शुक्रवार, 3 मई 2019

सुनो बटोही





सुनो बटोही,
तुम मुसाफिर हो, तुम्हें चलते ही जाना है।
बहु बाधा, बहु विघ्नों से, तुम्हें निर्भय टकराना है।
ये जीवन, हर पल खुशियों और दुख का ताना बाना है।
कभी उठाओगे तुम किसी को, तो कभी किसी को तुम्हें उठाना है ।।

सुनो बटोही,
काल की हर क्रीड़ा से तुम्हें सामंजस्य बिठाना है ।
इस चक्र में गिरना है , संभलना है।
हर उम्र एक पड़ाव है , रुकना, सुस्ताना है।
कटीबद्ध हो फिर, कर्मपथ पर आगे बढ़ जाना है।।

सुनो बटोही,
मष्तिष्क में कौंधते मिथ्या भावों के जालों को तुम्हें सुलझाना है।
निविड़ तिमिर में तुम्हें हौसलों की मशाल जलाना है।
सम्पूर्ण निष्ठा से रहट बन अनवरत अपना धर्म निभाना है।
पतझड़ में तुम्हें आशाओं के फूल खिलाना है।।

सुनो बटोही,
तुम मुसाफिर हो, तुम्हें चलते ही जाना है...










बुधवार, 1 मई 2019

मजदूर दिवस...



लो आ गया एक और दिवस
तथाकथित विश्व मजदूर दिवस।
होंगे बड़े बड़े भाषण, बड़ी बड़ी बातें,
मजदूर दिवस के नाम पर
पीठासीनों पदाधिकारियों को
होगा एक दिन का अवकाश।
पर मजदूर को इसका भी कहाँ आभास।
इस तथ्य से अनजान
अनभिज्ञ कि उसके नाम से भी
पूरी दुनिया में होती है छुट्टी।
वह डँटा रहता है पूरी निष्ठा से
अपनी जिन्दगी के मोर्चे पर
 छेनी - हथौडी लिए,
पत्थर ढोता, बड़ी - बड़ी अट्टालिकाओं
के रूप संवारता
कि दो जून की दाल रोटी
का हो जाए इंतजाम।
फिर बड़े - बड़े ख्वाब सजाता मजदूर,
अपने सुनहरे कल की उम्मीद बांधे
सो जाता है फूंस की
जर्जर झोपड़ी में
कच्ची पक्की जमीन पर
फटे लत्तों की गूदड़ी बिछाकर,
अपना स्वप्न महल सजाकर।
और रोज की तरह
गुजर जाता है यह
तथाकथित मजदूर दिवस भी।




गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

हे साईं... साईं वंदना


हे साईं.. हे साईं... 
तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं - 2
मोहपाश में फँसा हूँ मैं
मेरा कर दे तू उद्धार.... हे साईं.. हे साईं - 2

तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं  - 2

दुखियों का तू तारण हारा. - 2
जन जन पर तेरा अधिकार... हे साईं.. हे साईं
तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं

भूख ग़रीबी लाचारी में
जीवन मेरा बीत रहा है
मन की आशाओं का घट भी
साईं अब तो रीत रहा है
न मुझको यूँ दुत्कार.... हे साईं.. हे साईं

तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं

भटक रहा हूँ दर दर मैं तो
सभी पराए लगते अब तो
मुझको तू दाता अपना ले
है तू ही मेरा करतार... हे साईं.. हे साईं

तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं

तेरी चौखट पर आया हूँ
मन मुरादें मैं लाया हूँ
खाली झोली भर दे मेरी
कर दे तू उपकार... हे साईं.. हे साईं

तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं

तू कर दे बेड़ा पार.... हे साईं.. हे साईं
मोहपाश में फँसा  हूँ मैं
मेरा कर दे तू उद्धार.... हे साईं.. हे साईं - 2

हे साईं... हे साईं .... हे साईं..... हे साईं
मेरा कर दे तू उद्धार.... हे साईं .. हे साईं- 2

रे अभिमानी..



