मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

बस यूँ ही... फोन और मैं

बस यूँ ही...फोन और मैं।

बस, कई बार यूँ ही.. 
समय बर्बाद करती
पाई गई हूँ मैं
मेरे ही द्वारा।
कभी मुखपोथी पर
कभी व्हाट्सएप के 
अनेकों समूहों पर।
जब -तब नोटिफिकेशन
का स्वर उभर कर
मुझे खींचता है अपनी ओर
और मैं ...
मैं बहुत आवश्यक
काम छोड़कर
पहले फ़ोन उठाने
लपकती हूँ
कि कहीं किसी को
बहुत ज़रूरी कार्य न हो
कहीं कोई किसी मुश्किल में
न फँसा हो
रात को भी फ़ोन 
बंद नहीं करती 
बस यही सोचकर।
मैं क्यों स्वयं को
इतना महत्व देने लगी हूँ
कि वे अपनी परेशानियों में 
मुझे याद करेंगे और मैं 
उनके किसी काम आ सकूँगी।
सभी तो समझदार हैं 
फिर भी मैं.. 
बस यूँ ही ...
मैं अक्सर फोन पर
समय बरबाद करती 
पाई जाती हूँ मेरे ही द्वारा।

 सुधा सिंह


सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

बिखरे पत्ते....




जमीन पर बिखरे ये खुश्क पत्ते
गवाह हैं..
शायद कोई आंधी आई थी
या खुद ही दरख्तों ने
बेमौसम झाड़ दिया उन्हें
जो निरर्थक थे,
कौन रखता है उनको
जो बेकार हो जाते हैं
किसी काम के नहीं रहते!
मुर्दों से जल्द से जल्द
छुटकारा पा लेना ही तो नियम है,
शाश्वत नियम...
और यही समझदारी भी।
तो क्या हुआ,
जो कभी शान से इतराते थे,
और अपने स्थान पर सुशोभित थे
वो आज धूल फांक रहे हैं।
और बिखर- बिखरकर
तलाश रहे हैं
अस्तित्व अपना - अपना!!!!!!

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

ऐ बचपन....


ऐ बचपन....

अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे
घुट रही साँस मेरी , फिर से जिला दे मुझे

हारी हूँ जिंदगी की मैं हर ठौर में
लौट जाऊँ मैं फिर से उसी दौर में
ऐसी जादू की झप्पी दिला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

जाना चाहूँ मैं जीवन के उस काल में
झुलूँ डालों पर, कुदूँ मैं फिर ताल में
मेरे स्वप्नों का फिर से किला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

गुड्डे गुड़िया की शादी में जाना है फिर
सखियों से रूठकर के मनाना है फिर
फिर से बचपन की घुट्टी पिला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

फ्रॉक में नन्हीं कलियों को फिर से भरूँ
तितली के पीछे फिर से मैं उड़ती फिरूँ
वही खुशहाल जीवन दिला दो मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

सुधा सिंह
®©सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

क्या चलोगे साथ मेरे...नवगीत


विषय- नवगीत
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*क्या चलोगे साथ मेरे*
                  *उस गगन के पार*
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क्या चलोगे साथ मेरे,उस गगन के पार
आपसे है प्रीत हमको, करना न इनकार


साजन बाधा विघ्नों में , मैं न जाऊँ काँप
आपका है हाथ थामा , साथ देना आप
आपसे ही आस मेरी , आप हैं संसार
क्या चलोगे साथ मेरे,
उस गगन के पार

सपने हमने देखे जो, पूरे हो मनमीत
हर्ष का वरदान पाएँ , रचें स्नेहिल गीत
प्यार का बंधन हमारा, ये नहीं व्यापार
क्या चलोगे साथ मेरे,
उस गगन के पार

रात काली कट गई है ,आ गई शुभ भोर
स्वप्न ढेरों सज गए हैं , नाचे मन विभोर
बज उठा मन का मृदंगा, छेड़ हिय के तार
क्या चलोगे साथ मेरे,
उस गगन के पार

सुधा सिंह व्याघ्र

©®सर्वाधिकार सुरक्षित

सोमवार, 27 जनवरी 2020

कैसी ये प्यास है! (गीत )




कैसी ये प्यास है!! (गीत)
धुन :हुई आँख नम और ये दिल मुस्कुराया



मैं न जानूँ सनम, कैसा अहसास है!
क्यों ये बुझती नहीं, कैसी ये प्यास है!!

बंद दरवाजे हैं, बंद हैं खिड़कियाँ!
ले रहा है कोई, मन में ही सिसकियाँ!!
क्यों घुटन है भरी, कैसी उच्छ्वास है!
मैं न जानूँ सनम, कैसा अहसास है!!

प्रेम भूले सभी, मिलती रुसवाइयाँ!
भीड़ में बढ़ रही देखो तन्हाइयाँ!!
कोई अपना कहाँ, अब कहो पास है!
मैं न जानू सनम, कैसा अहसास है!!

है बहारों का मौसम बता दो कहाँ!
ठंडी पुरवाइयां चलके ढूंढे वहाँ!!
यूँ लगे मिल गया, जैसे वनवास है!
मैं न जानूँ सनम, कैसा अहसास है!!

खेल किस्मत का कोई भी समझा नहीं!
परती धरती हमेशा से परती रही!!
ढ़ो रही मनुजता, अपनी ही लाश है!
मैं न जानूँ सनम, कैसा अहसास है !!

सुधा सिंह 'व्याघ्र' ✍️