देखा है मैंने
मजदूरों को
दिन भर
कड़ी धूप में
खटते हुए।
ईंट- गारा रेती-सीमेंट
के घमेले को सिर पर
उठाकर इमारतें बनाते हुए।
आँधी - तूफ़ान में झम -झम
बरसते हुए खुले आकाश
के नीचे पन्नी से ढकी
बोझिल हाथगाडी को
पूरी ताकत से खींचते हुए ,
हाँफते हुए।
देखा है मैंने
मजदूरों को
गंदे शहरी नाले में उतरकर
लोगों का मल साफ़ करते हुए।
नालों से उत्सर्जित
ज़हरीली गैसों से
जूझते हुए और
नाक मुँह को ओकाई आते
काले- पीले- हरे
बदबूदार मल प्रवेश से
खुद को बचाते हुए।
किंतु फिर....
देखा है मैंने
मजदूरों को
थके हारे मित्रों के संग
टोली बनाकर
किसी छांव में
बीड़ी फूँकते हुए,
तंबाकू चूने को
हथेलियों पर मलते हुए।
और शाम होते ही देशी ठेके पर
दिहाड़ी की रकम उड़ाकर
आधी रात को पत्नी
बच्चों को पीटते हुए।
फिर, देखा है मैंने
मजदूरों को
पत्नी की कमाई
बच्चों की स्कूल फीस को
शराब चखने में उड़ाते हुए
उनके परिजनों को
अन्न के एक- एक दाने
के लिए मोहताज
करते हुए
देखा है मैंने
मजदूरों को
नशे में बेहोश
किसी गंदे नाले के
किनारे फटे चीथड़ों में पड़े हुए।
कल की चिंता न करके
गरीबी मुफलिसी में मरते हुए।
देखा है मैंने.....
बहुत सार्थक और मार्मिक
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आ.🙏
हटाएंबेहद मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सखी
हटाएंबहुत सुन्दर सटीक....
जवाब देंहटाएंदेखा है इन मजदूरों को
अपना भाग्य स्वयं बिगाड़ते हुए
अपनी मेहनत पर पानी फेरते हुए
लाजवाब सृजन...।
बहुत आभार सुधा जी...
हटाएंकविता के मर्म को समझकर उस पर सुंदर सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।