिस्से में चंद बातें हैं।
और कुछ शेष मुलाकातें हैं।
समेटने कुछ बही खाते हैं।
अपनी रफ़्तार को बढ़ा ले तू,
है जो भी शेष उसे निबटा ले तू,
यूँ समझ के जीवन की साँझ भई।
समय की रेत....

रविवार, 24 मई 2020

क्या छुप पाओगे तुम...




छुप जाओ, हर किसी से तुम
पर क्या... स्वयं से छुप पाओगे तुम
वो गलतियाँ , जो की थी
तुमने जानबूझकर  ...
रह -रहकर अँधेरे कोणों से
अट्टहास करती जब
तुम्हारे समक्ष आयेंगी...
तुम्हारे हृदय को कचोटती
काले साये की तरह तुम्हें डराएंगी
कहो भाग कर तब कहाँ जाओगे तुम

एक अरसे से जिस आत्मा को 
अपनी निम्न सोच से 
अनवरत बिगाड़ते रहे थे
वह विद्रूपता लिए  
आईने के सामने 
किस तरह मुस्कुराओगे तुम
अपनी अंतर्वेदनाओं को कहीं और
क्या गिरवी रख पाओगे तुम


अनंत ब्रह्मांड में तैरते
तुम्हारे कहे शब्द जब अपना
हिसाब माँगेगे तब कौन-सा बही खाता दिखाओगे
क्या अपने शब्द से मुकर पाओगे तुम
कहो क्या स्वयं से छुप पाओगे तुम.....

मंगलवार, 19 मई 2020

अंतर के पट खोल...



नवगीत: 

अंतर के पट खोल (16 ,11) 

       
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अंतर के पट खोल तभी तो
                   मन होवे उजियार।
मानव योनि मिली है हमको 
                इसे न कर बेकार  ।।

अंतस में हो अँधियारा जब, 
             दिखता सबकुछ स्याह ।
मन अधीर हो अकुलाए अरु ,
                   दिखे नहीं तब राह।।

दुर्गम जब भी लगे मार्ग तब ,
                       शत्रु लगे संसार ।
अंतर के पट खोल तभी तो ,
                     मन होवे उजियार। ।

जीवन में संघर्ष भरा है,
                     इसका ना पर्याय ।
उद्यम ही कुंजी है इसकी ,
                    दूजा नहीं उपाय।।

घड़ी परीक्षण की जब आए ,
                      मान न मनवा हार।
अंतर के पट खोल तभी तो ,
                      मन होवे उजियार।।

अपनों का जब साथ मिले तो,
                        जीवन हो रंगीन।
दुख की बदरी भी छँट जाए ,
                     समाँ न हो गमगीन।।

निज हित के भावों को त्यागें,
                   कर लें कुछ उपकार।
अंतर के पट खोल तभी तो ,
                      मन होवे उजियार।।

सुधा सिंह 'व्याघ्र✍️





सोमवार, 18 मई 2020

सामाजिक संचार

 गीत :(16,14)


सामाजिक संचार तंत्र ने ,
सबको अपना दास किया ।
ज्ञानवान मानव ने तब से, 
खुद को कारावास दिया ।।

कक्ष रोते, रोती रसोई ,  
स्वच्छता का भान नहीं ।
उनको बनना टिक -टॉक  स्टार ,
घर में बिलकुल ध्यान नहीं ।। 
इंस्टाग्राम सजाने खातिर, 
पत्नी ने अवकाश लिया।

मुखपोथी, टिक टॉक, लाइकी ,
अब तो घर में राज करें  ।
खिंचवाकर सुंदर तस्वीर , 
हम तो खुद पर नाज करें।। 
कम लाइक जब मिले देखकर, 
धक -धक , धक -धक करे जिया ।

स्वास्थ्य की अब नहीं है चिन्ता ,
तन को देखो स्थूल भए।
आभासी दुनिया से जुड़कर, 
रिश्ते -नाते भूल गए ।।
गोदी में संतान की जगह, 
लैपटॉप ने स्थान लिया ।।

सुधा सिंह 'व्याघ्र'