चुपके से यामिनी
ने लहराया था दामन.
सागर की लहरों पर
सवार होकर तरुवर के
पर्णों के मध्य से,
हौले हौले अपनी राह
बनाता चाँद तब , मंथर गति
से, उतर आया था मेरे
मन के सूने आँगन में,
अपनी शुभ्र धवल
रूपहली रश्मियों का
गलीचा बिछाए मीठी
सुरभित बयारों के संग
मुखमंडल पर मीठी
स्मित सजाकर ,
ज्योत्स्ना अपनी
झिलमिलाती स्वर लहरियों
की तरंगों से सराबोर हो
मेरे हिय के तारों को
स्पंदित कर गुनगुना उठी थी
और मैं प्रकृति के
कण कण में स्वयं को
खोकर संसृति की मादकता
में झूमती हुई उनके अलौकिक
स्नेह बंधन में बंध घुल गई थी
जो चाँद मुझे भेंट कर गया था.
सुन्दर भावदर्शन करती रचना
जवाब देंहटाएंबहुत मोहक सुंदर प्रकृति और मनोभावों का तारतम्य ।
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी रचना ।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 25/05/2019 की बुलेटिन, " स्व.रासबिहारी बोस जी की १३३ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही खूबसूरत बिंबों का प्रयोग
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना सुधा जी
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26 -05-2019) को "मोदी की सरकार"(चर्चा अंक- 3347) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
मैं प्रकृति के
जवाब देंहटाएंकण कण में स्वयं को
खोकर संसृति की मादकता
में झूमती हुई उनके अलौकिक
स्नेह बंधन में बंध घुल गई थी
जो चाँद मुझे भेंट कर गया था.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, सुधा दी।
बहुत खूब , सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शब्द चित्र ! मन उसीकी मादकता में खो सा गया हो जैसे!
जवाब देंहटाएं