रे अभिमानी..
काश.. तुम समझ पाते स्त्री का हृदय. 
पढ़ पाते उसकी भावऩाओं को,
उसके मनसरिता की पावन जलधारा को,
जिसमें बहते हुए वह अपना सम्पूर्ण जीवन
समर्पित कर देती है तुम जैसों पुरुषों लिए.
दमन कर देती है अपनी इच्छाओं का,
और जरूरतों का ताकि तुम्हें खुश देख सके.

रे अभिमानी..
क्या तुम उसके मन की वेदना, व्यथा को जान सके.
क्या कभी अपने अहम को परे रख सके.
क्यों तुम्हारी मनुष्यता 
तुम्हारे पुरुषत्व के आगे धराशाई हो गई.
अपने मिथ्या दंभ में तुम केवल 
उसे प्रताड़ऩा का पात्र समझते रहे.
और माटी की यह गूँगी गुड़िया 
स्वाहा होती रही सदियों सदियों तक
मात्र तुम्हारी आत्म संतुष्टि के लिए. 






बुधवार, 24 अप्रैल 2019

तुम बिन....


तुम बिन .....


मेरी रगों में
लहू बनकर
बहने वाले तुम
ये तो बता दो कि
मुझमें मैं बची हूँ कितनी
तुम्हारा ख्याल जब - तब
आकर घेर लेता है मुझे
और कतरा - कतरा
बन रिसता हैं
मेरे नेत्रों से.

तड़पती हूँ मैं
तुम्हारी यादों की इन
जंजीरों से छूटने को. 
जैसे बिन जल
तड़पती हो मछली
इक इक साँस पाने को. 
ये टीस, यह वेदना 
चीरती है मेरे हृदय को. 
कर देती है मुझे प्राणविहीन
कि तुम बिन 
मेरा अस्तित्व है ही नहीं.


रविवार, 21 अप्रैल 2019

कीरचें...




वो समझ नहीं पाए, मैं समझाती रह गई।
उनके अहम में, मैं खुद को मिटाती रह गई।

उजाड़ी थी बागबां ने ही, बगिया हरी - भरी
गुलाब सी मैं, काँटों में छटपटाती रह गई।

महफिल ने यारों की, भेंट कर दी तन्हाइया
मैं तन्हाइयों में खुद से, बतलाती रह गई ।

मखमली सेज, तड़पती रही बेकस होकर
मोहब्बत रात भर तकिया भिगाती रह गई ।

दिल के जख्मों को भर न पाई 'सुधा'
अपनी पलकों से ही कीरचें उठाती रह गई ।

सुधा सिंह ✍️


शनिवार, 6 अप्रैल 2019

सिग्नल गाथा



1:
गुटखा चबाकर
मुँह से पीक
गिराती हुई
मैले वसनों में
उस हृष्ट - पुष्ट
स्थूल काय
स्याह वर्ण
परपोषित
पैंतीस छत्तीस
वयीन
परोपजीवी
वयस्का को
मस्तक उठाकर
भीख मांगना
ही क्यों
आसान लगता है?

2:
आने - जाने वाले
सभी लोगों के
सिरों पर हाथ
रखकर आशीर्वचन
बोलते हुए
दो - चार रुपयों के लिए
दुपहिया, तिपहिया,
चार चक्केवालों के
आगे अकिंचन से
हाथ बढ़ाते हुए
जोर की करतल ध्वनि
करनेवाले
कुछ सच के
और कुछ वेशधारी
किन्नरों को 
सबके बिगड़े
हुए मुँह देखकर,
कुछ अपशब्दों
की बौछार में
नहाकर भी
भीख मांगना
ही क्यों
आसान लगता है?




नयन पाश


खिंचा आया था पुष्प में, अलि की तरह
पाश में ऐसा जकड़ा, निकल न सका।

इन निगाहों ने ऐसा असर कर दिया
न मैं जिंदा रहा, और न मर ही सका।
है प्रशांत सबसे गहरा, या चितवन तेरे
डूबा मैं जब से इनमें, उबर न सका।

खिंचा आया था पुष्प में अलि की तरह...

