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मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

यक्ष प्रश्न



यक्ष प्रश्न

जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,
और बढ़ जाती हूँ एक कदम
आगे की ओर
सोचती हूँ कदाचित
इस पथ पर कोई वाजिब जवाब
जरूर मिल जायेगा।
पर न जाने किस शून्य में
विचरण करके एक नए प्रश्न के साथ
वह तीर मेरे सामने दोबारा
उपस्थित हो जाता है
एक यक्ष प्रश्न-सा..
जो भटक रहा है अपने युधिष्ठिर की तलाश में
और तलाश रहा है मुझमें ही
अपने उत्तरों को..

और मैं नकुल, सहदेव, भीम आदि की भाँति
खड़ी हूँ अचेत, निशब्द,
किंकर्तव्य विमूढ़,
सभी उत्तरों से अनभिज्ञ.
'यक्षप्रश्नों' की यह लड़ी
कड़ी दर कड़ी जुड़ती चली जा रही है.
कब होगा इसका अंत, अनजान हूँ
"कब बना पाऊँगी स्वयं को युधिष्ठिर"
यह भी अनुत्तरित है.

हर क्षण, यक्ष, एक नया प्रश्न शर,
छोड़ता है मेरे लिए.
पर प्रश्नों की इस लंबी कड़ी को
बींधना अब असंभव- सा
क्यों प्रतीत हो रहा है मुझे .
न जाने, मैं किस सरोवर का
जल ग्रहण कर रही हूँ
जो मेरे भीतर के युधिष्ठिर को
सुप्तावस्था में जाने की
आवश्यकता पड़ गई !
क्यों युधिष्ठिर ने भी
चारों पाण्डवों की भांति
गहन निद्रा का वरण कर लिया है!
कब करेगा व‍ह अपनी
इस चिर निद्रा का परित्याग!
और करेगा भी कि नहीं!
कहीं यह प्रश्न भी
अनुत्तरित ही न रह जाए!

सुधा सिंह 🦋
    

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

कलयुग या झूठ युग?

भागती रही जिससे मैं हमेशा!
जिससे हमेशा लड़ती रही!
वही झूठ न जाने क्यूँ मुझे अपनी ओर खींच रहा है!

क्यूँ अब मुझे वही सच लगने लगा है!
क्यूँ यह झूठ चीख चीख कर मुझसे कहता है  कि
हर ओर आज उसी का बोलबाला है!
वही आज की सच्चाई है!
 
क्यूँ वह पूछता है  मुझसे...
कि आखिर..
इस सच से तुझे मिला ही क्या है?
सच ने तुझे दिया ही क्या है?

इस प्रश्न ने मुझे मूक कर दिया!
और सोचने पर मजबूर कर दिया!
ये कलयुग है या झूठ युग  है!
क्या  सचमुच ..
सच आज दुर्बल हो गया है!
क्या सच का साथ  छोड़  दूँ और
झूठ का दामन थाम लूँ

आखिर.. दुनिया यू ही तो दीवानी नहीं झूठ के पीछे!

ठीक ही  तो है...
सोच रही  हू  कि..  झूठ  ही  कहूँ  और  झूठ  ही लिखूं ..
लिखूं
कि शिक्षक  हूँ.. फिर भी  खूब अमीर हूँ!
अपने  लिए समय ही समय  है मेरे पास!
लिखूं  कि  एक बहुत  अच्छी  जिन्दगी  जी  रही  हूँ
लिखूं  कि सच  का साथ  देकर..
मैंने  बहुत कुछ पाया है!
लिखूं  की शिक्षक हूँ कोई  गुलाम  नहीं!
लिखूं कि  इस युग मे भी विद्यार्थी  अपने शिक्षको  को मान-सम्मान  देते हैं!
लिखूं  कि मैंने अपने बच्चो को  वो  सब  दिया है जो  धनाढ्य  घरों के  बच्चों को आसानी से  मिल जाता है!
लिखूं  कि मेरे  बच्चे  किसी  मामूली सी  वस्तु के लिए  तरसते  नहीं है!
लिखूं की मेरा परिवार  मेरे  पेशे  से खुश हैं!सोच रही हूँ कि आखिर क्या क्या  लिखूं  और  क्या क्या  कहूँ क्या  क्या  छोड़ूं?

 क्या  सचमुच  दिल से यह सब कभी लिख  पाऊँगी!
क्या सचमुच झूठ को अपना पाऊँगी!
नहीं..
यह मुझसे  नहीं हो पाएगा!
कभी नहीं हो पाएगा!


सुधा सिंह

शनिवार, 21 मई 2016

धुंध

किस ओर का रुख करूँ, जाऊँ किस ओर
मंजिल बड़ी ही दूर जान पड़ती है।

मन आज बड़ा ही विकल है, अकुलाहट का घेरा है
हवा भी आज न जाने क्यूँ ,बेहद मंद जान पड़ती है!

मेरे इर्द -गिर्द जो तस्वीरें हैं दर्द की,
ये आसमानी सितारों की साज़िश जान पड़ती है।

दूर तक पसरी हुई ये वीरानी,ये तन्हाईयाँ
सिर पर औंधी शमशीर जान पड़ती है।

आकाश भी आज साफ़ नजर नहीं आता,
मेरी किस्मत पे छायी ~धुंध जान पड़ती है।

यहाँ घेरा ,वहाँ घेरा,
हर ओर मकड़ जाल जान पड़ता है।

थम रही हैं सांसे,बदन पड़ रहा शिथिल,
मुझे ये मेरा आखिरी सफ़र जान पड़ता है।