शनिवार, 30 मार्च 2019

ग़रीबी - प्रश्न चिह्न

गरीबी- प्रश्नचिह्न

तरसते दो जून
की रोटी को
धन और साधन की
कमी से जूझते
मैले- कुचैले
चीथड़ों में
जीवन के
अनमोल स्वप्न सजाते
सूखे शरीर से चिपके
नवजात को
अपने आँचल का
अमृत - धार
न पिला पाने की
विवशता में
मन ही मन घुटते
तंगी में रह रहकर
जीवन यापन
करने को मजबूर
फटे लत्ते को भी
भीख में
मांगने वालों में
जिजीविषा???
बहुत बड़ा प्रश्न!!!!

सुधा सिंह 👩‍💻




रविवार, 24 मार्च 2019

कलम बीमार है..




न उठना चाहती है,
न चलना चाहती है.
स्वयं में सिमट कर
रह गई मेरी कलम
आजकल बीमार रहती है.

आक्रोशित हो जब लिखती है अपने मन की
तो चमकती है तेज़ टहकार- सी.
चौंधिया देने वाली उस रोशनी से,
स्याह आवरण के घेरे में,
स्वयं को सदा महफूज समझते आये वे,
असहज हो कोई इन्द्रजाल रच,
करते हैं तांडव उसके गिर्द .
किंकर्तव्यविमूढ़ वह
नहीं समझ पाती, करे क्या?

समाज से गुम हुई सम्वेदनाओं
को तलाशते- तलाशते
शिथिल, क्लांत - सी
दुबक गई है किसी कोने में.
उसके भीतर भरे प्रेम का इत्र
भी हवा में ही लुप्त है कहीं.
मन की भावनाएँ जाहिर करने की
उसकी हर इच्छा मृतप्राय हो चली है.

उसे इंतजार है तो बस
उन गुम सम्वेदनाओं का .
उनके मसीहाओं का .
जो इंसान को खोजते हुए
धरती से दूर निकल गए हैं.

सुधा सिंह 👩‍💻✒️





शनिवार, 9 मार्च 2019

8 मार्च

      8 मार्च

8 मार्च ये कोई तारीख है
या स्त्री के जख्मों पर
साल दर साल बड़े प्रेम से
छिड़का जाने वाला नमक..
ये 8 मार्च आखिर आता क्यों है
और आता भी है तो चुपचाप
चला क्यों नहीं जाता
क्यों स्त्री को
एहसास दिलाया जाता है
कि तुम्हारे बिना
यह सृष्टि चल ही नहीं सकती
तुम ही सब कुछ हो
तुम माँ दुर्गा, तुम ही काली हो
तुम आदि लक्ष्मी , तुम शक्तिशाली हो
तुम तनया, तुम भगिनी हो
तुम माता, तुम जीवन संगिनी हो

शायद इस दिन किसी स्त्री पर
कोई अत्याचार नहीं होता
शायद इस दिन उसकी अस्मत
बिलकुल सुरक्षित होती है
कदाचित् इस दिन कोई बेटी
कोख में नहीं मारी जाती
कदाचित् इस दिन कोई बहू
रसोई घर में गैस सिलिंडर
की भेंट नहीं चढ़ती.

जिस दिन 'शायद
और कदाचित्' यथार्थ
रूप ले लेंगे
उस दिन से सचमुच
मेरे लिए हर दिन
8 मार्च होगा.

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

ललकार रहा है हिंदुस्तान...


ललकार रहा है हिंदुस्तान


ललकार रहा है हिन्दुस्तान
सुधर जा ओ अब पाकिस्तान!
मारो, काटो, आतंक करो...
ऐ दहशत गर्दों शर्म करो...
क्या इस्लाम यही सिखलाता है?
क्या कुरान से तुम्हारा नाता है?

क्यों खून खराबा करता है?
उस खुदा से क्यों नहीं डरता है?
क्यों अपनी नीच हरकतों से
तू घाटी को दहलाता है?
स्वर्ग से सुंदर धरती को
क्यूँ खून से तू नहलाता है?

ओ मसूद अजहर मौलाना!
तुझे चाह रही हूँ बतलाना!
है पाकिस्तानी शूकर तू
औकात नहीं तेरी लत्तों की!
तेरी हरकत है श्वानो जैसी
दुर्दशा भी होगी श्वानों सी ¡

कश्मीर तेरी जागीर नहीं
मत गंदी नजरे डाल इधर
तेरी लाश के जब जर्रे होंगे
'पाकि' ढूंढेंगे इधर-उधर!

कर ले तैयारी जाने की...
और नर्क में जश्न मनाने की...
तुझे हूरें बहत्तर बुला रही ..
तेरी याद में टेसूएँ बहा रहीं...

तू भारत को ललकार रहा 
तेरा काल तुझे है पुकार रहा!
रख याद कि सारी शहादतें
बेकार नही होने देंगे!
तू जब तक खाक नहीं होता
तुझे चैन से न सोने देंगे!

सुधा सिंह 📝 

बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

धुंँधले अल्फाज़..




छूटा कुछ भी नहीं है ।
जिन्दगी के हर सफ़हे को
बड़ी इत्मीनान से पढ़ा है मैंने।
मटमैली जिल्द चढ़ी वह किताब
बिलकुल सही पते पर आई थी।
अच्छी तरह से उलट - पलट कर
बड़े गौर से देखा था मैंने उसे।
उस पर मोटे मोटे हर्फों में
मेरा ही नाम लिखा था।

खिन्न हो गई थी मैं
उस किताब को देखकर।
रद्दी से पुराने जर्द पन्ने
जिन्हें चाट गए थे दीमक।
लगता था छूते ही फट जाएंगे।
इसलिए झटके से
एक किनारे कर दिया था उसे।
पर उस डाकिये ने
अपनी धारदार तलवार
रख दी मेरी गर्दन पर।
और खोल कर दे दिया पहला पन्ना.
बड़े कठिन थे उसके अल्फाज।
अनसुने , अनजाने , अनदेखे से
लफ्ज पढ़े ही नहीं जा रहे थे।

पुकार रही थी मैं
सभी अपनों को।
पर सब के हाथ पैर
जकड़ दिए थे जंजीरों से।
और मुँह पर ताला भी
जड़ दिया था उस सैय्याद ने
कि कोई और न पढ़ सके।
कितनी ही मिन्नतें की थी
उस डाकिये से।
पर संगदिल वह
अड़ा रहा अपनी जिद पर।

बहुत पीछे छूट गये थे वे लम्हें
जब स्वर्णिम रंगों से लबरेज
मदमस्त चितचोर चंचल
तितली की तरह
उड़ती फिरती थी मैं .

यह तितली पढ़ने लगी थी अब
बड़ी शिद्दत से
अपने नाम की भद्दी खुरदुरी सी वह किताब..
उजले स्याह सफ़हों में लिखे
धुंधले महीन अल्फाज
समझ से परे रहे थे
फिर भी लगातार पढ़ रही थी कि
जल्दी से पूरी करके
निकलूँ फिर से
आसमान की स्वच्छंद सैर पर।

बीत गया एक अरसा
पढ़ने और समझने में।
झर गए सारे पंख।
पर कुछ मजमून अभी
भी समझ नहीं आये।
क्लांत, शिथिल मैं
अब उड़ान की ख्वाहिश नहीं रही।

बनकर अनसुलझी पहेली
कुछ अक्षर अभी भी
खड़े हैं मेरे सामने।
पूछूँ किससे कोई नजर नहीं आता।

न जाने डाकिया जाएगा कब
और यह किताब कब होगी पूरी।

सुधा सिंह 📝