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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

लबादा


 

अपना भारी - भरकम 

लबादा उतारकर

मेरे फ़ुरसत के पलों में 

जब तब बेकल- सा 

मेरे अंतस की 

रिसती पीर लिए

आ धमकता है मेरा किरदार

और प्रत्यक्ष हो मुझसे 

टोकता है मुझे

कि तुझे तलाश रहा हूँ

एक अन्तराल से, 

मानो बीते हो युग कई 

कि कभी मिल जा 

मुझे भी तू,

तू बनकर 

वरना खो जाएगा 

उस भीड़ में जो

जो तेरे लिए नहीं बनी...

और 

वर्षों से जिसे मैं हर क्षण 

दुत्कारता आया हूँ 

कि दुनिया को भाता नहीं

तेरा सत्य स्वरूप 

तू ओढ़े रह व‍ह लबादा वरना  

खो जाएगी तेरी पहचान 

स्मरण रहे कि 

तुझे लोग उसी आडंबर में 

देखने के आदी हैं 

अनभिज्ञ है तू 

कि असत्य ही तो सदा 

बलशाली रहा है 

फिर तू क्यों

मुझे दुर्बल बनाने को आतुर है 

यह विभ्रम है, 

यह मरीचिका है 

ज्ञात है मुझे

किन्तु यही तो 

उनके और मेरे 

सौख्य का पोषण है 

और यही जीवनपर्यंत उन्हें

मेरी ओर लालायित करता है 

चल ओढ़ ले पुनः 

अपना यह सुनहरा लबादा 

कि तेरा विकृत रूप कहीं 

परिलक्षित न हो जाए। 

  

सोमवार, 17 अगस्त 2015

यथार्थ

यथार्थ के धरातल पर ,
कोई उतरना नहीं चाहता।
कोई अपना वास्तविक रूप,
दिखाना नहीं चाहता।
जब तक चेहरे पर
लीपा - पोती नहीं हो जाती
तब तक घरों से निकलना नहीं चाहता।
कहीं कोई असलियत भांप न ले ?
कहीं उसका विकृत रूप,
सामने न आ जाये ?
कहीं उसका असली रंग ,
लोगों को उससे दूर न कर दे?
कहीं उसका खेल,
लोगों में घृणा न भर दे?
ऐसा होने पर वह
नकली मुस्कुराहट किसे दिखायेगा?
लोगों को बेवकूफ़ कैसे बनाएगा?
उसकी इच्छाओं की पूर्ति कैसे होगी?
उसकी दूषित मानसिकता की
 संतुष्टी कैसे होगी?
अतः असली चेहरा छुपाना ही बेहतर है।
लोगों को भ्रमित करना ही बेहतर है।
आज लोगों की मानसिकता यही है।
पर हमें समझना होगा कि ,
यह कहाँ तक सही है?