अंतर के पट खोल (16 ,11)
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अंतर के पट खोल तभी तो
मन होवे उजियार।
मानव योनि मिली है हमको
इसे न कर बेकार ।।
अंतस में हो अँधियारा जब,
दिखता सबकुछ स्याह ।
मन अधीर हो अकुलाए अरु ,
दिखे नहीं तब राह।।
दुर्गम जब भी लगे मार्ग तब ,
शत्रु लगे संसार ।
अंतर के पट खोल तभी तो ,
मन होवे उजियार। ।
जीवन में संघर्ष भरा है,
इसका ना पर्याय ।
उद्यम ही कुंजी है इसकी ,
दूजा नहीं उपाय।।
घड़ी परीक्षण की जब आए ,
मान न मनवा हार।
अंतर के पट खोल तभी तो ,
मन होवे उजियार।।
अपनों का जब साथ मिले तो,
जीवन हो रंगीन।
दुख की बदरी भी छँट जाए ,
समाँ न हो गमगीन।।
निज हित के भावों को त्यागें,
कर लें कुछ उपकार।
अंतर के पट खोल तभी तो ,
मन होवे उजियार।।
सुधा सिंह 'व्याघ्र✍️
सुन्दर मनोभाव।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार निहार जी
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-05-2020) को "फिर होगा मौसम ख़ुशगवार इंतज़ार करना " (चर्चा अंक-3707) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद ज्योति बहन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबधाई
पढ़े--लौट रहे हैं अपने गांव
धन्यवाद आदरणीय
हटाएंअंतर के पट भी ऐसे कहाँ खुलते हैं ...
जवाब देंहटाएंउसकी कृपा जरूरी है ...
बहुत सुन्दर भावपूर्ण गीत ...
प्रतिपुष्टि के लिए आत्मिक आभार आदरणीय नासवा जी ।आपका स्वागत है।
हटाएंबहुत ही सुन्दर और मनमोहक नवगीत ।
जवाब देंहटाएंआत्मिक आभार सखी ।आपका स्वागत है।
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