दादा दादी को पोते पहचानते नहीं
नाना नानी को नवासे अब जानते नहीं
न जाने कैसा कलयुगी चलन है ये
कि रिश्ते इतने बेमाने हो गए!
और ताने बाने ऐसे उलझे
कि अपने सभी बेगाने हो गए!
कद्र रिश्तो की सबने बीसराई है आज!
प्यार अनुराग और स्नेह के बंधन पर
जाने कैसी गिरी है गाज!
न भाव है सम्मान का, ना ही कोई लिहाज !
पछुआ ऐसी चल पड़ी कि
बढ़ गई दूरियां और बदला सबका मिजाज !
परिचित भी अब अपरिचित से लगते पड़ते हैं
अतिथि अब देव नहीं यमराज जान पड़ते हैं
"जैसे तैसे पीछा छूटे" मन में यही विचार उठते हैं!
न जाने क्यों लोग दूसरों से इतना कटे कटे से रहते हैं!
लोगों के दिलों में अब प्यार के फूल कहाँ खिलते हैं!
रक्षाबंधन भाईदूज जैसे पर्व भी अब बोझ से लगते हैं!
मात्र खानापूर्ति की खातिर सब आकर इस दिन मिलते हैं!
पर जीर्ण हुए नाते कब और कहां सिलते हैं!
बूढों और पुरखों की बोली क्यों हो गई है मौन!
दादी नानी की कहानी अब भला सुनता है कौन?
परिवारों में ये कैसा एकाकीपन है!
दूर रहकर भी कितनी अनबन है!
अहंकार और दौलत की बलि चढ़ते इन रिश्तों को
आखिर संजोएगा कौन?
लगातार गहरी होती इन खाइयों को
भर पाएगा कौन?
अब कदम पहला किसी को उठाना होगा!
वरना इस वसुधा पर 'अपना' कहलाएगा कौन!
©सुधा सिंह
आज की स्थिति पर बहुत ही विचारनीय आलेख,सुधा दी।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्यारी ज्योति जी ❤️
हटाएंअहंकार और दौलत की बलि चढ़ते इन रिश्तों को आखिर संजोएगा कौन?
जवाब देंहटाएंलगातार गहरी होती इन खाइयों को आखिर भर पाएगा कौन?
बेहद विचारणीय प्रश्न... हृदयस्पर्शी रचना
बहुत बहुत शुक्रिया अनुराधा जी 🙏 🙏 नमन
हटाएंरिश्तों के एहसास खत्म प्राय.. .
जवाब देंहटाएंसटीक चिंतन और साथ ही चिंता का विषय।
सार्थक रचना।
शुक्रिया कुसुम दी 🙏
हटाएंरिश्तों के एहसास को बयान करती सटीक रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रितु जी 🙏
हटाएंसन्देश विषयक काव्य-सौंदर्य रचना को समाजोपयोगी बना देता है। दादा-दादी,नाना-नानी के क़िस्सों में महत्वाकांक्षा, सीख और मनोरंजन विशिष्ट रोचकता के साथ होता था जो बच्चों को अपनी ओर आकृष्ट करता था। आज जीवन में आधुनिकतम साधन मनोरंजन के लिये उपलब्ध हैं जो बच्चों की रचनात्मकता पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं।
जवाब देंहटाएंविचारशील सृजन के लिये बधाई सुधा जी।
बहुत बहुत आभार रवींद्र भाई 🙏 🙏
हटाएं