व्योम नीला अधिक है, या दृग हैं तेरे
आज तक और अभी तक, न तय कर सका।
आया हूँ जब से , मतवारे नयनन के द्वार
खोया खुद को , अभी तक मैं पा न सका।

खिंचा आया था पुष्प में अलि की तरह.....

मैं यायावर अहर्निश,  तेरी अभिलाषा में
रह गया प्यासा, मरु- सर को पा न सका।
है ये कैसी कशिश, कैसा अहसास है,
है पारावार किंतु, तृष्णा मिटा न सका।

खिंचा आया था पुष्प में, अलि की तरह
पाश में ऐसा जकड़ा, निकल न सका ।










शनिवार, 30 मार्च 2019

ग़रीबी - प्रश्न चिह्न

गरीबी- प्रश्नचिह्न

तरसते दो जून
की रोटी को
धन और साधन की
कमी से जूझते
मैले- कुचैले
चीथड़ों में
जीवन के
अनमोल स्वप्न सजाते
सूखे शरीर से चिपके
नवजात को
अपने आँचल का
अमृत - धार
न पिला पाने की
विवशता में
मन ही मन घुटते
तंगी में रह रहकर
जीवन यापन
करने को मजबूर
फटे लत्ते को भी
भीख में
मांगने वालों में
जिजीविषा???
बहुत बड़ा प्रश्न!!!!

सुधा सिंह 👩‍💻




रविवार, 24 मार्च 2019

कलम बीमार है..




न उठना चाहती है,
न चलना चाहती है.
स्वयं में सिमट कर
रह गई मेरी कलम
आजकल बीमार रहती है.

आक्रोशित हो जब लिखती है अपने मन की
तो चमकती है तेज़ टहकार- सी.
चौंधिया देने वाली उस रोशनी से,
स्याह आवरण के घेरे में,
स्वयं को सदा महफूज समझते आये वे,
असहज हो कोई इन्द्रजाल रच,
करते हैं तांडव उसके गिर्द .
किंकर्तव्यविमूढ़ वह
नहीं समझ पाती, करे क्या?

समाज से गुम हुई सम्वेदनाओं
को तलाशते- तलाशते
शिथिल, क्लांत - सी
दुबक गई है किसी कोने में.
उसके भीतर भरे प्रेम का इत्र
भी हवा में ही लुप्त है कहीं.
मन की भावनाएँ जाहिर करने की
उसकी हर इच्छा मृतप्राय हो चली है.

उसे इंतजार है तो बस
उन गुम सम्वेदनाओं का .
उनके मसीहाओं का .
जो इंसान को खोजते हुए
धरती से दूर निकल गए हैं.

सुधा सिंह 👩‍💻✒️





शनिवार, 9 मार्च 2019

8 मार्च

      8 मार्च

8 मार्च ये कोई तारीख है
या स्त्री के जख्मों पर
साल दर साल बड़े प्रेम से
छिड़का जाने वाला नमक..
ये 8 मार्च आखिर आता क्यों है
और आता भी है तो चुपचाप
चला क्यों नहीं जाता
क्यों स्त्री को
एहसास दिलाया जाता है
कि तुम्हारे बिना
यह सृष्टि चल ही नहीं सकती
तुम ही सब कुछ हो
तुम माँ दुर्गा, तुम ही काली हो
तुम आदि लक्ष्मी , तुम शक्तिशाली हो
तुम तनया, तुम भगिनी हो
तुम माता, तुम जीवन संगिनी हो

शायद इस दिन किसी स्त्री पर
कोई अत्याचार नहीं होता
शायद इस दिन उसकी अस्मत
बिलकुल सुरक्षित होती है
कदाचित् इस दिन कोई बेटी
कोख में नहीं मारी जाती
कदाचित् इस दिन कोई बहू
रसोई घर में गैस सिलिंडर
की भेंट नहीं चढ़ती.

जिस दिन 'शायद
और कदाचित्' यथार्थ
रूप ले लेंगे
उस दिन से सचमुच
मेरे लिए हर दिन
8 मार्च होगा.