शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

भूल जाते हो तुम

 भूल जाते हो तुम कि 

एक अर्से से तुम्हारा साथ

केवल मैंने दिया है

जब जब तुम उदास होते 

मैं ही तुम्हारे पास होती 

तुम अपने हर वायदे में असफ़ल रहे

और मैंने अपने हक की 

शिकायतें कीं किन्तु 

उन वायदों के पूरा होने का इंतज़ार भी किया 

और आज भी इंतज़ार में ही हूँ 

 फिर भी तुम अक्सर 

ये एहसास दिला ही देते हो 

 कि तुम्हारे लिए मैं उतनी महत्वपूर्ण नहीं 

जितने वे हैं, जो तुम्हारे साथ कभी खड़े नहीं रहे 

 क्यों तुम ये भूल जाते हो कि 

जीवन साथी जीवन भर 

साथ निभाने के लिए होता है 

खोखले वायदे करके 

जीवन पर्यंत भरमाने के लिए नहीं. 

 फिर भी इंतज़ार करूँगी मैं, तब तक, 

जब तक तुम्हारा चित्त 

यह गवाही न देने लगे 

कि तुमने मेरे जीवन में मेरे 

साथी के रूप में प्रवेश किया है

और तुम्हें अपने कर्तव्यों का पालन  

अब शुरू कर देना चाहिए 

 


 

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

इस गगन से परे

 गीत :इस गगन से परे (10,12)


इस गगन से परे, 

है मेरा एक गगन  

झूमते ख्वाब हैं  

नाचे चित्त हो मगन 

1

अपनी पीड़ा को 

खुद से परे कर दिया 

दीप उम्मीद का  

देहरी पर धर दिया 

अब धधकती नहीं 

मेरे चित्त में अगन ...इस गगन से... 

2

प्यारी खुशियों से 

वो जगमगाता सदा 

चंदा तारों से 

हरदम रहे जो लदा 

नाचती कौमुदी 

होता मन का रंजन .... इस गगन से...

3

हुआ उज्ज्वल धवल 

मेरे मन का प्रकोष्ठ 

गाल पर लालिमा 

मुस्कुराते हैं ओष्ठ

हर्ष से झूमता 

फिर से मेरा तन मन.... इस गगन से...


 



 

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

सुनो बेटियों

 सुनो बेटियों जौहर में तुम 

कब तक प्राण गँवाओगी। 

हावी होगा खिलजी वंशज

जब तक तुम घबराओगी।। 


रहना छोड़ो अवगुंठन में  

हाथों में तलवार धरो। 

चीर दो तुम शत्रु का सीना  

पीछे से मत वार करो।। 

डैनों में साहस भर लोगी 

तुम तब ही उड़ पाओगी। हावी.... 


दुर्गा हो तुम शक्ति स्वरूपा

महिषासुर संहार करो। 

दुर्बलताएँ त्यागो अपनी

हर विपदा को पार करो।। 

यूँ कब तक अबला बनकर तुम 

घुट घुट जीती जाओगी। हावी... 


अपनी क्षमता को पहचानो

पद दलिता बन क्यों जीना। 

दूषित नजरों से निकला जो 

विष अपमान का क्यों पीना।। 

कब तक लोक लाज में पड़कर 

खुद को ही भरमाओगी। हावी... 











 

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

लबादा


 

अपना भारी - भरकम 

लबादा उतारकर

मेरे फ़ुरसत के पलों में 

जब तब बेकल- सा 

मेरे अंतस की 

रिसती पीर लिए

आ धमकता है मेरा किरदार

और प्रत्यक्ष हो मुझसे 

टोकता है मुझे

कि तुझे तलाश रहा हूँ

एक अन्तराल से, 

मानो बीते हो युग कई 

कि कभी मिल जा 

मुझे भी तू,

तू बनकर 

वरना खो जाएगा 

उस भीड़ में जो

जो तेरे लिए नहीं बनी...

और 

वर्षों से जिसे मैं हर क्षण 

दुत्कारता आया हूँ 

कि दुनिया को भाता नहीं

तेरा सत्य स्वरूप 

तू ओढ़े रह व‍ह लबादा वरना  

खो जाएगी तेरी पहचान 

स्मरण रहे कि 

तुझे लोग उसी आडंबर में 

देखने के आदी हैं 

अनभिज्ञ है तू 

कि असत्य ही तो सदा 

बलशाली रहा है 

फिर तू क्यों

मुझे दुर्बल बनाने को आतुर है 

यह विभ्रम है, 

यह मरीचिका है 

ज्ञात है मुझे

किन्तु यही तो 

उनके और मेरे 

सौख्य का पोषण है 

और यही जीवनपर्यंत उन्हें

मेरी ओर लालायित करता है 

चल ओढ़ ले पुनः 

अपना यह सुनहरा लबादा 

कि तेरा विकृत रूप कहीं 

परिलक्षित न हो जाए।